-श्री श्री आनन्दमूर्ति-
वृत्ति मुख्यतः दो प्रकार की होती है- साधारण वृत्ति और सहजात वृत्ति। उन्नत जीवों में सहजात वृत्तियां और अन्यान्य वृत्तियां भी रहती हैं, जो अध्ययन, सामाजिक आदान-प्रदान, सांस्कृतिक अनुशीलन, आध्यात्मिक साधना से मजबूत होती है। मन विकसित अवस्था में धर्म, सामर्थ्य की उपलब्धि करता है तब यह माना जा सकता है कि मन की कुछ उन्नति हुई है। हर इस विकास के परवर्ती चरण में जब कर्मक्षमता को मान लिया जाता है, उस समय यह भी मान लिया जाता है कि जीव मन की और भी उन्नति हुई है। मनुष्य का जीवन अन्यान्य जीवों से उन्नत होता है। यह अग्रगति किस तरह होती है, यह जानना जरूरी है। तुम सब यह याद रखना कि वृत्ति कुछ-कुछ सहजात प्रकार की होती है। पहले ही कह चुका हूं कि मनुष्य साधना के द्वारा ज्ञान-विद्या की चर्चा के द्वारा, आपसी मेलजोल के द्वारा अपनी वृत्तियों को बढ़ा सकता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य पर किसी वृत्ति का बाहर से दबाव डाला जाता है और कहा जाता है कि उन्हें मान कर चलना चाहिए। किसी प्रकार से उनकी अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। इस तरह बढ़ते-बढ़ते देखोगे कि सामने एक ऐसा आइडिया आ जाता है, जो मनुष्य को आगे बढ़ने नहीं देता। वह आइडिया कहता है कि अमुक धर्मशास्त्र में यह बात कही गई है। चाहे यह समझ में आता है कि यह सब कुछ मनुष्य के द्वारा ही बनाया हुआ प्रपंच है, फिर भी बात उसके अख्तियार से बाहर मालूम होने लगती है। यह पूरी दुनिया मेरे ईश्वर की बनाई हुई है, मेरी है, फिर भी मैं समुद्र पार कैसे करूं? शास्त्र में लिखा हुआ है कि ऐसा न करो। शास्त्र में लिखा है, तो क्या करूं? मानना तो पड़ेगा ही और साथ ही मन में सोचता है कि यह कार्य उचित नहीं है। फिर भी शास्त्र के विरुद्ध कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि उसमें साहस नहीं हैं। यह जो एक भावधारा है, जो प्रगति में बाधा डाल रही है, मन की गति को रोकती है- इसे ही भाव जड़ता कहते हैं। चाहे वह गलत दर्शन से आए या शास्त्रों से ही आए, पर अवश्य ही त्याज्य है। यदि कोई युक्तिपूर्ण बात कहता है तो उसे मान कर चलने से ही प्रगति होती है। वह आगे चलता है और कुछ भी उसे रोक नहीं सकता। पर यह डॉगमा रास्ते में आकर उसे बढ़ने से रोक देता है। अर्थात शास्त्र गलत शिक्षा देता है, दर्शन गलत शिक्षा देता है या यूं कहें कि शास्त्र और दर्शन की खास तरह से की गई व्याख्या गलत संदेश देती है। नतीजा एक ही है। उपाय यह है कि वे जहां युक्तियां काम नहीं करतीं- वहां मानवता के आधार पर विचार करो। मेरे लिए मेरे प्राण जितने प्रिय हैं, एक पशु के लिए भी उसके प्राण उतने ही प्रिय होते हैं। मैं उनके प्रति दया क्यों न दिखाऊं और यदि कोई कहे कि इससे पशु अपने पशु जीवन से मुक्ति पाएगा, तो तुम भी तो मनुष्य हो और मनुष्य भी तो एक जीव है। तो तुम भी अपना गला काट कर मनुष्य जीवन से मुक्ति क्यों नहीं पा जाते? निश्चय करो तुम इस भाव जड़ता से कभी मेल नहीं करोगे। एक ओर है भाव जड़ता और दूसरी ओर है मानव की विशाल हृदयता- मानवता। जहां भावजड़ता रास्ता रोकती है, वहां मानवता आगे बढ़ने की राह खोलती है।
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