न तो कद्दू कटेगा और न बंटेगा…

के.कौशलेन्द्र

झारखंड के हालिया सियासी तूफान और महागठबंधन के तार-तार होते रिश्ते को शायर सागर ख़य्यामी ने निम्न पंक्तियों में बरसों पहले बयां कर दिया था –
कितने चेहरे लगे हैं चेहरों पर क्या हक़ीक़त है और सियासत क्या?
जी हाँ, विधायकों की खरीद फरोख्त कर सत्ता में उलटफेर का फेरा कई सियासी खिलाड़ियों को भारी पड़ने वाला है. औरों की तो छोड़ दीजिये कुर्बानी की बकरीद मना रहे झारखंड कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष व जामताड़ा विधायक डा. इरफान अंसारी ने तो कतई नहीं सोचा होगा कि उनकी विश्वसनीयता ही कुर्बान हो जायेगी. भाजपाई से कांग्रेसी बने बरही विधायक उमाशंकर अकेला तो खैर अपनी अंतिम सियासी पारी ही खेल रहे हैं.

पिछले दिनों सियासी उठापटक की चिंगारी तब भड़क उठी जब बरकट्ठा से निर्दलीय विधायक अमित यादव के साथ मिलकर दो कांग्रेसी विधायकों डा. इरफान अंसारी और उमाशंकर अकेला द्वारा हेमंत सोरेन सरकार को अस्थिर करने की रची जा रही साजिश के भंडाफोड़ की खबरें सुर्खियां बटोरने लगी.
आनन- फानन में कांग्रेस ने अपने विधायकों को क्लीन चिट भी दे दिया और कांग्रेस विधायक व कांग्रेस की उत्तराखण्ड प्रभारी दीपिका पांडे सिंह ने भी झामुमो पर आंखें तरेर दी.
तमाम घटनाक्रम के बावजूद मुख्यमंत्री सोरेन मौन बने रहे. किन्तु सियासी व प्रशासनिक पेंच कसा जाने लगा.
कांग्रेस के ही बेरमो विधायक अनूप सिंह ने कोतवाली थाने में मुकदमा दर्ज करा कर पुलिस को कार्रवाई का मौका दे कांग्रेस में अंदरखाने चल रहे घमासान को उजागर कर कांग्रेस की स्थिति सांप-छछूंदर वाली कर दी.
न तो कांग्रेस इस साजिश को नकार पायी और न ही स्वीकार करने की स्थिति में रही. सूत्रों की मानें तो डा. इरफान ने मुख्यमंत्री आवास जाकर अपनी गलती मानने में ही भलाई देखी. कुल मिलाकर कांग्रेस की सियासी किरकिरी जमकर हुई.

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फौरी परिणाम यही निकलता दिखा कि हेमंत सोरेन किसी भी दबाव में नहीं और फिलहाल 12 वें मंत्री पद और बोर्ड निगमों का कद्दू न तो कटेगा और न बंटेगा.

मुख्यमंत्री के सियासी संकेत स्पष्ट हैं कि उन्हें दबाव की राजनीति से निपटने का गुर पता है और आने वाले दिनों में हेमंत अपनी मर्जी के सियासी पत्ते बेधड़क खोलेंगे.

रांची पुलिस का विशेष जांच दल (एसआइटी) इस मामले की तफ्तीश में जुटा है.तय मान लीजिये की इस जांच का अंतिम परिणाम आने में काफी समय लगेगा , किन्तु इतना तय है कि अब हेमंत सोरेन पर दबाव बनाने की रणनीति के तहत कांग्रेसी विधायकों की बार-बार दिल्ली दौड़ और मीडिया बतोलाबाजी का सिलसिला या तो थम जायेगा अथवा सूबे में एक और सियासी उलटफेर होगा.
समस्त घटनाक्रम में यह भी उजागर हो गया कि झारखंड प्रदेश कांग्रेस में अभी आल इज वेल नहीं है.प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और वित्त मंत्री डा. रामेश्वर उरांव के खिलाफ कुछ विधायक लगातार मोर्चा खोले हुए हैं.उन पर अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव है और सुखदेव भगत व प्रदीप बालमुचु की वापसी का सियासी सिरदर्द भी. साथ ही मंत्री पद एवं बोर्ड निगम में अपनी कुर्सी चाहने वाले विधायकों के बागी तेवर.
गौरतलब है कि 81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में बहुमत के लिए 41 विधायकों के समर्थन की जरूरत है.हेमंत सोरेन की गठबंधन सरकार को 52 विधायकों का समर्थन हासिल है.इसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के 30, कांग्रेस के 16, राष्ट्रीय जनता दल का 1, एनसीपी का 1 और 2 निर्दल विधायकों विनोद सिंह व सरयू राय के साथ-साथ कांग्रेस में विलय का इंतजार कर रहे बंधु तिर्की व प्रदीप यादव शामिल हैं.
हेमंत सरकार गिराने के लिए कम से कम 12 विधायकों की जरूरत होगी.यह तभी संभव है जब कांग्रेस के एक तिहाई विधायक टूटकर नया धड़ा बना लें और भाजपा को समर्थन दे दें.
किन्तु भाजपा के सूत्र दावे के साथ कहते हैं कि फिलहाल भाजपा केन्द्रीय नेतृत्व ने संगठन को धार दे हेमंत सरकार को उसकी विफलता गठरी तले धाराशायी करने की रणनीति पर चलने का निर्देश दे रखा है और इसी के मद्देनजर प्रदेश भाजपा संगठन महामंत्री धर्मपाल सिंह व अध्यक्ष दीपक प्रकाश की जोड़ी प्रदेशव्यापी प्रवास कर हेमंत सरकार के चुनावी वायदों की पोल खोल अभियान के माध्यम से अपने काडर में जोश भरने में जुटी है.

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खैर ,हालिया घटनाक्रम की बेबाक विवेचना से पहले गठबंधन की राजनीति के अतीत में झांक लेते हैं.
भारत में सन् 1970 के उथल-पुथल के दौर के बाद गठबंधन की जिस राजनीति की शुरुआत हुई थी वह आज का बड़ा सच है.
जातिगत-सांप्रदायिक व अन्य अनुकूल वोट समीकरण के मद्देनजर प्रत्येक चुनाव के साथ होने वाले गठजोड़ राजनीतिक मजबूरी को तो दिखाते ही हैं, साथ ही वास्तविक तथ्य भी यही है कि उनके बिना आज कोई राजनीतिक दल सत्तासीन होने की सोच भी नहीं सकता.
सूबे झारखंड में भी राज्य गठन काल से ही हालात वही हैं. प्रयोगधर्मी बने पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के अगुवा पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास ने आजसू से गठबंधन तोड़ सियासी चूक की और हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली झामुमो- कांग्रेस-राजद महागठबंधन को झारखंड की सत्ता सौंप दी, ऐसा कहना अतिश्योक्ति तो नहीं ही होगा.

रघुबर दास की चूक से सबक ले फिलहाल झारखंड भाजपा के संगठन मंत्री धर्मपाल सिंह और प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश की जोड़ी अपने संगठन और गठबंधन सहयोगी दलों के सुर साधने में लगे हैं.
भाजपा सूत्रों की मानें तो केन्द्रीय भाजपा नेतृत्व ने पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास को भी स्पष्ट संदेश दे दिया है कि प्रदेश संगठन महामंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के सांगठनिक दुरुस्ती अभियान में पेंच लगाने से बाज आयें क्योंकि भाजपा झारखंड में हेमंत सोरेन के रूप में एक और नवीन पटनायक का उदय मोल नहीं लेना चाहती.

पड़ोसी राज्य उड़ीसा में विगत् 21 साल से तमाम सियासी तिकड़म को धत्ता बताते हुये जिस तर्ज पर नवीन पटनायक सियासी बागडोर संभाले बैठे हैं, लगभग उसी तर्ज पर सूबे झारखंड में हेमंत सोरेन एक परिपक्व राजनीतिज्ञ की भांति वर्तमान और भावी सियासी समीकरण भी दुरुस्त करने में और बगैर शोर शराबे के सियासी चुनौतियों को भी ठिकाने लगाने में जुटे हैं.
माझी-महतो-मुस्लीम वोट बैंक को दुरूस्त रखते हुये भाजपा के शहरी वोट बैंक में सेंधमारी कर झामुमो को 17-18 विधायकों की संख्या से 30 के आंकड़े पर पहुंचा कर हेमंत सोरेन ने सियासी महारथियों को यह अहसास तो करा ही दिया है कि अपने पिता दिसोम गुरु शिबू सोरेन की भांति वे भी झारखंड की राजनीति के दमदार छत्रप बन चुके हैं और उनके नेतृत्व में झामुमो अब पिछलग्गू राजनीति नहीं करने जा रही.

हेमंत सोरेन की बतौर मुख्यमंत्री ताजपोशी से लेकर अबतक के तमाम सियासी घटनाक्रम पर गौर कीजिये. घरेलू सत्ता विवाद, झामुमो के पुराने चावलों का उबाल व अन्य आरोप-प्रत्यारोप. बावजूद इसके शांत और गूढ़ राजनीतिज्ञ की भांति हेमंत अपनी राह चलते दिखे.
झामुमो संगठन की ओर से भी केन्द्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य के अलावा किसी और की टिका-टिप्पणी सुर्खियां न बटोर सकी.
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के मूक सियासी दांव के आगे फिलहाल गठबंधन सहयोगी कांग्रेस बैकफुट पर दिख रही है और प्रतिपक्ष भाजपा शीघ्र सांगठनिक असंतोष को पाट पुनः सत्ता प्राप्ति की जुगत में मंडल-मंडल अलख जगाने में जुटी है.
सियासी चुनौतियों से निपटने का हेमंत सोरेन ने जो नवीन अंदाज अपना रखा है उसका फलाफल दिख भी रहा है और आगे भी दिखना तय है.

पिता बीजू पटनायक की राजनीतिक विरासत संभालने दिल्ली से भुवनेश्वर पहुंचे नवीन पटनायक और बड़े भाई दुर्गा सोरेन की मौत के बाद पिता शिबू सोरेन की सियासी थाती संजोने राजनीति में आये हेमंत सोरेन के व्यक्तित्व में आपको काफी साम्य दिखेगा.
जब नवीन पटनायक उड़ीसा के मुख्यमंत्री बने थे तो शुरुआती दौर में एक प्यारी मोहन पांडा उनकी छाया हुआ करते थे. उस वक्त कहा जाता था कि प्यारी मोहन ही सरकार चलाते हैं नवीन तो बस चेहरा मात्र हैं. बाद के दिनों में प्यारी मोहन अतीत के पन्नों में समा गये.
झारखंड में भी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पुराने सहयोगी व मीडिया सलाहकार अभिषेक प्रसाद उर्फ पिंटू को लेकर भी कमोबेश प्यारी मोहन पांडा वाली भागवत सियासी गलियारे में हावी है किन्तु हेमंत सोरेन की राजनीतिक परिपक्वता को भांपने वाले जानते हैं कि हेमंत अपनी सियासी छवि को लेकर पूर्णतः सचेत हैं.
पिछले दिनों थानेदार रूपा तिर्की की संदेहास्पद मौत के मामले में संजय मिश्रा- दाहू यादव और उस केस के अनुसंधानक व अभिषेक प्रसाद की लगातार लंबी बातचीत का सीडीआर उच्च न्यायालय में रूपा तिर्की मामले के अधिवक्ता राजीव कुमार द्वारा न्यायालय में समर्पित किये जाने के बाद जो गुबार उठेंगे उसके परिणामस्वरूप आरंभिक दिनों में मुख्यमंत्री के ओएसडी रहे गोपाल जी तिवारी की भांति अभिषेक प्रसाद भी किनारे लगा दिये जायें तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि एक के बाद एक निर्णायक सियासी धमाके करते जा रहे हेमंत सोरेन की राजनीतिक परिपक्वता सियासी गुणा-भाग करने वालों के लिये भी चौंकाने वाली ही होती है.
दुमका- बेरमो और मधुपुर उपचुनाव में विपक्ष की घेराबंदी और बिखराव को भांप हेमंत सोरेन ने अपने प्रत्याशियों को विजयी बनाकर इतना तो साबित कर ही दिया कि राजनीतिक दांवपेंच में वे सिद्धहस्त हो चुके हैं.

प्रतिपक्ष की कमजोर कड़ी की बात करें तो निर्णायक महतो मतदाताओं का मोहभंग और रघुबर राज में काडर की अक्खड़ अनदेखी और अपमान से रूष्ट काडर असंतोष पर काबू पाना अभी भी चुनौती बना हुआ है.
झारखंड के वोट समीकरण को बेहतर समझने के लिये थोड़ा पीछे चलते हैं.
बात मार्च 1990 की है.बिहार विधानसभा की 324 सीटों में से 120 सीटों पर जनता दल ने कब्जा किया था.19 विधायकों वाली पार्टी झामुमो एवं 26 विधायकों वाली वामपंथी पार्टियां भाकपा-माकपा के समर्थन से जनता दल विधायक दल के नेता लालू प्रसाद यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे.झामुमो के बल पर बिहार सरकार चल रही थी.यही कारण था कि शिबू सोरेन एवं सूरज मंडल का सरकार में बोलबाला था.संस्थापक विनोद बिहारी महतो के रहते झामुमो में तब तक शिबू सोरेन पूरी तरह से हावी हो चुके थे.इसके महज डेढ़ साल बाद अपने पिता विनोद बाबू के निधन के बाद राजनीति में नए उतरे राजकिशोर महतो ने सांसद बनते ही झामुमो के अंदर शिबू सोरेन की जड़ें हिला दीं थीं.
पार्टी के अंदर बिना विचार-विमर्श किए सुबोधकांत सहाय को राज्यसभा चुनाव में प्रत्याशी बनाने का राजकिशोर महतो एवं पश्चिम सिंहभूम के तत्कालीन सांसद कृष्णा मार्डी के नेतृत्व में शिबू सोरेन का इतना जबरदस्त विरोध हुआ कि पार्टी दो फाड़ हो गई थी.उस वक्त झामुमो के छह सांसद और 19 विधायक थे.दो सांसद और नौ विधायकों के साथ राजकिशोर एवं कृष्णा मार्डी ने झामुमो मार्डी नामक नई पार्टी बना ली थी.
शिबू सोरेन इतने खफा हुए कि लालू सरकार से समर्थन वापस ले लिया था.इधर, मार्डी गुट के समर्थन से लालू अपनी सरकार बचाने में सफल रहे.सुधीर महतो एवं शैलेंद्र महतो को छोड़कर कमोबेश झामुमो के अधिकांश कुर्मी नेता राजकिशोर के साथ चले गए.टेकलाल महतो, शिवा महतो, अर्जुन राम महतो जैसे बड़े कुर्मी नेताओं ने राजकिशोर का साथ दिया था.
इधर, उस दौर में राजनीति में तेजी से बढ़ रहे जलेश्वर महतो, मथुरा प्रसाद महतो, जगरनाथ महतो जैसे नेताओं ने भी राजकिशोर के नेतृत्व में लंबे समय तक काम किया.झामुमो मार्डी के बैनर तले राजकिशोर अपने दम पर करीब आठ साल तक पूरे झारखंड में शिबू सोरेन एवं झामुमो को चुनौती देते रहे.
करीब पांच दशक के राजनीतिक जीवन में शिबू सोरेन को राजकिशोर महतो से अधिक चुनौती किसी नेता ने नहीं दी .1999 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजकिशोर के समता पार्टी का दामन थामने के बाद झामुमो मार्डी बहुत समय तक नहीं चली.टेकलाल महतो, शिवा महतो एवं मथुरा महतो जैसे नेताओं ने बाद में मार्डी गुट का झामुमो में विलय कर दिया.
अतीत के पन्नों से सबक ले हेमंत सोरेन ने अपने पारंपरिक वोट बैंक के साथ- साथ कुर्मी महतो वोट बैंक को भी साधना शुरू किया और दिग्गज महतो छत्रपों को गले लगा झामुमो की राजनीति को निर्णायक दिशा में मोड़ दिया.विगत चुनाव में उसका फलाफल 30 विधायकों के आंकड़े में दिखाई भी दिया.

उधर झारखंड भाजपा में उलटबांसी का दौर हावी रहा.कई दफा सांसद रहे भाजपा के पुराने सिपाही रामटहल चौधरी की विदाई और पारंपरिक सहयोगी रहे आजसू की रुसवाई मोल ले रघुबर दास ने भाजपा को 25 के आंकड़े पर ला छोड़ा.
भाजपा केन्द्रीय नेतृत्व को रघुबर चूक का भान चुनाव में शिकस्त के बाद हुआ. रणनीति बदली और उसका परिणाम आजसू की एनडीए फोल्डर में वापसी और आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो के प्रति प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शन में परिलक्षित भी हुआ.
वहीं गठबंधन की राजनीति के बावजूद हेमंत सोरेन ने दबाब को नकारने की अपनी नीति से शुरू से समझौता नहीं किया. याद कीजिये.. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद का रांची जेल प्रवास. कांग्रेस के विधायक व वर्तमान कृषि मंत्री बादल पत्रलेख व अन्य की लालू प्रसाद को शासकीय पैरोल पर रिहाई की जबरदस्त पैरोकारी. महाधिवक्ता की नकारात्मक सलाह पर मुख्यमंत्री सोरेन ने सहयोगी दलों की पैरोकारी को बेहिचक नकार दिया.
12 वें मंत्रीपद और बोर्ड निगमों की चाहत में जारी तमाम बयानबाजी और उछल कूद के बावजूद हेमंत अपने मनोनुकूल चलते दिख रहे हैं.
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के मूक सियासी दांव के आगे फिलहाल गठबंधन सहयोगी कांग्रेस बैकफुट पर दिख रही है.
पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने विधि-व्यवस्था की दुरुस्तगी को लेकर आलाधिकारियों को भी समयबद्ध अल्टीमेटम दे अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है.
अब देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस का दिल्ली दरबार हालिया फजीहत से उबरने के लिये कौन सा फार्मूला परोसता है और हेमंत क्या रूख अपनाते हैं.हालिया सियासी घटनाक्रम के मद्देनजर मुख्यमंत्री की मौन सियासत को सियासी नादानी करार देना जल्दबाज़ी ही होगी.

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