मजदूरों के पलायन का दर्द पलामू के सीने पर जख्म है

मेदिनीनगर। पलामू का भूखंड अकूत खनिज संपदा, प्रचुर वन संपदा एवं अनेक कुटीर उद्योगों की संभावना से परिपूर्ण है। बावजूद इसके यहां से हजारों मजदूर हर मौसम में पलामू से बाहर रोजी रोटी की तलाश में जाते हैं। कृषि कार्य के प्रारंभ होते ही चाहे वह धान की बुवाई का समय हो या धान-गेहूं की फसल काटने का वक्त हो, मजदूरों का दल परिवार सहित पंजाब सूरत दिल्ली एवं गया के इलाकों में पहुंच जाते हैं। बस एवं रेलगाड़ियों में उनका काफिला देखा जा सकता है। गत कुछ वर्षों से पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या भी अचानक बढ़ गई है। इसके कई कारण है प्रथम, खनिज उद्योगों का चालू नहीं होना या बंद हो जाना जिससे मजदूरों के समक्ष काम के अभाव में भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है दूसरा, कारण है नक्सल प्रभावित जिला होने से जंगल भी अब आम लोगों के लिए नहीं रहा। पत्ती तोड़ने से लेकर जलावन की लकड़ी बेचकर पेट पोसने का सहारा भी लगभग समाप्त हो गया है। तीसरा, कारण यह है कि उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र होने के कारण गांव के बड़े किसान भय से अब गांव छोड़ कर शहर में आ कर बस चुके हैं। उन्होंने शहर में ही अपना व्यवसाय का विस्तार कर अपनी स्थितियों में सुधार कर लिया। मज़दूर जहां सालों भर उनके यहां काम करके अपनी जीविका चलाते थे आज उनके समक्ष रोटी के लाले पड़ गए। वर्षा के पानी के भरोसे खेती भी छोटे और मझोले किसानों के साथ अब जुए का खेल हो चुका है। छह महीने के बाद वैसे किसान भी मजदूरों के श्रेणी में आ जाते हैं। उपरोक्त कारणों के अलावा भी पलामू में अशिक्षा, गरीबी और कुपोषण से मजदूरों की तादाद वैसे भी काफी थी। देश के जिन -जिन प्रदेशों में मजदूरों का पलायन होता है वहां भी उनका भरपूर शोषण होता है। यह सही है कि उन्हें भरपेट भोजन और रुपये भी मिलते हैं, मगर उसकी एवज में उनका शारीरिक आर्थिक और मानसिक शोषण भी होता है। जिन्हें बर्दास्त करना उनकी मजबूरी होती है। जब अपने घर लौटते हैं तो अपने साथ कई बुरी आदतें नशीले पदार्थों बीके सेवन जे शिकार , यहां तक एड्स जैसी बीमारियों के संवाहक बनकर लौटते हैं। उनका जीवन तिल-तिल जलता है और पतन के कहर पर पहुंच जाता है। शहर में हजारों मजदूरों का प्रतिदिन आना व काम की तलाश करना और खाली हाथ घर लौटना किसी भी सदस्य व व्यक्ति के हृदय द्रवित करने के लिए काफी हैं। यह मजदूर मेदनीनगर शहर के कन्नीराम चौक, सदिक मंजिल चौक, सुभाष चौक तथा रेडमा चौक पर भारी संख्या में एकत्र होते हैं। इनकी इकट्ठा होने से अक्सर रास्ते जाम हो जाते हैं, जिसे सवारी गाड़ी को कौन कहे आम आदमी को भी चलने में परेशानी होती है। काम की तलाश में आए मजदूरों पर अगर दृष्टिपात किया जाए तो उनकी शारीरिक और आर्थिक स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। शरीर पर फटे कपड़े, खाली पैर छोटे बड़े सभी उम्र के लोग होते हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब उनमें आईए व बीए पास मजदूर भी होते हैं। जो अशिक्षितों की भीड़ में खुद को छुपाए रहते हैं। उनके चेहरों के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह का भविष्य वर्तमान रहता है। गांव में छोटे-छोटे गृह उद्योग जो जातिगत थे वह भी अचानक बंद हो गए। मशीनीकरण की इस युग में ना तो गांव में जूते बनते हैं ना तो कोल्हू से तेल बनता है। लकड़ी और लोहे के सामान के लिए अब गांव शहर पर ही निर्भर है। इस प्रकार यह देखा जाता है कि मजदूरों का पलायन का दर्द पलामू के सीने पर जख्म है। इस गंभीर समस्या का निदान व्यवस्था द्वारा सुनिश्चित अब तक नहीं किये जाने से अब विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस कारण उग्रवाद को भी फलने- फूलने की इससे पृष्ठभूमि मिल जाती है। गांव- गांव में गृह उद्योगों के लिए ऋण मुहैया कराकर चाहे वह लकड़ी, लोहा, चमड़ा व पत्थर आदि किसी भी तरह का हो मजदूरी मजदूरों का पलायन रुक सकता है।

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