करवा चौथ, 17 अक्टूबर पर विशेष : भारतीय संस्कृति का गौरव-करवा चौथ

-योगेश कुमार गोयल-

करवा चौथ पर्व का हमारे देश में विशेष महत्व है। उस दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए पूरे दिन व्रत रखती हैं और रात को चांद देखकर पति के हाथ से जल पीकर व्रत खोलती हैं। उस दिन महिलाओं के चेहरे पर अलग ही तेज नजर आता है। करवा चौथ का नाम सुनते ही मन में सोलह श्रृंगार किए खूबसूरत नारी की छवि उभर आती है। दरअसल, मेंहदी लगे हाथों में रंग-बिरंगी खनकती चूड़ियां, माथे पर आकर्षक बिंदिया, मांग में सिंदूर, सुंदर परिधान और तरह-तरह के आकर्षक गहने पहने सोलह श्रृंगार किए सुहागिन महिलाएं इस दिन नववधू से कम नहीं लगतीं। दुल्हन के लाल जोड़े की भांति इस दिन भी लाल रंग के परिधान पहनने का चलन बहुत ज्यादा है।

अपने समाज में वैसे तो महिलाएं विभिन्न अवसरों पर कई व्रत रखती हैं लेकिन पति को परमेश्वर मानने वाली नारी के लिए इन सभी व्रतों में सबसे अहम स्थान रखता है ‘करवा चौथ’। पति की दीर्घायु, स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य तथा सौभाग्य के साथ-साथ जीवन के हर क्षेत्र में उसकी सफलता की कामना से सुहागिन महिलाओं द्वारा कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को रखा जाने वाला यह व्रत अन्य सभी व्रतों से कठिन माना जाता है। यह व्रत महिलाओं के लिए ‘चूड़ियों का त्यौहार’ नाम से भी प्रसिद्ध है। महिलाएं अन्न-जल ग्रहण किए बिना अपार श्रद्धा के साथ यह व्रत रखती हैं।

यूं तो यह सुहागिन महिलाओं का ही त्यौहार माना गया है लेकिन अब बहुत-सी अविवाहित युवतियां भी अच्छे वर की प्राप्ति की कामना से यह व्रत करने लगी हैं। इस व्रत में शिव, पार्वती, कार्तिकेय, श्रीगणेश तथा चन्द्रमा का पूजन करने का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि इस व्रत के समान सौभाग्यदायक अन्य कोई व्रत नहीं है। सुहागिनें यह व्रत 12 से 16 वर्ष तक हर साल निरन्तर करती हैं। उसके बाद वे चाहें तो इस व्रत का उद्यापन कर सकती हैं। हालांकि अधिकांश महिलाएं आजीवन यह व्रत करती हैं। इस व्रत में सुहागिन महिलाएं करवा रूपी वस्तु या कुल्हड़ अपने सास-ससुर या अन्य स्त्रियों से बदलती हैं। सूर्योदय से पूर्व तड़के ‘सरगी’ खाकर सारा दिन निर्जल व्रत किया जाता है।

कुंवारी कन्याओं और सुहागिन महिलाओं द्वारा किए जाने वाले इस व्रत में मूल अंतर यही है कि सुहागिनें चांद देखकर चन्द्रमा को अर्ध्य देने के बाद व्रत खोलती हैं, वहीं कुंवारी कन्याएं तारों को ही अर्ध्य देकर व्रत खोल लेती हैं। दिनभर उपवास करने के बाद शाम को सुहागिनें करवा की कथा सुनती हैं।

करवा चौथ पर्व के संबंध में वैसे तो कई कथाएं प्रचलित हैं। लेकिन सभी कथाओं का सार पति की दीर्घायु और सौभाग्यवृद्धि से ही जुड़ा है। विभिन्न पौराणिक कथाओं के अनुसार ‘करवा चौथ’ व्रत का उद्गम उस समय हुआ था, जब देवों व दानवों के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था। युद्ध में देवता परास्त होते नजर आ रहे थे। तब देवताओं ने ब्रह्माजी से इसका कोई उपाय करने की प्रार्थना की। ब्रह्माजी ने उन्हें सलाह दी कि अगर सभी देवों की पत्नियां पवित्र हृदय से अपने पति की जीत के लिए प्रार्थना एवं उपवास करें तो देवता दैत्यों को परास्त करने में अवश्य सफल होंगे। ब्रह्माजी की सलाह पर समस्त देव पत्नियों ने कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को यह व्रत किया और रात्रि के समय चन्द्रोदय से पहले ही देवता दैत्यों से युद्ध जीत गए। तब चन्द्रोदय के पश्चात दिनभर की भूखी-प्यासी देव पत्नियों ने अपना-अपना व्रत खोला। ऐसी मान्यता है कि तभी से करवा चौथ का व्रत किए जाने की परम्परा शुरू हुई।

एक कथा महाभारत काल से जुड़ी है। कहा जाता है कि एक बार धनुर्धारी अर्जुन तप करने के उद्देश्य से नीलगिरी पर्वत पर गए तो द्रौपदी बहुत चिंतित हुईं। उन्होंने विचार किया कि यहां हर समय कोई न कोई संकट आता ही रहता है। इसलिए अर्जुन की अनुपस्थिति में इन संकटों से बचने के लिए क्या उपाय किया जाए? तब द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया और उन्हें अपने मन की व्यथा बताई। द्रौपदी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि पार्वती देवी ने भी एक बार भगवान शिव से बिल्कुल यही प्रश्न किया था। तब भगवान शिव ने उन्हें कहा था कि करवा चौथ का व्रत गृहस्थी में आने वाली तमाम छोटी-बड़ी बाधाओं को दूर करता है। द्रौपदी ने श्रीकृष्ण से करवा चौथ के व्रत के संबंध में विस्तार से बताने का आग्रह किया तो श्रीकृष्ण ने बताया कि इन्द्रप्रस्थ नगरी में वेद नामक एक धर्मपरायण ब्राह्मण के सात पुत्र व एक पुत्री थी। विवाह के बाद जब पुत्री पहली करवा चौथ पर मायके आई तो उसने करवा चौथ का व्रत रखा। लेकिन चन्द्रोदय से पूर्व ही उसे भूख सताने लगी। अपनी लाड़ली बहन की यह वेदना भाईयों से देखी न गई। उन्होंने बहन से व्रत खोलने का आग्रह किया पर वह इसके लिए तैयार न हुई। तब भाईयों ने मिलकर एक योजना बनाई। उन्होंने एक पीपल के वृक्ष की ओट में प्रकाश करके बहन को कहा कि देखो चन्द्रमा निकल आया है। बहन भोली थी। इसलिए भाईयों की बात पर विश्वास करके उसने उस प्रकाश को ही चन्द्रमा मानकर उसे ही अर्ध्य देकर व्रत खोल लिया। जब अगले दिन वह ससुराल पहुंची तो पति को बहुत बीमार पाया। दिन ब दिन पति की बीमारी बढ़ती गई और सारी जमा पूंजी पति की बीमारी में ही लग गई। उसने मंदिर में जाकर गणेश जी की स्तुति करनी शुरू की। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर गणेश ने उसके समक्ष प्रकट होकर कहा कि तुमने करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान से नहीं किया। इसीलिए तुम्हारे पति की यह दशा हुई है। यदि तुम यह व्रत पूरे विधि-विधान एवं निष्ठा के साथ करो तो तुम्हारा पति पूरी तरह ठीक हो जाएगा। उसके बाद उसने करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान के साथ किया और इसके प्रभाव से उसका पति ठीक हो गया।

कथा सुनाने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि यदि तुम भी इसी प्रकार विधिपूर्वक सच्चे मन से करवा चौथ का व्रत करो तो तुम्हारे समस्त संकट अपने आप दूर हो जाएंगे। तब द्रौपदी ने करवा चौथ का व्रत रखा और उसके व्रत के प्रभाव से महाभारत के युद्ध में पांडवों की विजय हुई। कहा जाता है कि इसी के बाद सुहागिनें ‘करवा चौथ’ व्रत रखने लगी। इस पर्व से संबंधित और भी कई कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें सत्यवान और सावित्री की कहानी तथा करवा नामक एक धोबिन की कहानी भी बहुत प्रसिद्ध है।

सही मायने में करवा चौथ दाम्पत्य जीवन में एक-दूसरे के प्रति समर्पण का अनूठा पर्व है।

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