साध्वी प्रज्ञा से परहेज क्यों है?

डॉ. नीलम महेन्द्र
साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से भाजपा द्वारा अपना उम्मीदवार घोषित करते ही देश में राजनीतिक भूचाल आ जाता है। उसका कंपन कश्मीर तक महसूस किया जाता है। भाजपा के इस कदम के विरोध में देशभर से आवाजें उठने लगती हैं। यहां तक कि कश्मीर तक ही सीमित रहने वाले नेशनल कांन्फ्रेंस और पीडीपी जैसे दलों को भी भोपाल से साध्वी प्रज्ञा के चुनाव लड़ने पर ऐतराज है। इन सभी का कहना है कि उन पर एक आतंकी साजिश में शामिल होने का आरोप है। वे इस समय खराब सेहत के आधार पर जमानत पर बाहर हैं। इसलिए भाजपा को उन्हें टिकट नहीं देना चाहिए। लेकिन ऐसा करते समय ये लोग भारत के उसी संविधान और लोकतंत्र का अपमान कर रहे हैं जिसे बचाने के लिए ये अलग-अलग राज्यों में अपनी-अपनी सुविधानुसार एक होकर या अकेले ही चुनाव लड़ रहे हैं। वैसे लोग भूल रहे हैं कि जो संविधान उन्हें अपना विरोध दर्ज करने का अधिकार देता है, वही संविधान साध्वी प्रज्ञा को चुनाव लड़ने का अधिकार भी देता है। ये लोग भूल रहे हैं कि 1977 में जॉर्ज फर्नान्डिस देशद्रोह के आरोप के साथ ही जेल से ही चुनाव लड़े थे और जीते थे। दरअसल हमारे राजनीतिक दलों का यही चरित्र है कि वो तथ्यों का उपयोग और उनकी व्याख्या अपनी सुविधानुसार करते हैं। इन दलों को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर अनेक महत्वपूर्ण पदों पर बैठे नेता जो आज जमानत पर हैं और चुनाव भी लड़ रहे हैं ,उनसे नहीं, लेकिन साध्वी प्रज्ञा से ऐतराज होता है। इन्हें देश-विरोधी नारे लगाने वाले और जमानत पर रिहा कन्हैया के चुनाव लड़ने पर नहीं, साध्वी के चुनाव लड़ने पर ऐतराज होता है। इन्हें लालू प्रसाद यादव जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध हो चुके हैं और जो आज जेल में हैं, उनकी विरासत आगे बढ़ाते तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी से परहेज नहीं है। … तो आखिर साध्वी से परहेज क्यों है जिन पर आज तक कोई आरोप सिद्ध नहीं हो पाया है। दरअसल ये चमत्कार भारत में ही संभव है कि महिला अस्मिता से खेलने वाले अभिषेक मनु सिंघवी को सुबूतों के होते हुए भी एक दिन जेल नहीं जाना पड़ता लेकिन बिना एफआईआर के एक साध्वी को कारावास में डाल दिया जाता है। ये कमाल भी शायद भारत में ही संभव है कि अजमल कसाब, अफजल गुरू और याकूब मेमन जैसे आतंकवादी जिन्हें अन्ततः फांसी की सजा सुनाई जाती है, उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य पर लाखों खर्च किए जाते हैं, लेकिन बगैर सुबूतों के एक महिला साध्वी को यातना देकर उनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है। ये कमाल भी भारत में ही संभव है कि एक एनकाउंटर में जब इशरत जहां नाम की आतंकवादी और उसके साथियों को मार गिराया जाता है तो तमाम इंटेलीजेंस इनपुट से किनारा करते हुए भारत के ही कुछ लोगों द्वारा ये कहा जाता है कि ये चार लोग आतंकवादी ही नहीं थे। वे आम नागरिक थे। पुलिस ने इन्हें गोली मार दी और मरे हुए लोगों के हाथ में हथियार थमा दिए। लेकिन जब अमेरिका की एफबीआई लश्कर के मुखबिर हेडली को गिरफ्तार करती है तो वो स्वीकार करता है कि इशरत लश्करे तैयबा की आत्मघाती हमलावर थी। वैसे ऐसे कमाल पहले भी हो चुके हैं। जैसे, जिस 2जी घोटाले को कैग स्वीकार करती है, सीबीआई की अदालत सुबूतों के अभाव में उसके आरोपियों को क्लीनचिट दे देती है। इस सबसे परे एक प्रश्न ये भी है कि अमेरिका में 9-11 के हमले के कुछ घंटों के बाद ही एफबीआई हमलावरों के नाम तथा कुछ मामलों में तो उनका निजी विवरण तक प्राप्त करने में सफल हो जाती है लेकिन भारत में 2008 का एक केस 2019 तक क्यों नहीं सुलझ पाता। साध्वी का विरोध करने वाले इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते कि अगर साध्वी प्रज्ञा को अदालत ने आरोप मुक्त नहीं किया है तो इन 8 सालों में वो दोषी भी नहीं सिद्ध हुईं। ऐसे कोई सुबूत ही नहीं पाए गए जिससे उन पर मकोका लगे, जिसके अंतर्गत उनकी गिरफ्तारी हुई थी। इसलिए अन्ततः 2008 में बिना सुबूत और बिना एफआईआर गिरफ्तार साध्वी पर से 2015 में मकोका हटाई गई और उन्हें जमानत मिली। दरअसल साध्वी प्रज्ञा के बहाने भाजपा ने भगवा आतंकवाद के सिद्धांत को जन्म देने वाली राजनीति का कुत्सित चेहरा देश के सामने रख दिया है। जिस ‘हिन्दू आतंकवाद’ शब्द की नींव पर कांग्रेस ने अपने लिए मुस्लिम वोटबैंक की ठोस बुनियाद खड़ी की थी, उसी हिंदू आतंकवाद की बुनियाद पर भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा के सहारे ठोस प्रहार किया है। अब जब यह सच सामने आ गया है कि जिस तरह पाकिस्तान कश्मीर में आतंकी घटनाओं को अंजाम देता है लेकिन सिद्ध करने की नाकाम कोशिश करता है कि कश्मीरी स्थानीय युवक ही इसके पीछे होते हैं। याद कीजिए पुलवामा हमला जिसमें उसने स्थानीय युवक को ही हमलावर बताने की कोशिश की थी। उसी तरह उसने 26-11 के हमले को भी भारतीयों द्वारा ही अंजाम देने का भ्रम फैलाने की नापाक कोशिश की थी। इसलिए इस हमले में शामिल आतंकवादियों की कलाई पर लाल रक्षा सूत्र बंधा था जो उन्हें हेडली ने सिद्धि विनायक मंदिर से खरीद कर दिए थे। इसके अलावा सभी के पास हैदराबाद के एक महाविद्यालय के हिन्दू नाम वाले फर्जी पहचान पत्र भी थे। इसके बावजूद तब भारत में ही कुछ नेताओं ने इस हमले में पाकिस्तान का हाथ होने से इनकार कर दिया। यह कह कर कि मालेगांव की ही तरह 26-11 के पीछे भी हिन्दू संगठनों का हाथ है। 2006 और 2008 के मालेगांव धमाके, अजमेर दरगाह और समझौता कांड सभी के तार एक-दूसरे से मिल रहे हैं, कह कर हिन्दू आतंकवाद के सिद्धांत को स्थापित करने की कोशिश की। इतना ही नहीं, यहां तक कहा गया कि हेमंत करकरे जो कि उस हमले में शहीद हुए थे, उनको मालेगांव केस के आरोपियों से धमकियां मिल रही थीं। लेकिन आज तक 2008 मालेगांव मामले में साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिल पाया है और समझौता कांड के सभी आरोपियों को कोर्ट ने बरी कर दिया है तो देश के सामने कहने को कम लेकिन समझने को बहुत कुछ है। अब साध्वी प्रज्ञा के बहाने भाजपा को तो भानुमति का पिटारा मिल गया है, लेकिन कांग्रेस के लिए तो यह मधुमक्खी का छत्ता ही सिद्ध होगा। शायद इसलिए दिग्विजय सिंह ने साध्वी प्रज्ञा का नाम घोषित होते ही अपने कार्यकर्ताओं से इस मामले में चुप रहने और संयम बरतने के लिए कहा है।

This post has already been read 38488 times!

Sharing this

Related posts