(व्यंग्य) : अच्छी हिन्दी

-रवीन्द्रनाथ त्यागी-

मैं हिन्दीन का लेखक हूं। लेखक की सबसे बड़ी पूंजी उसकी भाषा होती है। नितान्त गरीबी की स्थिति में भी उर्दू के महान कवि मीर तकी मीर ने एक सेठ जी से, जिनकी गाड़ी में वे बिना टिकट यात्रा कर रहे थे, सिर्फ इस कारण बातचीत करने से इनकार कर दिया था कि उन्हें वैसा करने से अपनी जबान खराब हो जाने का खतरा था। मगर दुःख की बात यह है कि ऐसा लगता है जैसे कि सारी सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने इस बात का निश्चय कर लिया है कि मेरी भाषा खराब हो जाए। इन प्रयत्नों को देखकर मेरा रक्त-खौलने लगता है और समझ में नहीं आता कि क्या करूं। क्या मुद्रण और क्या अनुवाद और क्या उच्चाररण और क्या व्याकरण-हिंदी जो है वह सारे क्षेत्रों में वीरगति प्राप्त करती जा रही है। मेरा निश्चित मत है कि मेरी भांति हिन्दी के शेष पाठक भी यही महसूस करते होंगे। जैसा कि जाहिर है, पाठक से मेरा अभिप्राय पढ़नेवाले से है, न कि सर्वश्री श्रीधर पाठक, वाचस्पति पाठक या उपराष्ट्रपति गोपालस्वरूप पाठक इत्यादि से। इस प्रकार के भ्रमों को शुरू में ही मिटा देना सदा से जरूरी होता आया।

मैं गाड़ी पकड़ने स्टेशन जाता हूं और खिड़की पर देखता हूं कि टीकट लेने के बाद रेजगारी गिनना जरूरी है। तबीयत होती है कि खिड़की के उधर बैठे टिकट बाबू की हत्या कर दूं मगर वैसा मैं कर नहीं पाता। उसके और मेरे बीच में लोहे के सींखचे लगे हैं और सिवाय एक छोटे से गोल छेद के, जिसमें हाथ डालकर मैं टिकट खरीदता हूं, आवागमन का और कोई साधन नजर नहीं आता। जहां तक उस छोटे से गोलाकार छेद का प्रश्न है, स्थिति इतनी नाजुक है कि उसमें मेरा हाथ ही मुश्किल से जाता है और इस कारण उस गवाक्ष मार्ग से जहां तक अपने स्वयं जाने का प्रश्न उठता है, अपनी सेहत को ध्यान में रखते हुए वह कुछ कठिन-सा प्रतीत होता है। कम-से-कम फिलहाल। बस में चढ़ता हूं तो वहां लिखा है कि धम्रपान न करें। क्योंकि मना तो धम्रपान के लिए है न कि धूम्रपान के लिए है। नतीजा यह रहता है कि बस का ड्राइवर और कण्डक्टर, दोनों बीड़ी पीते हैं और एक सिगरेट मैं भी सुलगा लेता हूं। जो सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होती हैं, वहां प्रायः महिलाएं के स्थान पर हिलाएं लिखा रहता है जिसका कि सही अर्थ मेरी पकड़ में कभी नहीं आया। किसे हिलाएं? महिला को या कि सीट को? पार्क में जाता हूं तो तख्ती लगी देखता हूं कि-बिना आज्ञा के फुल तोड़ना मना है। तमन्ना तो यह होती है कि पार्क के सारे फूल आज ही तोड़ डालूं पर क्योंकि यह पार्क कॉरपोरेशन का है, इसमें कोई फूल कभी होता ही नहीं। वसन्त हो या वर्षा, यहां सिर्फ घास ही खिलती है। इसके बाद बाथरूम जाता हूं तो वहां एक बाथरूम पर लिखा है-पुरुष मूत्रालय और दूसरे पर लिखा है-स्त्री मंत्रालय। मैं जानता हूं कि यह महिलाओं का वर्ष है पर इस मुद्दे को हम कहां तक खींचेंगे और कहां तक बर्दाश्त-करेंगे।

मैं बात बदलता हूं। मैं आपको कीमती कागज पर छपी एक नयी पोथी दिखाना चाहता हूं जो हिन्दी के एक प्रतिष्ठित विद्वान ने लिखी है। पुस्तक का हास्य रस से कोई संबंध नहीं है पर फिर भी हालत यह है कि आप चाहें तो रो लें और चाहें तो कलेजा खोलकर हंस लें। सूत्रधार की जगह मूत्रधार छपा है जो कहीं ज्यादा प्रवाह रखता है। दो कवयित्रियों के काव्य के स्त्र की तुलना करते हुए लिखा गया है कि कुल मिलाकर अमुक कवयित्री का स्तन (मुराद स्तिर से है) अमुक कवयित्री के स्तन से ऊंचा ठहरता है। वैसे यह भी हो सकता है कि जो स्थिति मुद्रित की गयी है वह वाकई सच्ची हो पर फिर भी आलोचक की इच्छा इतना अंतरंग होने की कदापि नहीं रही होगी। यह मेरा विश्वास है जो गलत भी हो सकता है। ये ऐसे ही कम्पोजीटर और प्रूफरीडर हैं जो अपने पेशे को कला के स्तर पर स्थापित करते हैं। भवभूति के शब्दों में कभी इनका भी कोई पारखी पैदा होगा।

बोलचाल में जो गलतियां होती हैं वे भी काफी शानदार होती हैं। एक तो हमारा व्याकरण ही कुछ गलत है। अब यह कोई बात हुई कि घड़ी का पुंल्लिंग घड़ा होता है और संतरी का संतरा। यूं कभी-कभी संतरी भी पुल्लिंग होता है पर कुछ कम। छोटी-सी शंका हो तो जान-बूझकर भी आप उसे लघुशंका नहीं कह सकते। मैं एक ग्रामीण नेता को जानता हूं जिनका कि कोई भाषण कभी खलास नहीं गया। अपनी इस सफलता का रहस्य ये स्वयं भी नहीं जानते। बात यह है कि अपने भाषण में तत्सम शब्दों का और संस्कृत की उक्तियों का प्रयोग ये जरूर करेंगे हालांकि इन्हें यह पता नहीं कि पाणिनि और अष्टोध्यायी में से लेखक कौन था और पुस्तक कौन थी। एक बार गंगास्नान के पवित्र अवसर पर काफी बड़ी भीड़ के सामने बोलने जो खड़े हुए तो पहले ही वाक्य से प्लासी की लड़ाई खत्म हो गयी। बजाय यह कहने के कि मैं आपके साथ इस विषय पर बातचीत करना चाहता हूं इन्होंने जो कुछ कहा वह यह था कि देवियो, माताओ और बहिनो, मैं आपके साथ विषय करना चाहता हूं। मैं तो पण्डाल छोड़कर ऐसा भागा कि डेरे पर आकर ही रुका। वहां मुझे सहसा यह महसूस हुआ कि गलती मेरी थी, वे शायद सच ही बोल रहे थे। व्याकरण के अतिरिक्त उच्चारण की जो गलतियां होती हैं, उनके कारण भी बड़े सूक्ष्म होते हैं। बड़े घरों के बच्चे राम, बुद्ध और हिमालय को बचपन से ही रामा बुद्धा और दि हिमालयाज कहना शुरू कर देते हैं। इस संदर्भ में एक बंगाली डॉक्टर की याद सताती है जो गरीब बेहद शरीफ था और यह जानता ही नहीं था कि वह क्या गजब ढाता था। वह जब भी किसी कन्या से अपनी टंग दिखाने को कहता था तो कुछ इस अंदाज से कहता था कि लड़की जो होती थी वह जीभ के स्थान पर शरमाते-शरमाते अपनी टांग दिखाती थी। थोड़े अनुभव के बाद स्थिति यह हो गयी कि टांगों का विशेषज्ञ वह खूबसूरत और नौजवान डॉक्टर अपनी गलती समझ गया और अब वह उन बालिकाओं से जुबान दिखाने को कहने लगा। मगर यहां फिर वही हादसा हो गया। वह लड़की की ठुड्डी पकड़ता, उसकी चितवन से चितवन मिलाता और बहुत धीमे से कहता कि हम तुम्हातरा जोबोन (जुबान) देखना मांगता। एकाध लड़की ने अपना जोबोन (जोबन) उसे दिखा भी दिया जिसके फलस्वरूप वह गरीब उस इलाके से कहीं दूर चला गया। उसके चले जाने से उस क्षेत्र की युवतियां काफी दुःखी रहीं।

इस संदर्भ में कुछ मतिमान लोग यह कह सकते हैं कि भाषा क्या, साहित्य तक में बड़े-बड़े कलाकारों ने कहीं ज्यादा बड़ी गलतियां की हैं। शेक्सपियर ने जूलियस सीजर नामक नाटक में घड़ी की चर्चा की है जब कि इतिहास साक्षी है कि सीजर के जमाने में घड़ी ईजाद ही नहीं हुई थी। तुलसीदास ने कहीं कहा है कि सर समीप गिरिजाघर सोहा जो कि एकदम गलत है। रामचंद्रजी के काल में हमारे यहां गिरजाघर या चर्च होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं इन कवियों को जानता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि कवि तुलसीदास को अपने ननिहाल से अनन्तर प्रेम था और वे गणित में तो हददर्जा कमजोर थे। यदि ऐसा न होता तो नानापुराण निगमागम सम्महत से शुरू करके जहां सुमति तहं सम्पकति नाना तक हर जगह उनके आदरणीय नानाजी ही की चर्चा न की गयी होती और यह भी नहीं होता कि जो भी चीज हो वह करोड़ से कम कभी भी न हो। कोटि-कोटि फिर किये प्रनामा। फारसी के लेखक गणित के मामले में बड़े चतुर व सतर्क होते थे। अगर किसी किस्सेत का नाम साढ़े तीन परी होता था तो उसमें ठीक उतना ही माल होता था। यह नहीं कि नाम तो है किस्सां साढ़े तीन परी और परियां हैं सवा तीन या पौने चार। हर्गिज नहीं। मगर ऊपर बतायी गयी कमियां मेरे उस दुःख को दूर नहीं कर सकतीं जो मुझे सामने सड़क पर लगी तख्तीौ से होता है। सड़क का नाम है सर सैयद अहमद खान रोड मगर लिखनेवाले ने लिखा है – सर सैयद अहमद खाद रोड। मैंने एक तगड़ी शिकायत दर्ज करवायी, सर सैयद की राष्ट्र-सेवा के बारे में कुछ लिखा भी और नतीजा यह निकला कि तख्ती में सुधार किया गया। सड़क का जो नाम इस संशोधन के बाद निकला वह है सर सैयद अहमद खाक रोड।

हिन्दी हमारी मातृभाषा है। वह माता के तुल्य है। अपनी माता के साथ ऐसा बलात्कार बहुत अभद्र है। सरकार हिंदी के लिए सब-कुछ कर रही है। बड़े-बड़े लोग हिन्दीा सीखने विदेश भेजे जा रहे हैं, विभिन्ने समारोहों के लिए भारी-भारी अनुदान दिये जा रहे हैं और तुकबंदियां करने वालों तक को पद्मश्री से अलंकृत किया जा रहा है। क्या विधि मंत्रालय मातृभाषा के साथ किये जा रहे इस बलात्कार के खिलाफ कोई कानून नहीं बना सकता?

इस सारे दुःखदायक माहौल मे संतोष की बात बस एक ही है और वह यह है कि मेरे अलावा और भी ऐसे हिन्दी प्रेमी हैं जो अपनी भाषा की यह दुर्गति नहीं देखना चाहते। दिल्लीन से छपनेवाले एक उर्दू मासिक ने अब कुछ पृष्ठ हिन्दी के लिए भी जोड़े हैं और मान्या सम्पाकदक जी ने बाताया है कि इस पत्र के द्वारा वे हिन्दीत के बेहतरीन नमूने पेश करना चाहते हैं। जो सम्पादकीय उन्होंने लिखा है वह उनके इस कथन की शत-प्रतिशत पुष्टि करता है। नामूल लिख्यते किंचित्, नापेक्षितमुच्यतते वाली मल्लिनाथ की परम्पकरा को ध्या न में रखते हुए मैं उस सम्पारदकीय टिप्पंणी को यहां ज्योंत का त्योंत प्रस्तुलत करता हूं:

इस अंक से अब आपकी शेवा में हिन्दी के कुछ पृष्ट प्रस्तुत करते हैं। इस बार केवल आधुनिक समाचारों पर ही ध्यान दिया गया है। पाटक लोग किरपा करके इस कालम का अच्छी तरह अध्य न करें और अगर कोई त्रुटि नजर आए तो हमें लिखें ताकि अगले अंक में उसका सुधार किया जा सके। यदि आप कुछ परिवर्तन चाहें तो उन्हेंु जानकर हमें प्रस्नता होगी। हिन्दीु की उन्नदति के लिए हम सभी को धियान देना है। इस पत्र का हमेशा यही ध्येय रहेगा कि इस कालम द्वारा राष्ट्र भाषा के बेहतरीन नमूने पेश किये जा सकें।

(हिंदी समय डॉट कॉम से साभार प्रकाशित)

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