बेकार न जाए वर्षा जल

-रमेश ठाकुर-

प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ में ‘जल संरक्षण’ को स्वच्छ भारत अभियान की भांति चलाने की देशवासियों से अपील की है। निःसंदेह उनकी यह अपील जनता के हित में उठाया गया बेहतरीन कदम है। लेकिन चुनौती यह है कि क्या हम उनकी इस अपील का अनुसरण करेंगे? क्योंकि दशकों से सरकारी और सामाजिक स्तर पर वर्षा जल संरक्षण के कागजी प्रयासों में कमी नहीं रही। मानसून आने से पहले सरकारी स्तर पर याद दिलाया जाता है कि बरसात के पानी को सहेजकर रखें, ताकि बाद में उसका उपयोग किया जा सके। लेकिन जैसे ही मानसून दस्तक देता है सरकार की सलाह पानी की धारा में बह जाते हैं। इस समय मानसून ने कई राज्यों में दस्तक दे दी है। यह महीना सभी को आत्मिक आनंद से सराबोर करता है। सूखी जमीन को गीला कर नया जीवन देता है। लेकिन मानसून का ज्यादातर पानी बेकार चला जाता है। करीब दो दशकों से वर्षा जल संचयन के लिए कई वैज्ञानिक व परंपरागत विधियां प्रयोग में लाई गईं, लेकिन सभी कागजी साबित हुईं। बरसे हुए पानी को सहेजने के लिए हिंदुस्तान में कई जगहों पर जलाशय बनाए गए थे, जो इस वक्त बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। जलाशयों को बनाने के लिए करोड़ों रुपये पानी में बहाए गए, पर नतीजा शून्य निकला। इतना समझना होगा कि जल किसी एक देश या समुदाय की आवश्यकता नहीं, बल्कि धरती पर जन्म लेनेवाले सभी जीवों की जरूरत है, जिनके सीने में सांसें हैं।

वर्षा जल संरक्षण के लिए पूर्ववर्ती सरकारों ने बड़ा अभियान चलाया था। लेकिन बाद में बेअसर साबित हुए। यूं कहें कि जल संचयन और जलाशयों को भरने के तरीकों को आजमाने की परवाह उस दौरान ईमानदारी से किसी से नहीं की। समूचे भारत में 76 विशालकाय और प्रमुख जलाशयों की जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग की हालिया रिपोर्ट के आंकड़े चिंतित करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक एकाध जलाशयों को छोड़कर सभी सूख रहे हैं। उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मैथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राणा प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, ओडिशा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। इन जलाशयों पर बिजली बनाने की भी जिम्मेदारी है। चार जलाशय ऐसे हैं जो पानी की कमी के कारण लक्ष्य से कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं।

जलाशयों को बनाने के दो मकसद थे। पहला, वर्षा जल को एकत्र करना और दूसरा, जलसंकट की समस्याओं से मुकाबला। इनका निर्माण सिंचाई, विद्युत और पेयजल की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और सैकड़ों बस्तियों को उजाड़कर किया गया था, मगर वह सभी सरकारी लापरवाही के चलते बेपानी हो गए हैं। केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो ताजा आंकड़े दिए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में पानी और बिजली की भयावह स्थिति सामने आने वाली है। इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि जल आपूर्ति विशालकाय जलाशयों (बांध) की बजाय जल प्रबंधन के लघु और पारंपरिक उपायों से ही संभव है, न कि जंगल और बस्तियां उजाड़कर। बड़े बांधों के अस्तित्व में आने से नदियों का वर्चस्व खतरे में पड़ गया है।

एक जमाना था जब सामाजिक स्तर पर भी लोग बारिश के पानी को विभिन्न स्त्रोतों व प्रकल्पों में संरक्षित और संग्रहित किया करते थे। जरूरत पड़ने पर उसका उपयोग भी करते थे। इस तरह व्यापक जलराशि को एकत्रित करके पानी की किल्लत को कम किया जाता था। लेकिन अब न तालाब बचे हैं और न दूसरे साधन। स्थिति ऐसी है कि जल का संरक्षण कम, दोहन ज्यादा हो रहा है। दरअसल, चहुंमुखी विकास का दिग्दर्शन भूजल का काल बना है। मानव निर्मित मशीनों का जितना बस चल रहा है उतना धरती का सीना चीरकर पानी जमीन से खींच रही हैं। उनको इस बात की कोई परवाह नहीं है कि जल जीवन का सबसे आवश्यक तत्व है और जीविका के लिए महत्वपूर्ण है। नौकरशाहों की मिलीभगत से पानी की जमकर कालाबाजारी हो रही है।

बारिश के जल को एकत्र करने का सबसे माकूल माह ‘मानसून’ माना जाता है। मानसून में नील व्योम काली घटाएं वसुधा को अपनी असीम स्वर्णिम जलबूंदों से तरबतर कर हमें पानी को बचाने का मौका देती हैं, लेकिन हम उसे गंवा देते हैं। पहले तालाब, पोखर, कुआं आदि साधन हुआ करते थे, जो नदारद हैं। कहने को तो हिंदुस्तान को नदियों का देश कहा जाता है, पर सच्चाई यह है इस वक्त छोटी-बड़ी सैकड़ों नदियां खुद पानी के लिए तरस रही हैं। कई नदियों का तो वजूद खत्म हो गया। जल को दूषित होने से मात्र मानसून का ताजा जल ही बचा सकता है। इसलिए वक्त की मांग यही है कि जल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए मानसून के पानी को सहेजना ही होगा। इस दिशा में सरकार को सख्ती से कदम उठाना होगा। सामाजिक स्तर पर भी जनजागरण की दरकार है।

समूचे भारत में कुएं, बाबड़ी, तालाब जैसे प्राकृतिक श्रोत सूख रहे हैं। लेकिन किसी का इस ओर ध्यान नहीं जा रहा। आंकड़ों के अनुसार, हिंदुस्तान में लगभग 21 लाख, 7 हजार तालाब हुआ करते थे। इनसे ज्यादा की संख्या में कुएं, बावड़ियां, झीलें, पोखर और झरने थे। हजारों की तादात में नदियां कलकल करके बहा करती थीं, किंतु उनकी संख्या अब सैंकड़ों में सिमट गई हैं। लुप्त हुई नदियों को पाटकर आवासीय और खेतीबाड़ी में उपयोग कर ली गई हैं। यह नंगा नाच हुकूमतों की नाक के नीचे हो रहा है, लेकिन सरकारें दशकों से कुंभकर्णी निंद्रा में सोई हुई हैं। मौजूदा सरकार ने अपने स्तर से कुछ प्रयास किए हैं। लेकिन उनकी मुहिम पर भी पलीता लगता दिखाई देने लगा है। केंद्र सरकार की सबसे बड़ी मुहिम गंगा सफाई की स्थिति हमारे समक्ष है। गंगा को साफ करने और पानी को बचाने के लिए करोड़ों रुपये जल प्रबन्धन पर प्रतिवर्ष व्यय की जा रही है। लेकिन नतीजा कुछ खास निकलकर नहीं आ रहा। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि गंगा सफाई के नाम आवंटित बजट पिछले तीन सालों से रिटर्न किया जा रहा है।

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