राष्ट्रीय शिक्षा नीति : बालश्रम की चुनौती

-रामकुमार विद्यार्थी-

सतत विकास लक्ष्य के लिए वैश्विक एजेंडा का मूल मंत्र सार्वभौमिकता का सिद्धांत है “कोई पीछे न छूटे।’’ इन उद्देश्‍यों पर अमल के लिए जरूरी है कि ये सभी सरकारों और काम करने वालों के लिए प्रासंगिक होने चाहिए। सतत विकास लक्ष्य के बिंदु 8.7 जिसमे 2025 तक बालश्रम के सभी रूपों की समाप्ति का लक्ष्य है इसकी पूर्ती तभी होगी जब सभी बच्चे शिक्षा से जुड़ जाएँ और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को हासिल कर अपने जीवन यापन को आसान बना सकें। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप में स्कूल से बाहर के जिन बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का स्वप्न दिखाया गया है। उनमे कामकाजी या बालश्रमिक बच्चों की भी बड़ी संख्या है। इस लिहाज से हमारे सामने वंचित बच्चों को बेहतर दुनिया देने के लिए सोचने-समझने और बुनियादी काम करने का का कठिन लेकिन जिम्मेदारी पूर्ण अवसर है। डाइस की पिछली रिपोर्ट के अनुसार सरकारी स्कूलों में बच्चों का नामांकन तो 92 प्रतिशत तक हो रहा है किन्तु स्कूल में बच्चों का ठहराव न होने के कारण शिक्षा से वंचितता स्थिर बनी हुई है। बालश्रम की चुनौती ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 का अध्याय 3, ड्राप आउट बच्चों को शिक्षा से पुनः जोड़ना और सभी तक शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित करना उल्लेखित है। इसके तहत वर्ष 2030 तक 3 से 18 वर्ष आयुवर्ग के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा की पहुंच एवं भागीदारी सुनिश्चित करने का उद्देश्य तय किया गया है। लम्बे समय से शाला से बाहर और कई तरह के कामों में लगे कामकाजी और बालश्रमिकों की मूल समस्याओं को जड़ से ख़त्म किये बगैर शिक्षा की यह राह कठिन दिखायी देती है। उपरोक्त उद्देश्य पूरा हो इसके लिए अति आवश्यक तो यह है कि हम साफ मन से बालश्रमिकों और सभी तरह के कामकाज में लगे बच्चों जो अप्रवेशी या ड्राप आउट हैं उनकी कुल गिनती करें। भारत की जनगणना जैसी प्रतिबद्धता के साथ 18 वर्ष तक के कामकाजी और बालश्रमिक सहित शिक्षा से बाहर रहने वाले बच्चों की गणना हो ताकि कितने बच्चे शिक्षा से वंचित हैं या बीच राह में ड्राप आउट होकर मजदूर बन जाने को मजबूर हुए हैं यह स्थिति पता चल सके। पूर्व में हुए जनगणना अनुसार 5 से 14 वर्ष के कामकाजी बच्चों की संख्या मध्यप्रदेश राज्य में वर्ष 1971 में 1112319, 1981 में 1698597, 1991 में 1352563 तथा वर्ष 2001 में 1065259 है। जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 8.4 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते। जबकि 78 लाख बच्चे बालश्रमिक के रूप में काम करने को मजबूर हैं, इनमे 57 फीसदी लड़के और 43 फीसदी लड़कियां हैं। बालश्रम करने वालों में 68 फीसदी खेती मजदूरी के काम में लगे पाए गये। इनमे से 32 फीसदी बच्चे तो साल भर काम करते हैं। उक्त आंकड़ों पर नजर डाले तो अकेले मध्यप्रदेश में 5 से 14 वर्ष के 7 लाख बच्चे कामकाजी हैं। हालाँकि इस जनगणना में भी भिक्षावृत्ति और कई कामों में लगे बच्चों और 14 से 18 वर्ष के कामकाजी बच्चों को गिना नहीं गया है। इस तरह लाखों बच्चे हैं जो या तो स्कूल तक पहुंचे ही नहीं या बीच में पढ़ाई छोड़कर काम में लग गए। बालश्रम विरोधी अभियान मप्र से जुड़े कार्यकर्त्ता संजय सिंह कहते हैं कि बच्चों के शिक्षा से जुड़ाव में बालश्रम बड़ी बाधा है। वैसे ही बालश्रम को खत्म करने को लेकर राज्यों की कमजोरियां हैं, उसपर घरेलू व्यवसाय में पढ़ाई के साथ बच्चों के काम करने को जायज बनाने वाले कानून के लागू होने से बच्चों पर दोहरी मार पड़ी है। गरीबी के नाम पर बच्चे सस्ता श्रम बनकर न सिर्फ शोषण का शिकार हो रहे हैं बल्कि वे शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकार से भी वंचित हो रहे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की छात्रा श्रुति ने संस्था निवसीड बचपन के साथ किये रिसर्च में पाया कि भोपाल शहर के 8 बस्तियों में 18 साल से कम उम्र के 527 बच्चे कामकाजी हैं। इनमे बीच में पढाई छोड़ने वाले बच्चे भी हैं। झुग्गी बस्तियों में बाल गतिविधि केंद्र चलाने वाली कार्यकर्त्ता लक्ष्मी कुशवाहा, विद्या चौरसिया के अनुसार बाल श्रम में लगे बच्चों को पुनः शिक्षा से जोड़ने के लिए खेल, गीत, चित्र युक्त रुचिकर पाठ्यक्रम पद्धति काफी कारगर होती है। ये बच्चे अति संवेदनशील होते हैं इसलिए सम्मान और समानता जैसे मूल्यों को लेकर वे अक्सर नाराज हो जाते हैं इसलिए उनके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार अत्यंत आवश्यक है। देखा गया है कि शिक्षकों के कठोर व्यवहार के कारण भी बच्चे स्कूल छोड़ते हैं फिर भी नई शिक्षा नीति में इस समस्या को नजर अंदाज किया गया है। बाल अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय समझौते और किशोर न्याय अधिनियम में स्पष्ट है कि जो 18 वर्ष से कम है वह बच्चा है। अतः बालश्रम सम्बन्धी कानूनों में खतरनाक और गैर खतरनाक कामों के आधार पर 14 से 18 साल के बच्चों के शोषण को लेकर उदासीनता या उसपर पर्दा डाले रखने की प्रवृत्ति सब तक शिक्षा की पहुंच बनाने की राह में बड़ी रुकावट है। नई शिक्षा नीति के सार्वभौमिक सिद्धांत कोई पीछे न छूट जाए तभी सार्थक हो सकेगा जब 18 साल से कम उम्र के शिक्षा से बाहर सभी बच्चों को चिन्हित कर शिक्षा से जोड़ा जाये। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में बढ़ते शहरीकरण के बीच स्कूल छोड़ने वाले और अप्रवेशी बच्चों की संख्या चिंता जनक है। आरटीई एजुकेशन पोर्टल पर दर्ज आंकड़ों के अनुसार शहरी क्षेत्र में मप्र की राजधानी में 6 से 14 वर्ष के ड्राप आउट बच्चे 4824 हैं। इंदौर शहर में 3040, उज्जैन में 771, जबलपुर में 701 तथा ग्वालियर में 680 बच्चे हैं। इसी तरह ग्रामीण अंचल के जिले धार में 2514, राजगढ़ में 1646, विदिशा में 1499 तथा बडवानी में 1112 बच्चे ड्राप आउट हैं। इस तरह समूचे मप्र में कुल 222670 बच्चे स्कूल से बाहर हैं। यहाँ 14 से 18 के बीच के बच्चों के आंकड़ों की भी वैसी ही स्थिति है जैसी इस उम्र वर्ग के कामकाजी बच्चों की संख्या गोलमोल बनी हुई है। नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मप्र में जमीन पर उतारने के लिए पीछे छूटने वाले बच्चों की सही गणना और उनकी स्थिति का आंकलन करना आवश्यक होगा। यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि इन सभी बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिए बालश्रम के कारणों को प्राथमिकता से हल करने की इच्छा शक्ति सरकारों को दिखानी होगी। इनमे ग्रामीण अंचल में खेती और मजदूरी के लिए सस्ता श्रम के रूप में बच्चों का उपयोग और शहरी क्षेत्रों में छोटे बच्चों की घर पर देखभाल करने तथा आर्थिक असुरक्षा के कारण होने वाला बालश्रम समाहित है। कुल मिलाकर कहना यह है कि बालश्रम की समस्या को समूल नष्ट किये बिना नयी शिक्षा नीति की राह आसान नहीं है।

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