ताजा खबरेराँची

ऑनलाइन सत्संग एवं ध्यान कार्यक्रम का आयोजन

एक प्रेमावतार के दिव्य जीवन का महात्म्यवाईएसएस द्वारा परमहंस योगानन्द के महासमाधि दिवस के उपलक्ष्य में ऑनलाइन सत्संग एवं ध्यान कार्यक्रमों का आयोजन

राँची : सत्तर साल पहले, सन् 1952 में इसी दिन, परमहंस योगानन्दजी ने महासमाधि (एक महान योगी का ईश्वर के साथ एकात्मता की स्थिति में शरीर से अंतिम सचेतन प्रस्थान) में प्रवेश किया था। योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इण्डिया (वाईएसएस) ने सोमवार, 7 मार्च को विशेष ऑनलाइन कार्यक्रमों के माध्यम से इस स्मरणोत्सव को मनाया, जिसमें अपने घरों से 4,000 से भी अधिक लोग सम्मिलित हुए।

वरिष्ठ वाईएसएस संन्यासियों, स्वामी वासुदेवानन्द गिरि और स्वामी ललितानन्द गिरि ने इस अवसर पर वाईएसएस ऑनलाइन ध्यान केंद्र पर हिंदी और अंग्रेज़ी में विशेष ध्यान एवं सत्संग सत्रों को संचालित किया। इन सत्रों में प्रार्थना, प्रेरक वचन, भक्तिपूर्ण गायन और मौन ध्यान शामिल थे, और इनका समापन परमहंस योगानन्दजी द्वारा सिखाई गई आरोग्यकारी प्रविधि के अभ्यास के साथ हुआ।“पश्चिम में योग के जनक” के रूप में सुविख्यात, योगानन्दजी ने अपने आध्यात्मिक गौरवग्रंथ योगी कथामृत और अन्य कई लेखों के माध्यम से लाखों पश्चिमी लोगों को आत्मा से संबंधित भारत के कालातीत विज्ञान से परिचित कराया।

अपने सत्संग में स्वामी वासुदेवानन्दजी ने इन महान् गुरु के भारत के प्रति प्रेम की ओर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया, “पृथ्वी पर हमारे गुरुदेव के अंतिम शब्द ईश्वर और भारत के विषय में थे जिसमें उन्होंने अपनी कविता, ‘मेरा भारत’ से कुछ पंक्तियाँ बोलीं: “जहां गंगा, वन, हिमालय की कन्दरायें, और जनमानस रहे मग्न ईश चिंतन में अनन्य, कर स्पर्श उस माटी को तन से, हुआ मैं परम-धन्य।”परमहंसजी को पहले से ही पता था कि वे कुछ ही दिनों में शरीर छोड़ने वाले हैं। स्वामी ललितानन्दजी ने श्री दयामाताजी (योगानन्दजी की एक अंतरंग एवं उन्नत शिष्या, जो बाद में वाईएसएस की तीसरी अध्यक्षा बनीं) की स्मृतियाँ साझा कीं, जिसमें उन्होंने इस घटना का उल्लेख किया – संसार से अपने प्रस्थान से कुछ समय पहले, परमहंसजी ने दया माताजी को बताया था कि वे “शीघ्र ही अपना शरीर छोड़ देंगे।”

तब हतप्रभ होकर दया माताजी ने उनसे पूछा था: “गुरुजी, हम आपके बिना इस कार्य को कैसे करेंगे?” महान् गुरु की प्रतिक्रिया थी: “यह याद रखना, मेरे जाने के बाद केवल प्रेम ही मेरा स्थान ले सकता है। रात और दिन ईश्वर के प्रेम में निमग्न रहो, और वह प्रेम सब को दो।” श्री दयामाताजी ने आगे लिखा, “इसी प्रेम की कमी के कारण, संसार दुखों से भर गया है।” स्वामी ललितानन्दजी ने यह वृत्तान्त सुनाते हुए इस ऑनलाइन कार्यक्रम में प्रतिभागियों को अपने दैनिक ध्यान के दौरान ईश्वर और गुरु के प्रति अपने प्रेम और भक्ति को नवीनीकृत करने के लिए प्रोत्साहित किया।परमहंस योगानन्द की क्रियायोग शिक्षाएं योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (वाईएसएस/एसआरएफ़) की मुद्रित पाठमालाओं के माध्यम से उपलब्ध हैं। योगानन्दजी द्वारा स्थापित इन दोनों संस्थाओं के भारत और विश्वभर में 800 से भी अधिक आश्रम, केंद्र और मंडलियाँ शामिल हैं।

Show More

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button