साथी (कहानी)

-यशपाल बैद-

मैंने बाहर जाने के लिए कमरे के दरवाजे की दहलीज पर कदम रखा ही था कि मां बोली, सुरेन्द्र! कुछ टूटे हुए पैसे दे जाओ। मेरी भवें तन गईं और माथे पर शिकन पड़ गई। मैंने ऊंची आवाज में गुस्से से कहा, मेरे पास पैसे नहीं है।

इतना कहकर मैं घर से बाहर निकल आया। मां मेरी तनाव-भरी गुस्से वाली आवाज सुनकर आगे न बोली। वह एकदम चुप हो गई थी।

बस स्टाप पर पहुंचा। मन अभी तक अस्थिर था। मां कितना तंग करती है। जब भी तैयार होकर बाहर निकलने लगता हूं तभी पैसे मांगती है। मैंने मना भी किया कि इस वक्त मत मांगा करो। वह अपनी आदत से मजबूर है। मैं भी अपनी आदत से मजबूर हूं। आज तक कभी भी ऐसे अवसर पर मां को पैसे नहीं दिए। जेब में चाहे पैसे हों भी, तब भी मां को झाड़ देता हूं जैसे वह कोई भिखारिन हो और मेरे मार्ग में आ खड़ी होती हो। मैं सोच रहा था, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए। मां आखिर मां है। मुझसे नहीं मांगेगी तो और किससे मांगेगी? मैं ही तो उसका बेटा हूं। मैं कमाऊ पुत्र हूं और वह मेरे साथ ही तो रहती है।

बस स्टाप पर थोड़ी-सी भीड़ थी किन्तु बसें आ-जा रही थीं। मैं भीड़ के पीछे हटकर खड़ा था।

मेरे मस्तिष्क में इस समय कौन-सी बस पकडनी है का कदाचित विचार न था। केवल मां ही मां थी। चेतन-अवचेतन मन में मां की आकृति अस्पष्ट-सी दिखाई दे रही थी।

मां झाड़ खाकर चुप हो गई थी।… अब वह शायद चारपाई पर लेट गई हो। उसकी आंखों में आंसू भी आ सकते हैं। वह सोच रही होगी कि मैंने उसे भी अपने-आप पैसे नहीं दिए। जब भी मांगती है खीझ जाता हूं। वह अपनी कल्पना में मेरे लिए ही तो पैसे लेती है। मेरे लिए ही तो फल लाती है। वह चाहती है कि मैं भी दूसरे लड़कों की तरह मोटा हो जाऊं। मुझमें क्यों यह सडियलपन है। इसका कारण क्या है। मैं कुछ अधिक भावुक हूं। सड़क पर जब मुझे एकाएक कोई भिखारी भीख मांगता हुआ मिलता है तो बिना सोचे रुपए का नोट तक उसके हाथ पर रख देता हूं। पर मां को जैसे कुछ देना ही नहीं चाहता। वह पैसा गंवा थोड़े ही देगी। एक-एक नया पैसा जमा कर रखेगी। जमा करके वह कोई अच्छी चीज खरीद लेगी। घर पर है ही क्या-कोई चादर नहीं, कोई अच्छा-सा सूटकेस नहीं और मां स्टोव भी तो खरीदना चाहती है। स्टोव के लिए न जाने उसने कितनी बार कहा और मैंने सदा सुनी-अनसुनी कर दी।

एकाएक विचार ने पलटा खाया और मुझे भास हुआ कि मैं बस स्टैंड पर खड़ा हूं। कितनी ही बसें गुजर गई हैं। मैं प्रयत्न करता तो अब तक किसी बस में बैठकर चला गया होता।

मनोविश्लेषण के द्वारा मुझे लाभ हुआ। मेरे शरीर में जो तनाव था-वह अब ढीला हो गया और मस्तिष्क का बोझ कुछ हल्का। मैंने सोचा, अभी घर वापस जाकर मां को एक रुपया दे आऊं तो मां भी प्रसन्न हो जाएगी और मेरी छुट्टी भी बिना किसी गहरे सोच के गुजर जाएगी।

छुट्टी-आज छुट्टी है? मां ने पूछा, क्या खाना घर पर ही खाओगे? कुछ टमाटर ले आओ। खाने के साथ खाना, स्वाद आ जाएगा। मैंने कहा, नहीं-नहीं, मैं खाना घर नहीं खाऊंगा। मां ने मुझसे पैसे मांगे तो मैंने उसे दुत्कार दिया।

इसी उधेड़बुन में न जाने मैं कितनी देर वहीं खड़ा रहा। लोग आए और चले गए और मैंने देखा कि मैं बस स्टैंड पर अकेला खड़ा हूं। शायद कोई खाली बस आई जो सबको बिठाकर ले गई। मैं भी क्यों नहीं बैठ गया।

समय का पता लगाना चाहा। घड़ी मेरे हाथ में नहीं बंधी हुई। मां कितनी बार कह चुकी है-मुझे पैसे देते रहो तो मैं जोड़कर तुम्हें घड़ी ले दूं। तुम्हारी गोरी कलाई में घड़ी बंधी हुई कितनी अच्छी लगेगी। मैंने इस ओर भी कभी ध्यान नहीं दिया था।

एक बस आती दिखाई दी। मैंने अपने-आपको मां के विचारों से दूर करते हुए इस पर चढने का साहस किया। बस रुकी और मैं उस पर चढ़ गया।

कहां जाना है मुझे? मैंने बस में खड़े-खड़े मन में सोचा। आज छुट्टी है। लोग जा रहे हैं, शायद कुतुब-ओखला-चिडयाघर की तरफ बस खचाखच भरी है। मेरे विचारों का तांता जो कुछ क्षण पहले मां और उसके स्वरूप में बंधा हुआ था-बस के आने उस पर चढने पर टूटा और अब फिर बंध गया। ओखला-कुतुब-मां ने शायद इनमें से कुछ भी नहीं देखा बस में मेरी तरह के कितने युवक हैं जो अपने परिवार के साथ इन्हीं स्थानों को देखने जा रहे हैं। मैं भी क्यों मां को नहीं ले आया। मैं अब कहां जा रहा हूं। शायद ओखला चला जाऊं। कुछ नियत नहीं। अभी कंडक्टर पूछेगा, टिकट? बिना सोचे कह दूंगा-कुतुब और कुतुब न जानी हुई तो शायद ओखला जाती हो। ओखला ही चला जाऊंगा।

इसी दौरान मेरी नजर एक बाबू की कलाई पर बंधी घड़ी पर पड़ी, शायद ग्यारह बज रहे हैं।

ग्यारह! मैंने घर पर खाना नहीं खाया। केवल चाय का गिलास और एक परांठा। शायद मुझे दो बजे भूख लगेगी। उस समय क्या खाऊंगा। किसी होटल में बैठकर खाना खा लूंगा। बहुत पैसे खर्च हो जाएंगे। मां का स्वरूप फिर सामने आ गया। इस खर्च को आधा कर यदि मां को पैसे दे देता तो मां कितनी प्रसन्न होती।

बस रुकती, यात्रियों को लेती-उतारती चली जा रही थी। कंडक्टर मेरे पास खड़ा कह रहा था, टिकट! मैं ओखला कहकर उसके हाथ में एक रुपए का नोट पकड़ा देता हूं। वह मुझे करोल बाग से ओखला तक का टिकट दे साथ पैसे दे देता है। मैं पैसों के साथ टिकट को भी अपनी पैंट की जेब में डाल लेता हूं। बस में बहुत से लोग जो खड़े थे बैठ गए हैं। मैं खड़ा ही हूं। मेरा मन सोच में निमग्न है। शरीर बस में खड़ा है जो मन को अपने साथ रखने का प्रयास करता है और सफल भी हो जाता है।

कौन-सी जगह है? मैं बस में बाहर झांकता हूं। सफदरजंग हॉस्पिटल-जहां पर मां ने स्वयं को दिखाने के लिए कितनी बार मुझसे कहा है। मां की नाक की हड्डी कुछ बढ़ी हुई है। इसी कारण उसे बाहर महीने जुकाम रहता है। मैंने कभी किसी डॉक्टर को नहीं दिखाया।

मुझे पास ही एक सीट खाली नजर आती है। मैं उस पर बैठ जाता हूं। मेरे सिर में दर्द होने लगता है। मैं अपने दोनों हाथ अपने माथे पर रखकर अगली सीट के डंडे पर माथा टिका देता हूं। मेरे साथ एक लड़की बैठी हुई है। वह शायद मुझे अधिक दुखी अनुभव कर परे सरक जाती है, ताकि मैं आराम से बैठ सकूं। इस प्रकार बैठे हुए मैं अपनी आंखें मूंद लेता हूं।

बस चलती जा रही है, मैं आंखें मूंदे, हाथ माथे पर रखे जैसे सोने का प्रयास कर रहा हूं। कुछ क्षण पश्चात् मेरे सिर का दर्द ठीक हो जाता है।

बस रुकती है और मैं उसके झटके से मानो नींद से जागता हूं। मेरे पास बैठी लड़की रास्ता मांगती है। मैं भी उठ खड़ा होता हूं। ओखला आ तो गया। बस यहीं तो खाली होगी।

ओखला बाग के अन्दर प्रवेश करता हूं। बस से उतरे सभी लोग अन्दर ही जा रहे हैं। बच्चे नाचते-नाचते भाग रहे हैं। मैं बिल्कुल अकेला-सा महसूस करता हूं। मैं चाहता हूं कि मैं भी किसी के साथ आया होता। मेरे साथ भी कोई आया होता। मेरे दफ्तर के लोग भी तो पिकनिक पर गए हैं। शायद कुतुब गए हैं। मैं उनके साथ क्यों नहीं चला गया।

यमुना नदी का जल तीव्र गति से बह रहा है। बच्चे ऊपर से झांक रहे हैं। परिवार के परिवार बैठे हैं। झुरमुट के झुरमुट नजर आते हैं।

मैं कुछ थकावट-सी महसूस करता हूं। मैं एक स्थान ढूंढकर वहां बैठ जाता हूं। हरी घास मुझे अच्छी लगती है-मैं लेट जाता हूं। मुझे नींद आ जाती है, मैं सो जाता हूं। नींद स्वप्न-मां मुझे भूख लगी है। मेरे लिए खाना पकाओ। टमाटर ले आता हूं, तुम तब तक मेरा खाना लगा लो। और फिर पास में खेलते बच्चों की आवाज। मेरी नींद खुल जाती है।

मैं स्वप्न देखा। दिन में स्वप्न। मां आज मेरे ईद-गिर्द क्यों छाया की तरह मंडरा रही है।

मां… मेरी! मैं उठ बैठता हूं। मुझे भूख लगती है। मैं लोगों को बैठे खाना खाते देख बाहर आ जाता हूं। किसी होटल की ओर नहीं, बस स्टाप की ओर-बस पकड़ घर पहुंचने के लिए, ताकि घर पहुंचते ही मां से कहूं-मां खाना बनाओ। मुझे बहुत सख्त भूख लगी है। यह लो दो रुपए का नोट। जाओ पहले टमाटर लेकर आओ-खाने के साथ टमाटर होंगे-तो मजा आ जाएगा…।

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