व्यंग्य : चंदा रे चंदा

-प्रभात गोस्वामी- आज रेडियो पर वर्ष 1971 की फिल्म- ‘लाखों में एक’ का गीत ‘चंदा ओ चंदा, किसने चुराई तेर -मेरी निंदिया’, सुन रहा था कि अचानक हमारे एक मित्र छम्मन जी, आ टपके. राजनीति के अखाड़े में एक ‘नवजात पार्टी’ के साथ जुड़कर छम्मन अपना भविष्य तलाश रहे हैं. बोले- भाई साहब क्या गाना है ? चुनाव आते ही हम सभी -जनप्रतिनिधियों की नींद इस ‘चंदा’ ने ही उड़ा रखी है. वो गुनगुनाने लगे ‘-तेरी और मेरी, एक कहानी/हम दोनों की कदर किसी ने ना जानी’. आजकल छोटी पार्टियों…

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लघुकथा : बोलता मटका

-सिद्धार्थ संचोरी- एक बार एक कुम्हार एक मटका बना रहा था। तो मटके और कुम्हार के बीच रोज नोंक-झोंक होती रहती थी।  मटका जब भी कुछ बोलता कुम्हार उसे पीटना शूरु करता। एक दिन जब मटका बड़ा हो गया तो उसे कुम्हार अपनी दुकान पर ले गया। अब जब भी ग्राहक उस मटके की और देखते तो कुम्हार उसे दूसरे मटके दिखा देता। इस बात से मटका बहोत नाराज रहता था। कभी कभार नोंक-झोंक  ज्यादा हो जाती तो मटके की और मरम्मत की जाती या ये कहो के ठोक पीट …

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कहानी: पीपल का पेड़

-डॉ. गीता गीत- आज धीरेन्द्र दा के सारे कार्यक्रम सम्पन्न हो गये। एक-एक करके सभी मेहमान जा चुके हैं। सबेरे पंकज भी परिवार सहित अपने मामा ससुर के घर चला गया है। पर जाते-जाते धीरा बौदी से बोल गया है-मां, तुम खूब सोच लो, मैं कल आऊंगा। मुझे तुम्हारे फैसले का इंतजार है। तुम सोच समझकर कल अपना फैसला बता देना। इक्का-दुक्का मिलने वालों का क्रम जारी है। फिर भी लग रहा है चारों ओर निस्तब्धता व्याप्त है। शाम घिर आयी है। धीरा घर के आंगन के पीपल के पेड़…

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अपेक्षाएं (कहानी)

-सुभाष चंद्र कुशवाहा- दशहरे की छुट्टियों में मैं गांव में था। घर-बार, बाग-बगीचे, ताल-तलैये, बंसवारी अपनी जगह थे, थोड़ी-बहुत आकार-प्रकार की भिन्नता के साथ। पुराने संगी-साथियों में कुछ थे, कुछ काम-धंधे के वास्ते बाहर गए थे। धान की कटाई हो चुकी थी। समीप के बाजार में बजते दुर्गापूजा के नगाड़े, देर रात तक सुनाई देते। बरसात से धुले मौसम का रंग-रूप निखरा हुआ था। इस बार गांव पहुंचने पर पहले जैसा उल्लास नहीं दिखा। बाबू जी में और न पट्टीदारी की भौजाई चहकती हुई आई थीं। दोनों मामा मिलने नहीं…

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व्यंग्य : कहां दाल, कहां मुर्गी!

-ब्रजेश कानूनगो- मुर्गी फिर चर्चा में है इन दिनों। महंगाई के दौर में कुछ अलग ढंग से चर्चा में है। प्रजातंत्र में किसी भी चीज पर चर्चा की जा सकती है। संविधान में ही व्यवस्था दी गयी है कि राष्ट्र के नागरिक किसी भी बात पर पूरी स्वतंत्रता से अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। चाहें तो सेंसेक्स की चिंता करें या आर्थिक मंदी की। सड़क के गड्ढों की बात करें या संसद के अवरोध की। भ्रष्टाचार पर लगाम के उपायों की करें या बढ़ती महंगाई पर रोकथाम की। कोई…

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पेइंग गेस्ट (कहानी)

-राघवेंद्र सैनी- धीरे-धीरे चल कर जल्लू चाचा बाहर की बालकोनी में आ कर बैठ जाता है। संध्या रात्रि में परिवर्तित होने को है। पश्चिम का पथिक यद्यपि डूब चुका है तथापि व्योम के एक कोने में उस की लालिमा अभी भी शेष है। पक्षियों का चहचहाना समाप्त हो चुका है। लगता है, सभी अपने घोसलों में दुबक चुके हैं। चारों ओर शान्ति है। केवल इक्का-दुक्का वाहन कभी-कभी अपनी चिंघाड़ से इस शान्ति को भंग कर रहे हैं। जल्लू चाचा के छोटे बेटे के ब्याह का शोर-गुल समाप्त हो चुका है।…

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कहानी: एक आस्था की मौत

-प्रमोद यादव- बाबूजी तब कितने उत्साहित रहा करते जब मनीष भैया इम्तिहान के बाद छुट्टियों में घर आते…भैया की पसंदगी का पूरा-पूरा ख्याल रखते हुए बाबूजी वही कुछ उसे बनाते खिलाते जो भैया पसंद करते.. रिजल्ट खुलते ही पास होने पर कोई न कोई पूजा-अनुष्ठान अवश्य कराते.. पूजा की तैयारी तीन-चार दिनों पूर्व ही शुरू हो जाती.. बस.. मां के पीछे ही पड जाते बाबूजी.. कहते-मेरा वो साफा-जेकेट निकाल दो.. वो नया वाला पाजामा निकाल दो.. कोसे का कुरता निकाल दो.. मां कहती-अभी तो पूजा में दो दिन बाकी है..…

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व्यंग्य : डेंगू, चिड़िया, गाय और भावुकता

-निर्मल गुप्त- डेंगू क्या आया, बेचारी चिड़ियों और गली मोहल्लों में भटकने वाली गायों को पीने के लिए साफ पानी मिलना दूभर हो गया। सबको पता लग गया कि डेंगू वाला मच्छर साफ पानी में पनपता है। चिड़ियों के लिए घर की छत पर रखे जलपात्र और सार्वजनिक नांद रीती कर दी गईं। एक की वजह से दूसरे की जान सांसत में आ गई। अब देखिए न, बिल्ली छीके पर टंगी दूध मलाई की मटकी ढूंढ़ती घर में आई तो सारे चूहे बिल में जा छिपे, अलबत्ता वह मुंडेर पर…

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कहानी: समय की तंगी

-सुनील सक्सेना- जगदीश के पिता के देहांत की सूचना उसे सुबह-सुबह रमाकांत के फोन से मिली। कुछ देर में वह जगदीश के घर पहुंच गया। लेकिन सुबह रमाकांत की बातों, फिर अपनी पत्नी के हाव-भाव और जगदीश के घर पर भी उसे पिता जी के देहांत के दुख से ज्यादा किसी और बात की चिंता की अनुभूति हो रही थी। कड़ाके की ठंड। सूरज नदारद। कोहरे का राज। रविवार का दिन हो, तो कोई अहमक ही होगा जो रजाई से निकलकर खूबसूरत सुबह को बरबाद करे। सुबह-सुबह जब मोबाइल की…

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व्यंग्य : इस का इलाज कराओ भाइयो

रामजस एक बार संगीत सुनने गए थे. असल में जाने का उन का जरा भी मन नहीं था, लेकिन पड़ोसियों ने ऐसा दबाव डाला कि वे टाल नहीं सके. पड़ोसियों ने कहा, टिकट भी हम ले लेंगे मगर चलो. जिंदगी में एक बार तो संगीत सुन लो. कितना बड़ा कलाकार आया है अपने गांव में. बारबार नहीं मिलते ऐसे मौके.रामजस ने बहुत कहा कि मुझे कुछ लेनादेना नहीं है शास्त्रीय संगीत से. क्या शास्त्रीय और क्या संगीत. मैं मजे में हूं. घर और खेत में ही मेरा सारा दिन गुजर…

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