जैव विविधता का संरक्षक भी है रोहिड़ा

-दिलीप बीदावत-

रोही अर्थात रेगिस्तान के जंगल में पनपने के कारण ही इस वृक्ष का नाम रोहिड़ा रहा होगा। रोहिड़ा थार का रेगिस्तानी वृक्ष है। शुष्क और अर्ध शुष्क जलवायु क्षेत्र में इसका जीवन पनपता है। स्थानीय स्तर पर प्रचलित नाम रोहिड़ा तथा वनस्पतिक नाम टेकोमेला उण्डुलता है। थार रेगिस्तान के बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानरे, जोधपुर, नागौर, जालौर, सिरोही, पाली, चूरू, सीकर और झुंझुनू जिले रोहिड़ा वृक्ष के ठाए ठिकाने हैं। थार रेगिस्तान के पाकिस्तान क्षेत्र के अलावा शुष्क, अर्ध शुष्कीय जल वायु वाले मैदानी और पहाड़ी क्षेत्र में भी पाया जाता है। अरब के रेगिस्तान में भी इस प्रजाति के पौधे पाए जाते हैं। इस वृक्ष की सूखा सहन करने की अपार क्षमता है। यह वृक्ष 150 मिलीलीटर से 500 मिलीलीटर वाले वर्षा क्षेत्र में अपने अस्तित्व को बनाए रखता है। रेगिस्तान में सूखा की बारंबरता के बावजूद इसका पेड़ पतझड़ी मौसम को छोड़कर अधिकतर समय हरियाली से आच्छादित रहता है। रेगिस्तान की भीषण गर्मी में यह 43 डिग्री से 48 और कई बार 50 डिग्री तक के तापमान को झेलते हुए हरा भरा रहता है। इतना ही नहीं इसका पेड़ न्यूनतम शून्य तक और कभी कभी शून्य से दो डिग्री कम तक के तापमान को सहन करने की क्षमता रखता है। रोहिड़ा की खास बात इसके सुंदर और आकर्षक फूल होते हैं। कुछ पौधों के वर्ष में एक बार जबकि अधिकांश के साल में दो बार फूल आते हैं। दिसंबर अंत से जनवरी के बीच तथा मार्च और अप्रैल में पीले, नारंगी तथा लाल रंग के फूलों से रेगिस्तान में रंग भर देता है बल्कि यूँ कहा जाये कि रेगिस्तान का श्रृंगार कर देता है। हालांकि रोहिड़ा के फूल खुशबू रहित होते हैं लेकिन देखने में काफी सुंदर और आकर्षक होते हैं। 31 अक्टूबर 1983 को इसे राजस्थान का राज्य पुष्प घोषित किया गया है। रेगिस्तान में दूर-दूर तक पसरी रंगहीन रेत के धोरों से सटे मैदानी इलाकों में जनवरी से अप्रैल माह तक रंगों की बौछार कर देने वाला यह वृक्ष प्रकृति की ओर से जीव-जगत को दिया गया अनुपम उपहार है। जैव विविधता को बनाए रखने में रोहिड़ा का रेगिस्तान में खास अहमियत है। गंधहीन होने के बावजूद इसमें फूलों के आने पर मधुमक्खियां, तितलियां और असंख्य रसभक्षी कीट व तरह-तरह के पक्षी रस चूसने के लिए इसके चारों तरफ मंडराते रहते हैं। वहीं चारे के रूप में फूलों का सेवन बकरी भी बड़े चाव से करती है। गंधहीन होने के कारण रेगिस्तान में रहने वाले पूजा-पाठ में इसके फूलों का उपयोग नहीं करते हैं। रोहिड़ा की लकड़ी कठोर और काफी मजबूत होती है जिसका उपयोग दरवाजों, खिड़कियों, चारपाई के पायों, फर्नीचर एवं कृषि औजारों के लिए किया जाता है। इसकी लकड़ी पर नक्काशी का काम भी होता है। पुराने महलों, हवेलियों में रोहिड़े की लकड़ी की कलात्मक वस्तुएं देखने को मिलती है। इसीलिए इस वृक्ष को बोल-चाल की भाषा में रेगिस्तान का शीशम भी कहा जाता है। रोहिड़ा औषधीय उपयोग में भी महत्वपूर्ण है। एक्जिमा तथा इसी प्रकार त्वचा के अन्य रोगों व फोड़े-फुन्सियों के नियंत्रण वाली दवाओं के निर्माण में इसका प्रमुखता से उपयोग किया जाता है। गर्मी तथा मूत्र संबंधी रोगों की दवाओं में भी रोहिड़ा रामबाण साबित होता है। लीवर संबंधी रोगों में यह विशेष गुणाकारी है तथा लीव-52 नामक औषधि में इसका उपयोग किया जाता है। इसकी छाल भी औषधि निर्माण के उपयोग में आती है। रोहिड़ा का वृक्ष और फूल जहां मनुष्य और पशु पक्षियों के लिए लाभकारी है वहीं दूसरी ओर भौगोलिक रूप से भी यह अत्यंत लाभकारी सिद्ध होता है। यह रेगिस्तानी पौधा है, इस कारण इसकी जड़ें गहराई के साथ-साथ जमीन के ऊपरी भागों में जाल बिछा कर भोजन पानी ग्रहण करती है। यह न केवल रेगिस्तान की मिट्टी को बांध कर रखती है बल्कि इसके प्रसार को भी रोकती है। लेकिन इंसानों द्वारा अपने फायदे के लिए रेगिस्तान के इस इकलौते पेड़ के साथ छेड़छाड़ से न केवल इसके अस्तित्व पर खतरा मंडलाने लगा है बल्कि जैव विविधता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगा है। वृक्षों की कटाई एवं खेती के आधुनिकीकरण, ट्रैक्टर से खेती का बढ़ता चलन और सामुदायिक चारागाहों की राज व समाज द्वारा अनदेखी के चलते रोहिड़ा वृक्ष की संख्या में धीरे-धीरे कमी होती जा रही है। चारागाहों में पशुओं की खुली व बारहोमास चराई के कारण नए अंकुरित पौधों को पशु खा लेते हैं, वहीं ट्रेक्टर से खेती के कारण नए अंकुरिक पौधे जड़ से उखड़ जाते हैं। यही कारण है कि नव अंकुरित एवं युवा पौधों की संख्या बहुत कम देखने को मिलती है। इसके बीज सफेद झिल्ली जैसे पंख लिए होते हैं जो हवा के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपने वंश को फैलाने की अपार क्षमता रखते हैं लेकिन कुदरत के साथ मानवीय अलगाव इनको पनपने में बाधा बन गया है। जरूरत है इस वृक्ष के सुरक्षा व संरक्षण की और इसके वंशवृद्धि चक्र को बनाए रखने की ताकि न सिर्फ रेगिस्तान का प्राकृतिक संतुलन बना रहे बल्कि आने पीढ़ी भी इसका भरपूर लाभ उठा सके। जिन जिलों में इस वृक्ष की बहुलता दिखती है, वहां बड़ी संख्या में औरण, गौचर व अन्य किस्मों की शामलाती भूमियों में इस वृक्ष को लगाने का प्रयास करने की आवश्यकता है। इसके लिए केवल सरकार पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है बल्कि समाज को भी आगे बढ़कर अपना अमूल्य योगदान देने की ज़रूरत है।

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