कहानी: आर्ट का पुल

-फहीम आजमी- (अनुवाद-शम्भु यादव) पहले तो सारा इलाका एक ही था और उसका नाम भी एक ही था। इलाका बहुत उपजाऊ था। बहुत से बाग, खेत, जंगली पौधे, फूल और झाडियां सारे क्षेत्र में फैली हुयीं थीं। इसइलाके के वासियों को अपने जीवन की आवश्यकताएं जुटाने के लिये किसी और इलाके पर आश्रित नहीं होना पडता था।खेतों से अनाज, पेसों से मकान बनाने और जलाने केलिये लकडियां, भट्टों से पकी हुयी इंटें, पास के बागों से फूल और साग-सब्जी, पास के तालाब से मछलियां… अर्थात आवश्यकता के सभी पदार्थ उपलब्ध…

Read More

(व्यंग्य) : डाल डाल की दाल

-दिलीप कुमार- “दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ” बहुत-बहुत वर्षों से ये वाक्य दोहरा कर सो जाने वाले भारतीयों का ये कहना अब नयी और मध्य वय की पीढ़ी को रास नहीं आ रहा है। दाल की वैसे डाल नहीं होती लेकिन ना जाने क्यों फीकी और भाग्य से प्राप्त चीजों की तुलना लोग दाल से ही करते हैं और अप्राप्त चीजों मीनू में दिख रही महंगी बिरयानी की तरह ललचाकर देखते हैं। उसी तरह काली दाल, पीली दाल और तरह तरह की दालें होती हैं लेकिन भारतीय लोग…

Read More

कहानी : कलंक

-सिराज- शादी की तैयारियां हो चुकी थीं। अगले दिन सुबह बारात आने वाली थी। लड़की के परिवार में तनाव की स्थिति थी। लड़की के पिता रतन से कहते हैं ‘बेटा चौकन्ना रहना कोई गड़बड़ी न हो। वो हमारे घर के आस-पास दिखने न पाए। मैंने सब को बोल रखा है जैसे वो दिखे तो टांगे तोड़ दें।’ ठीक है पिता जी… मैंने भी अपने दोस्तों को बोल रखा है। अरे हां, शादी के कार्ड सारे लोगों तक पहुंच गए हैं न? हां, वो तो कल ही पहुंचा दिए गए। एक…

Read More

कहानी : एक थी गौरा

-अमरकांत- लंबे कद और डबलंग चेहरे वाले चाचा रामशरण के लाख विरोध के बावजूद आशू का विवाह वहीं हुआ। उन्होंने तो बहुत पहले ही ऐलान कर दिया था कि ‘लड़की बड़ी बेहया है।’ आशू एक व्यवहार-कुशल आदर्शवादी नौजवान है, जिस पर मार्क्स और गाँधी दोनों का गहरा प्रभाव है। वह स्वभाव से शर्मीला या संकोची भी है। वह संकुचित विशेष रूप से इसलिए भी था कि सुहागरात का वह कक्ष फिल्मों में दिखाए जाने वाले दृश्य के विपरीत एक छोटी अँधेरी कोठरी में था, जिसमें एक मामूली जंगला था और…

Read More

व्यंग्य : झगड़झिल्ल जन्मदिन की

-देवेन्द्र कुमार पाठक- लल्लुओं-पंजुओं की किसी भी बात पर विवाद हो तो कौन सुनता, गुनता या उस पर सर धुनता है, लेकिन विवाद किसी राजनीतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक, चित्रपट आदि कोटि की हस्ती को लेकर हो, तो बात ही क्या है! एक तो ‘वाद’ से जब से अपनी चीह्न-पहचान हुयी है, तब से विवाद कुछ ज्यादा ही सुखद और रुचिकर लगने लगा है. गयी-गुज़री भूत हो चुकी सदी में ‘वाद’ पर थोड़ा कायदे से पढ़-वढ़ कर, साक्ष्यों के साथ विवाद करनेवालों की खोज-खबर अब इस चालू सदी में कौन कब…

Read More

छिपकली (कहानी)

-सुलक्षणा अरोड़ा- कविता की यह पहली हवाई यात्रा थी. मुंबई से ले कर चेन्नई तक की दूरी कब खत्म हो गई उन्हें पता ही नहीं चला. हवाई जहाज की खिड़की से बाहर देखते हुए वह बादलों को आतेजाते ही देखती रहीं. ऊपर से धरती के दृश्य तो और भी रोमांचकारी लग रहे थे. जहाज के अंदर की गई घोषणा ‘अब विमान चेन्नई हवाई अड्डे पर उतरने वाला है और आप सब अपनीअपनी सीट बेल्ट बांध लें,’ ने कविता को वास्तविकता के धरातल पर ला कर खड़ा कर दिया. हवाई अड्डे…

Read More

व्यंग्य : आटा, डाटा और नाटा

-अशोक गौतम- दोस्तो, आज पूंजीपति और सर्वहारा के बीच का संघर्ष गौण हो गया है या कि सर्वहारा वर्ग पूंजीपतियों से लड़तेलड़ते मौन हो गया है. इसीलिए, समाज में समता लाने वाले वादियों ने भी सर्वहारा के लिए लड़ना छोड़ सर्वहारा के चंदे की उगाही से शोषण की समतावादी मिलें स्थापित कर ली हैं. आज संघर्ष अगर किसी के बीच में है तो बस आटे और डाटे के. अब वे हम से डाटे के हथियार से हमारा आटा छीन रहे हैं. हम से समाज का नाता छीन रहे हैं. हम…

Read More

गहरी जड़ें (कहानी)

-अनवर सुहैल- असगर भाई बड़ी बेचैनी से जफर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जफर उनका छोटा भाई है। उन्होंने सोच रखा है कि वह आ जाए तो फिर निर्णय ले ही लिया जाए, ये रोज-रोज की भय-चिंता से छुटकारा तो मिले! इस मामले को ज्यादा दिन टालना अब ठीक नहीं। कल फोन पर जफर से बहुत देर तक बातें तो हुई थीं। उसने कहा था कि – ‘भाईजान आप परेशान न हों, मैं आ रहा हूँ।’ असगर भाई ‘हाइपर-टेंशन’ और ‘डायबिटीज’ के मरीज ठहरे। छोटी-छोटी बात से परेशान हो जाते…

Read More

कहानी : ‘ठक-ठक’ बाबा

-मिहिर- दोपहर की उजास जब खिड़कियों तले फूटकर भीतर को आती थी, तो उनसे गर्मियों की धूप-छांव कुछ उदास हो जाती थी। तब दोपहर के भोजन मैं कुछ खा-गिरा कर उधम मचाते हम बालकों की टोली को अम्मा कुछ देर सुलाने के लिए बगल में लेट जाती थी। खिड़की उदास। तलैया उदास। मरणासन्न उदासी को तोड़ती मक्खियों की भिनभिनाहट में गांव की बारादरियां हवाओं से लाचार होतीं। दोपहर के समय गांव कुछ उकताया-सा धूप के ढलने का इंतजार करता, सुस्ताया होता था। बालकों के शोर से कुछ पल की निजात…

Read More

व्यंग्य: बनते-बिगड़ते फ्लाई ओवर

-यशवंत कोठारी- जब भी सड़क मार्ग से गुजरता हूं किसी न किसी बनते बिगड़ते फ्लाई ओवर पर नज़र पड़ जाती है। मैं समझ जाता हूं सरकार विकास की तय्यारी कर रही है, ठेकेदार इंजिनियर-कमीशन का हिसाब लगा रहे हैं, और आस पास की जनता परेशान हो रही हैं। टोल नाके वाले आम वाहन वाले को पीटने की कोशिश में लग जाते हैं। फ्लाई ओवर का आकार -प्रकार ही ऐसा होता हैं की बजट लम्बा चौडा हो जाता है। अफसरों की बांछें खिल जाती हैं। सड़क मंत्री संसद में घोषणा करते…

Read More