उजली बयार (कहानी)

-सुरेश सौरभ-

सारा दिवस काम करके सुकई सांझ ढले घर नहीं लौटा। दूसरे गांव के किसी छोर पर एक सरकारी सड़क बन रही थी वहीं मजूरी पर लगा हुआ था। पता चला सुबह कोई मंत्री-संतरी आने वाला है, सड़क देखने के लिए इसलिए उसे बताया गया काम रातभर चलता रहेगा और रात में दुगुनी मजूरी मिलेगी। लिहाजा रात में डबल मजूरी के लोभ-लालच में सुकई और उसके तमाम साथियों को रोक लिया गया। सुकई अपनी मुफलिसी का संघर्ष ऊंघते अलसाते सुस्ताते पत्थरों गिट्टियों से करने लगा। गरीब के हाथ में जहां से चार पैसे मिलने का सहारा हो वहीं उसका पीर घाट  होता है। घर में उसकी पत्नी सन्नो और युवा हो रही बेटी चंपा थी।

शाम अपनी चादर समेट कर हौले-हौले कदमों से जा चुकी थी। रातरानी सी महकती लचकती बावरी सोंधी-सोंधी यामिनी का आगमन हो चुका था। आज चंपा की मां उसे अकेला छोड़कर गांव में किसी के घर, गाने बजाने जाने लगी। जाते-जाते बेटी को ताकीद दी-आज उनके यहां रतजगा है। अगर न गई तो  बाद में ताना-उलाहना कौन सुनेगा, फिर तेरी शादी में कौन लौंग-लोबान चढ़ाने आयेगा। ठीक से बंद कर लेना, बापू तेरा आता ही होगा। ये भी नहीं कि देर-बेर हो गई है, चलो एक फोन ही कर दे।…… अरे! करे भी तो किसके फोन से कितनी बार कहा  पांच सौ रुपैया वाला एक चाइना मोबाइल ले लो पर हाय!रे-ये गरीबी खाने पीने से दमड़ी बचे तब न। जाने कितनी बार कहा तब जाकर कहीं घर पर एक चाइना चुनौटी आ पायी …….यही सब बड़बड़ाते हुए झुंझलाते हुए चली गई।

रात गहराने लगी पर सन्नो नहीं लौटीं। गाने बजाने वाली कौमें जहां जमा हो जाएं वहां दिन-रातें सिकुड़ कर बौनी पड़ने लगतीं हैं। चंपा का सुर्ख चंपाई यौवन अंगड़ाइयां लेते हुए अनगिन ख्वाबों की दुनिया में हिचकोले खा रहा था। तभी एकाएक कोई धड़ाम से आंगन में कूदा… अचकचा कर भय से मिचमिचाते हुए आंखें खोलीं। देखा सामने असलहा ताने गांव का एक नम्बर का लुच्चा लफंगा रज्जू सिंह खड़ा है। ढिबरी की रौशनी में उसका रौबीला गठीला बदन देखकर अंदर तक सहम गई। घिघ्घी बंध गई। वह जड़वत सी उसे विस्मय से फटी-फटी आंखों से देखते हुए उठ बैठी-हाय! यह हरामी का पिल्ला कहां से टपक पड़ा। नासपीटे की लार देखो कैसे टपक रही। जवान अकेली लौडिया देखकर इसकी आंतें तड़प रहीं हैं। आज इसके मुंह में आग लगा दूंगी.. सारी हरामीपंती पेट में खोंस दूंगी….दिमागी घोड़े सरपट बेतहाशा दौड़े जा रहे थे।

आज शेर को नरम चारा बिल्कुल मिल जायेगा। जिसकी ताक में वर्षों से चौरासी कोसीय परिक्रमा कर रहा था। रौब में बोला-अगर जरा भी चिल्लाई तो पूरे असलहे की गोलियां तेरे सीने पर झार दूंगा। चुपचाप तैयार हो जा मेरी बांहों का हार बनने के लिए।’

चंपा खुद को संभालते हुए गिड़गिड़ाते हुए-तैयार तो मैं कब से बैठी थी मेरे जानूं तू ही नासपीटे जाने कहां बैठा था। आजा मेरे राजा। मेरे प्यासे अधरों की प्यास बुझा जा। हाय! मेरे जानूं तेरे लिए तो मैं तो बरसो से तड़प रहीं हूं। आज घर में कोई नहीं है। चंपा की तुझ पर जां निसार मेरे छलिया, मेरे लाले।’

गदराई देह, लरजते थरथराते ओंठ, कसमसाते बदन की विकलता और स्पष्ट आमंत्रण को देखकर रज्जू चौंकते हुए बोला-ये सूरज पश्चिम से कैसे निकल रहा है। मेरी ’ज’ से जानूं आ तुझको मैं दिल में बसा लूं।

’रात में चांद निकलता है जानूं।  और चांद तुम्हारे सामने है मेरे चकोर। काहे कर रहे देर। जल्दी आओ बांहों में वर्ना हो जायेगी सबेर।

’हाय! रे दादा क्या बात है।

’पास आओ अभी सुनसान रात है।’

’इस बात का मुझे अहसास है।’

’फिर जल्दी से शुरु कर जीओ फ्री नेटवर्क साथ है मेरे रजूआ।’

’अभी मिला रहा हूं नेटवर्क मेरी छ से छमिया।

‘अब बस पहाड़ से ज्वालामुखी फूटने को आतुर था। धधकता लावा बाहर आने को अधीर था। असलहा ढीला करके छोड़ दिया। फिर चंपा की ओर बड़ी तेजी से लपका। जैसे छींका टूटने पर बिल्ली लपकती है। आज ताजा माल बिल्ली मुंह में बस आया आया आया.. तभी कुछ दडबड़-दड़बड़ हुई ढिबरी गिरी धड़ाक…फिर अंधेरा अंधेरा। तभी इसी अंधेरे में एक गगन को छूती चीख उठी-हाय! रे मार डाला साली ने… तेरी मां की आंख.. तेरी बहन की चोटी…

सांय-सांय करती रात की धड़कनें और तेज हो गईं। फिर एकदम से रात के सन्नाटें में गातें झिंगुरों की झनझनाहटें मदमस्त हो गईं। आकाश के सारे सितारे न जाने किसी अनजान खुशफहमी में अचानक जैसे झूमने लगे हो, नाचने लगे हो, गाने लगे हो। अब वासना का एक आवारा परिन्दा दर्द की विशाल दरिया में  समाने लगा।

अगले दिनों के समाचार पत्रों में छपा-एक बहादुर ग्रामीण युवती ने अपनी आत्मरक्षा करते हुए गांव के एक दबंग शातिर अपराधी रज्जू सिंह का निजी भू-भाग  छप्पर में लगी दरांतीं से काट डाला। उसकी बहादुरी से खुश हो कर, सरकार उसे 26 जनवरी को निर्भया सम्मान प्रदान करेगी, यह सम्मान उन साहसी महिलाओं को दिया जाता है, जो समाज में चंपा जैसा कोई वीरता भरा कारनामा करके दिखातीं हैं। फिर तो चंपा पर छोटी-मोटी संस्थाएं मान-सम्मान झर-झर-झर बरसाने लगीं। शहर की तंग गलियां, ऊंची-ऊंची-अट्टालिकाएं और गांव के गर्द-गुबार में मचलते आवारा परिन्दे भी अब चंपा का जयघोश करने लगे। ऐसे ही कितनी चंपाएं अपनी आत्मरक्षा कर पायेंगी। लाज बचा पायेंगी। यह अखबार नहीं बता पा रहे थे। अब नेता-मंत्री चंपा के साथ फोटो खिंचा-खिंचा कर अखबारों में, सोशल मीडिया में सजा-सजा कर अपने-अपने चौखटे चमका रहे थे।

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