धरती को बचाने इस हाथ दे उस हाथ ले

ऋतुपर्ण दवे दुनिया भर में प्रकृति और पर्यावरण को लेकर जितनी चिन्ता वैश्विक संगठनों की बड़ी-बड़ी बैठकों में दिखती है, उतनी धरातल पर कभी उतरती दिखी नहीं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सामूहिक चिन्तन और हर एक की चिन्ता से जागरुकता बढ़ती है। बिगड़ते पर्यावरण, बढ़ते प्रदूषण को लेकर दुनिया भर में जहाँ-तहाँ भारी-भरकम बैठकों का दौर चलता रहता है परन्तु वहाँ जुटे हुक्मरानों और अफसरानों की मौजूदगी के मुकाबले कितना कुछ हासिल हुआ या होता है, यह सामने है। सच तो यह है कि दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में ग्लोबल लीडरशिप की मौजूदगी के बावजूद प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को काबू में नहीं लाया जा सका। उल्टा हमेशा कहीं न कहीं से पर्यावरण के चलते होने वाले भारी-भरकम नुकसानों की तस्वीरें चिन्ता बढ़ाती रहती हैं। यदि वाकई बिगड़ते पर्यावरण या प्रकृति के रौद्र रूप को काबू करना ही है तो शुरुआत हर एक घर से होनी चाहिए।
धरती की सूखती कोख, आसमान का हाँफता रूप बीती एक-दो पीढ़ियों ने ही देखा है। इससे पहले हर गाँव में कुँए, पोखर, तालाब शान हुआ करते थे। गर्मी की ऐसी झुलसन ज्यादा पुरानी नहीं है। कुछ बरसों पहले तक बिना पँखा, आँगन में आनेवाली मीठी नींद भले अब यादों में ही है लेकिन ज्यादा पुरानी बात भी तो नहीं। बदलाव की चिन्ता सबको होनी चाहिए। मतलब पठार से लेकर पहाड़ और बचे-खुचे जंगलों से लेकर क्राँक्रीट की बस्तियों की तपन तक इसपर विचार होना चाहिए। सब जगह प्राकृतिक स्वरूप तेजी से बदल रहा है। काफी कुछ बदल गया है, बहुत कुछ बदलता जा रहा है। हल वहीं मिलेगा जब चिन्ता उन्हीं बिन्दुओं पर हो जहाँ इन्हें महसूस किया जा रहा हो। लेकिन हो उल्टा रहा है। हजारों किमी दूर, सात-सात समंदर के पार सीमेण्ट की अट्टालिकाओं के एयरकंडीशन्ड हॉल में इन समस्याओं पर चर्चा तो होती है परन्तु जिसपर चर्चा होती है वहाँ के हालात सुधरने के बजाए दिनों दिन बिगड़ते जाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे में ये ग्लोबल बैठकें कितनी असरकारक रहीं हैं?
बढ़ती जनसंख्या, उसी अनुपात में आवश्यकताएं और त्वरित निदान के तौर पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब दोहन प्रकृति के साथ ज्यादती की असल वजह है। बजाए प्राकृतिक वातावरण को सहेजने के उसे लूटने, रौंदने और बरबाद करने का काम ही आज तमाम योजनाओं के नाम पर हो रहा है! इन्हें बजाए रोकने और समझने की जगह महज बैठकों से हासिल करना औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं है। भारतीय पर्यावरणीय स्थितियों को देखें तो पर्यावरण और प्रदूषण पर चिन्ता दिल्ली या राज्यों की राजधानी के बजाए हर गाँव-मोहल्ले में होने चाहिए। इसके लिए सख्त कानूनों के साथ वैसी समझाइश दी जाए जो लोगों को आसानी से समझ आए। कुछ बरस पहले एक विज्ञापन रेडियो पर खूब सुनाई देता था-‘बूँद-बूँद से सागर भरता है।’ बस उसके भावार्थ को आज साकार करना होगा। आज गाँव-गाँव में क्रँक्रीट के निर्माण तापमान बढ़ा रहे हैं। साल भर पानी की जरूरतों को पूरा करने वाले कुँए बारिश बीतते ही 5-6 महीने में सूखने लगते हैं। तालाब, पोखरों का भी यही हाल है। पानी वापस धरती में पहुँच ही नहीं रहा है। नदियों से पानी की बारहों महीने बहने वाली अविरल धारा सूख चुकी है। उल्टा रेत के फेर में बड़ी-बड़ी नदियाँ तक अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं।
सवाल वही कि बिगड़ते पर्यावरण और प्रकृति के मिजाज को कैसे दुरुस्त रखा जाए? इसके लिए शुरुआत गाँव-मोहल्ले और एक-एक घर से करनी होगी। जल, जंगल और जमीन के महत्व को सबको समझना और समझाना होगा। इस हाथ ले उस हाथ दे के फॉर्मूले पर हर किसी को सख्ती से अमल करना होगा। धरती का पानी लेते हैं तो वापस उसे लौटाने की अनिवार्यता सब पर हो। जितना जंगल काटते हैं उतना ही वापस तैयार कर लौटाएँ। गाँव, नगर व शहरों के विकास के नाम पर सीमेण्ट के जंगल खड़े हो जाते हैं लेकिन उस अनुपात में बढ़ते तापमान को काबू रखने के लिए हरियाली पर सोचा नहीं जाता है। आबादी से कुछ गज दूर जंगल या गैर रिहायशी खाली क्षत्रों के कम तापमान का फर्क तो सबने महसूस किया है। सभी पल दो पल ऐसी सुकून की जगह घूमने-फिरने आते भी हैं लेकिन कभी कोशिश नहीं की कि काश घर पर ही ऐसा सुकून मिल पाता। सोचिए, कुछ साल पहले ऐसा था तो अब क्यों नहीं हो सकता? बस यहीं से शुरुआत की जरूरत है।
इसी तरह स्थानीय निकायों द्वारा जहाँ-तहाँ बनने वाली सीमेण्ट की सड़कों में ही ऐसी सुराख तकनीक हो जिससे सड़क की मजबूती भी बनी रहे और बारिश के पानी की एक-एक बूँद बजाए फालतू बह जाने के वापस धरती में जा समाए। हर नगर निकाय बेहद जरूरी होने पर ही फर्शीकरण कराए न कि फण्ड का बेजा इस्तेमाल करने के लिए चाहे जहाँ फर्शीकरण कर धरती में जानेवाले जल को रोक दिया जाए। खाली जगहों पर हरे घास के मैदान विकसित करें जिससे बढ़ता तापमान नियंत्रित होता रहे। ऐसा ही इलाके की नदी के लिए हो। उसे बचाने व सम्हालने के लिए फण्ड हो, निरंतर विचार हो, नदी की धारा निरंतर बनाए रखने के लिए प्राकृतिक उपाय किए जाएँ। कटाव रोकने के लिए पहले जैसे पेड़-पौधें लगें। रेत माफियाओं की बेजा नजरों से बचाएँ। इसके अलावा पर्यावरण पर बोझ बनता गाड़ियों का जला धुँआ घटे। बैटरी के वाहनों को बढ़ावा मिले। सार्वजनिक वाहन प्रणाली के ज्यादा उपयोग पर ध्यान हो। थोड़ी दूरी के सफर के लिए साइकिल का चलन बढ़े। इससे हमारा और प्रकृति दोनों का स्वास्थ्य सुधरेगा।
धरती के प्राकृतिक बदलावों के लिए थोड़ी सख्ती और नेकनीयती की जरूरत है। पंचायत से लेकर नगर निगम तक में बैठा अमला भवनों और रिहायशी क्षेत्रों के निर्माण की इजाजत के समय ही हरियाली के प्रबंधन पर सख्त रहे। हर भू-खण्ड पर निर्माण की इजाजत से पहले नक्शे में बारिश के पानी को वापस भू-गर्भ तक पहुँचाने, हर घर में जगह के हिसाब से कुछ जरूरी और पर्यावरणीय अनुकूल वृक्षों को लगाने, लोगों को घरों की छतों, आँगन में गमलों में बागवानी और ऑर्गेनिक सब्जियों को घरों में पैदा करने की अनिवार्यता का जरूरी प्रबंध हो। पुराने निर्माणों, पुरानी कॉलोनियों में वर्षा जल संचय प्रबंधन न केवल जरूरी हों बल्कि जहाँ जिस तरह संभव हो तत्काल व्यवस्था करने के निर्देश और पालन कराया जाए। सबकुछ अनिवार्य रूप से निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया के तहत हो जिसमें निकाय के अंतर्गत हर एक आवास में प्रबंधन की जानकारी संबंधी निर्देशों का अभिलेख हो। पोर्टल पर सबको दिखे ताकि सार्वजनिक क्रॉस चेक की स्थिति बनी रहे। पालन न करने वालों की जानकारी लेने की गोपनीय व्यवस्था और दण्ड का प्रावधान हो ताकि यह मजबूरी बन सबकी आदतों में शामिल हो जाए।
प्रकृति और पर्यावरण की वास्तविक चिन्ता घर से ही शुरू होने से जल्द ही अच्छे व दूरगामी परिणाम सामने होंगे। यह काम संस्था, सरकार और देश के बजाए हर एक नागरिक के जरिए ही हो पाएगा। हर एक घर से ही स्वस्थ धरती, स्वस्थ पाताल और स्वस्थ आसमान की पहल साकार हो पाएगी। इसी से प्रकृति, पर्यावरण और आम जनजीवन की रक्षा, सुरक्षा हो पाएगी अन्यथा दिखावा की कोशिशें सिर्फ कागजों और नारों में सिमटकर रह जाएंगी।

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