सब दुःखों की जड़ देह है। उसमें भी यदि देह बीमार हुआ तो वह दुःख की हद होगी। नमक का खारापन, शकर की सफेदी, ये जैसे नमक और शक्कर से अलग नहीं होते वैसी ही बात देह और दुःख की जानो, यानी देह और दुःख अलग नहीं होते। देह मजबूत और ताकतवर होने पर भी दुःख भुला नहीं जाता। शरीर के लिए जैसी छाया है वैसे ही शरीर के लिए रोग है। रामकृष्ण आदि अवतार हो गए किन्तु वे भी अन्त में देह में नहीं रहे। अपना भी भरोसा नहीं है, यह हम जानते हैं फिर भी वियोग का असीम दुःख होता है। देह के अति दुःख के कारण चित्त स्थित और शांत नहीं रहता देह के भोग देह के ही माथे सौंपे। वे किसी को दिए नहीं जा सकते न किसी से लिए जा सकते हैं। आज तक हमने जो जो किया, सब गृहस्थी को अर्पण किया, उसमें अपने स्वार्थ नहीं छोड़ा। अधिकार, संतति, संपत्ति, लौकिक व्यवहार, जनप्रीति, इन सबका मूल स्वार्थ के सिवाय और कहीं नहीं है और इससे अन्त में दुःख ही होता है। जो जो भी प्रयत्न किया, उसी को हमने सुख का आधार, सुख का कोष समझा, कल्पना से सुख माना, लेकिन सुख हाथ नहीं आया। जिसका बहुत बड़ा काम कर दिया हो, उसके प्रति यदि थोड़ी भी गलती हो जाए तो वह तुरन्त गुर्राता है। लोग ऐसे स्वार्थी होते हैं, हम यह जानकर बरतें। हमारे अपने भीतर सुधार किए बिना हमें बाहर से सुख नहीं मिलेगा। समुद्र भूतल पर दूर-दूर तक फैला हुआ है, लेकिन कभी क्या ऐसा हुआ है कि किसी एक स्थान का पानी कम खारा है? उसी तरह संसार में कहीं भी जाओ सुख के बारे में अनुभव समान ही होगा। यानी सुख संसार पर नहीं, हमी पर निर्भर है और उसका उपाय यह है कि हम अपना ही सुधार करें। तो अब यह सुधार कैसे किया जाए? भगवान ने मनुष्य को भला-बुरा समझने की बुध्दि दी है जो अन्य प्राणियों को नहीं दी है। तो उस बुध्दि का पूरा-पूरा उपयोग करके हम बुरी बातें करने से बचें और अच्छी बातें करने का प्रयत्न करें। बुरी बातों से बचना हर आदमी के लिए संभव है क्योंकि उसमें कुछ न करना ही काम होता है और वह काम कृति करने की अपेक्षा हमेशा आसान होता है। अच्छी बातें सभी कर पाएंगे ऐसा नहीं। सारांश, सुखी होने का उपाय यह है कि विचारपूर्वक बुरी बातें करने का टालें और अच्छी बातें अपनी शक्ति के अनुसार करते रहें और यह सब करते समय हमेशा भगवान का चिंतन करें। ऐसा करने से ही सुख प्राप्त होता है। संसार से सुख प्राप्त होगा यह कल्पना ही गलत है। तेरा तेरे पास ही है, लेकिन तू अपनी जगह भूल गया है, क्योंकि जब हम खुद संसार की इच्छा के अनुसार नहीं बरतते तो संसार हमारी इच्छा के अनुसार नहीं बरतें, ऐसा हम क्यों सोचें? गीता में भगवान ने कहा है कि मन मैं ही हूं इसका मतलब है कि भगवान के बिना मन की तैयारी नहीं हो सकती। हम भगवान को दृढ़ता से पकड़ रखें और संतोष से रहें। हमेशा भगवान का स्मरण करें और वृत्ति स्थिर करने की कोशिश करें। वृत्ति स्थिर होने पर उसके बाद संतोष होती ही है।
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