-सुदर्शन कुमार सोनी- कुत्ते के मालिक होते हैं यह तो आपने हमने सबने सुना है। और मालिक के साथ चलते हुये कुत्ते का गरूर देखते ही बनता है। यह जीभ बाहर निकाल कर बेवजह लम्बे समय तक मुंडी हिलाता रहता है। हर आदमी चाहता है कि वह कुत्ते, एक अदद कुत्ते का मालिक बने। जितना महंगा व शानदार कुत्ता हो व उसकी चेन मालिक के हाथ में घुमाते समय हो तो उसकी छाती उतनी ही चैड़ी हो जाती है। मालिक जब कार में अपने डॉगी को लेकर जाता है तो…
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कहानी: निकाह
-शोभा रस्तोगी- शाकिर जब पैले पेल आया तो गोरा-गबरू था। भारी बाजुओं में अलग ही कसाव था। अलीगढ़ के मदार गेट की बदनाम गली की नरगिस के चेहरे पर खुशबू के छींटें पड़ रहे थे। पान का बीड़ा दबाती सारुन की भौं सिकुड़ी, अब न रहा बो कसाब का? हाल ही बुझी, धुंआ छोड़ती मोमत्ती सी हिली नरगिस। कसाव कुछ बेदम सा होता जा रहा है। केई दफा थूक में खून आ जाए है। नरगिस के मुंह पर तिर्यक रेखा सा खिंचाव आ गया था। हैं? अये कैंसर-बैंसर तो न…
Read Moreकहानी: चंदू का सोहना
-महेश कुमार गोंड हीवेट- दिन भर खेतों में मजदूरी करने के बाद थका-हारा चंदू जब शाम को घर लौटता तो अपने सात वर्षीय पुत्र सोहना को देखकर मानों दिन भर की थकान को भूल ही जाता। सोहना की शरारत भरी सवालों को सुलझाने में ही उसकी शाम कट जाती। कभी सोहना को अपनी पीठ पर बैठाकर घोड़े की सवारी कराता, तो कभी गोद में उठाकर झूला झुलाता। फिर रात को अपनी ही थाली में खाना खिलाता। इसके बाद भले ही सोहना गहरी निद्रा में डूब जाता, परन्तु चंदू की आंखों…
Read Moreलघुकहानी : हुनर
-राजेश माहेश्वरी- बनारस में दो मित्र महेश और राकेश रहते जिन्हें मिठाईयाँ एवं चाट बनाने में महारत हासिल थी। उनके बनाये हुए व्यंजन बनारस में काफी प्रसिद्ध थे। एक दिन इन दोनों के मन में विदेश घूमने की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने सोच विचार करके इसके लिए चीन जाने का निश्चय किया। इस हेतु वे दिन रात कडी मेहनत करके रूपया इकट्ठा करने लगे। इस दौरान उन्होंने अपना पासपोर्ट बनवाकर अन्य सभी औपचारिकताएँ पूरी करके अपने संचित धन से टिकिट लेकर चीन के गंजाऊ शहर पहुँच गये। उन्हें वहाँ पर…
Read Moreव्यंग्य : लाठी खाने वाले सौभाग्यशाली
-सुरेश सौरभ- मैं इस देश का बहुत महान आदमी हूं। महान इसलिए अपने आप को कह रहा हूं, क्योंकि खुद को महान कहते-कहते मीडिया वाले भी मुझे अब महान बना चुके हैं। जीते जी और मरने के बाद भी मुझे महान ही बने रहने की हसरत है। मरने बाद इस पावन मातृ भूमि पर मेरी विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति लगाई जाए ऐसी दिल-फेफड़े-गुर्दे में तमन्ना पाले बैठा हूं। लेकिन आजकल पता नहीं क्यों लोग मेरी महानता से बेवजह जलने-भुनने लगे हैं। जरा-जरा सी बात के लिए बस मेरी ही…
Read Moreव्यंग्य : रूसी भाषा में शपथ लूं, तो चलेगा?
-अशोक मिश्र- बंगाल में बड़े भाई को कहा जाता है दादा। ऐसा मैंने सुना है। उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में दादा पिताजी के बड़े भाई को कहते हैं। बड़े भाई के लिए शब्द दद्दा प्रचलित है। समय, काल और परिस्थितियों के हिसाब से शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं। आज दादा का मतलब क्या है, यह समझाने की नहीं, समझने बात है। वैसे अब दादा का समानार्थी कहिए, पर्यायवाची कहिए, नेताजी हो गया है। मेरे गांव नथईपुरवा में रहते हैं मुसद्दी लाल। पहले वे दो-चार चेले-चपाटों के बल पर…
Read Moreकिनारे की चट्टान: पहाड़ का दर्द
-अलकनंदा साने- सुदूर हिमाचल प्रदेश से कोई कवि जब अपनी किताब भेजता है, तो उसका आनंद कुछ और ही होता है और फिर उस काव्य संग्रह की कविताएं बेहतरीन हों तो यह आनंद द्विगुणित हो जाता है। युवा कवि पवन चैहान के काव्य संग्रह किनारे की चट्टान जब मेरे हाथ में आया तो मेरा यही अनुभव था। पवन चैहान से मेरा परिचय सोशल साइट की वजह से है और यह इस माध्यम की एक खूबसूरत उपलब्धि कही जा सकती है। बहरहाल जिस दिन यह संग्रह हाथ में आया, मैं एक…
Read Moreव्यंग्य : झगड़झिल्ल जन्मदिन की
-देवेन्द्र कुमार पाठक- लल्लुओं-पंजुओं की किसी भी बात पर विवाद हो तो कौन सुनता, गुनता या उस पर सर धुनता है, लेकिन विवाद किसी राजनीतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक, चित्रपट आदि कोटि की हस्ती को लेकर हो, तो बात ही क्या है! एक तो ‘वाद’ से जब से अपनी चीह्न-पहचान हुयी है, तब से विवाद कुछ ज्यादा ही सुखद और रुचिकर लगने लगा है. गयी-गुज़री भूत हो चुकी सदी में ‘वाद’ पर थोड़ा कायदे से पढ़-वढ़ कर, साक्ष्यों के साथ विवाद करनेवालों की खोज-खबर अब इस चालू सदी में कौन कब…
Read Moreउजली बयार (कहानी)
-सुरेश सौरभ- सारा दिवस काम करके सुकई सांझ ढले घर नहीं लौटा। दूसरे गांव के किसी छोर पर एक सरकारी सड़क बन रही थी वहीं मजूरी पर लगा हुआ था। पता चला सुबह कोई मंत्री-संतरी आने वाला है, सड़क देखने के लिए इसलिए उसे बताया गया काम रातभर चलता रहेगा और रात में दुगुनी मजूरी मिलेगी। लिहाजा रात में डबल मजूरी के लोभ-लालच में सुकई और उसके तमाम साथियों को रोक लिया गया। सुकई अपनी मुफलिसी का संघर्ष ऊंघते अलसाते सुस्ताते पत्थरों गिट्टियों से करने लगा। गरीब के हाथ में…
Read Moreकहानी : खुले पंजोंवाली चील
-बलराम अग्रवाल- दोनों आमने-सामने बैठे थे – काले शीशों का परदा आँखों पर डाले बूढ़ा और मुँह में सिगार दबाए, होठों के दाएँ खखोड़ से फुक-फुक धुँआ फेंकता फ्रेंचकट युवा। चेहरे पर अगर सफेद दाढ़ी चस्पाँ कर दी जाती और चश्मे के एक शीशे को हरा पोत दिया जाता तो बूढ़ा ‘अलीबाबा और चालीस चोर’ का सरदार नजर आता। और फ्रेंचकट? लंबोतरे चेहरे और खिंची हुई भवों के कारण वह चंगेजी मूल का लगता था। आकर बैठे हुए दोनों को शायद ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था, क्योंकि मेज अभी तक…
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