नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि जाति प्रमाण पत्र के सत्यापन के लिए बार-बार पूछताछ करना अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के सदस्यों के लिए हानिकारक होगा। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने एक व्यक्ति के समुदाय प्रमाण पत्र को रद्द करने के चेन्नई जिला सतर्कता समिति के आदेश को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।
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पीठ ने कहा,‘जांच समितियों द्वारा जाति प्रमाण पत्रों के सत्यापन का उद्देश्य झूठे और फर्जी दावों से बचना है। जाति प्रमाण पत्र के सत्यापन के लिए बार-बार पूछताछ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए हानिकारक होगी।’ शीर्ष अदालत ने कहा कि जाति प्रमाण पत्रों की जांच तभी पुन: शुरू की जा सकती है, जब उन्हें जारी करने में कोई धोखाधड़ी की गई हो या जब उन्हें उचित जांच के बिना जारी किया गया हो।
शीर्ष अदालत ने अपने पहले के फैसलों का जिक्र करते हुए कहा कि जांच समिति एक प्रशासनिक निकाय है जो जाति की स्थिति के तथ्यों की पुष्टि करता है और दावों की जांच करता है और इसके आदेश को संविधान के अनुच्छेद 226 (न्यायिक समीक्षा की शक्ति) के तहत चुनौती दी जा सकती है। पीठ ने कहा कि पूर्व जांच किए बिना जारी जाति प्रमाण पत्रों का सत्यापन जांच समितियां करेंगी और जो जाति प्रमाण पत्र पर्याप्त और उचित जांच के बाद जारी किए गए हैं, उन्हें जांच समितियों द्वारा सत्यापित किए जाने की आवश्यकता नहीं है।
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पीठ ने कहा कि इस मामले में जिला स्तरीय सतर्कता समिति द्वारा जांच की गई, जिसने व्यक्ति के पक्ष में जारी सामुदायिक प्रमाण पत्र को सही ठहराया। शीर्ष अदालत ने कहा कि 1999 में जिला स्तरीय सतर्कता समिति के निर्णय को किसी भी मंच पर चुनौती नहीं दी गई और उसके पक्ष में जारी सामुदायिक प्रमाण पत्र को अंतिम मान्यता मिल गई, ऐसे में राज्य स्तरीय जांच समिति के पास मामलों को फिर से खोलने और इसे नए सिरे से विचार के लिए जिला स्तरीय सतर्कता समिति के पास भेजने का अधिकार नहीं है।
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