मेदिनीनगर। पलामू सदा से ही बाहरी लोगों के आक्रमण का केन्द्र रहा है । मुण्डा यहां के प्राचीनतम आदिवासी है।उरावं, चेरो, भोगता, खरवार, परहिया, नगेशिया, असुरवृजियां जैसी आदिम जनजातियां बाहर से आकर यहां निवास करती रही है ।
इस आदिवासी संस्कृति में मनोरम मनोरंजन के नाम पर मृदंग अथवा मानर की थाप पर किशोर और किशोरियों का नृत्व और गायन होता रहा है । यही नृत्य-संगीत पलामू की नाटक परम्परा का आदि रूप है । यहां समय-समय पर गैर आदिवासियों का आगमन होता रहा है और वे अपने साथ मनोरंजन के साधन अपनाते रहे हैं। लेकिन तथ्यों से यह सच्चाई निकलती है कि यहां के लोगों का अधिकांश समय पलामू की स्वतंत्रता एवं अपनी रक्षा में बीतता था। इस कारण भारत में अन्य क्षेत्रों की तरह यहां व्यावसायिक घुुुमन्तु रंगमंच लिये नाठको के खेल प्रायः असम्भव होते रहे है। नगर उंटारी के राजमहल के मुख्य द्वार पर चेरो आदिवासियों की मूत्तियां हाथ में मशाल लिये खड़ी थी।यहांं के राजा स्वर्गीय शकर प्रताप देव से इन मूत्तियाेंं के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया था कि ये मूत्तियां निलांबर-पीतांबर की हैं । इसका निर्माण जयपुर के कलाकारों द्वारा उनके दादा भइया भगवान देव के निर्देश पर हुआ था। लेकिन आज जनता के बीच प्रचारित है कि इन मूत्तियाेंं के मशाल के प्रकाश में संगीत का आयोजन होता था तथा खेल-तमाशे होते थे। अगर यह बात सही है तो पलामू में अभिनय के नाम पर खेल-तमाशों का आयोजन यहां के जागीरदार ही करते थे। साधारण प्रजा को इन तमाशों से वंचित रहना पड़ता था।
ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि मुगलकाल और अंग्रेजी शासन काल में पलामू के लोगों के मनोरंजन के लिए नौटंकियां या व्यावसायिक थियेटर कंपनियां आई हों। रासलीला करने वाले व्यावसासिक लोग भी आम जनता के बीच यहां कभी नहीं आयें। उस समय आवागमन की सुविधा नहीं थी और कोई गांव ऐसा विकसित नहीें था जहां रासलीला देखने के लिए लोग इक्ट्ठे होते। हां, यह प्रमाण अवश्य मिलता है कि पलामू के लोगों ने ही रासलीला पार्टियां गठित की और दूर-दूर तक जाकर जीविका की। राजघरानों में कठपुतलिका नृत्य का अभिनय भी हुआ करता था नाटक-लेखन की परम्परा की शुरूआत करने वाले सर्वप्रथम नाटककार पं. रामदीन पाण्डेय थे इन्होंने ज्योत्स्ना नाटक की रचना की। कहा जाता है कि इस नाटक का अभिनय कई बार हुआ औरइस नाटक को अपार ख्याति मिली। पं.नन्द किशोर तिवारी ने पंडितजी के द्वारा लिखित पांच एकाकियों का संग्रहण सम्पादक किया और पंडितजी की एकाकियों पर सिस्तृत शोधात्मक आलेख लिखा। इन एकाकियों के भी अभिनय हुए ऐसा सुना जाता है।
चीनी आक्रमण काल में स्वर्गीय वसंत कुमार मिश्र ने ‘स्वदेश और सोना’ शीर्षक नाटक लिखा जिसको पटना आकाशवाणी केन्द्र ने कई बार रिले किया।लगभग 80 के दशक में यहां नाटक संस्थओं की स्थापना नाट्य लेखन और अभिनय की धूम मच गई। सबसे पहले त्रिभुवन नाथ वर्मा ने नटराज कला केन्द्र की स्थपना की ओर अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता का आयोजन किया। भारत के विभिन्न क्षे़त्रों से विभिन्न नाट्य संस्था आई। आश्चर्य जनक प्रतियोगिता हुई। हिन्दी के अतिरिक्त मगही के नाटक खेले गए। त्रिभुवन नाथ वर्मा, पारसनाथ सिंह, जितेन्द्र विश्वकर्मा जैसे निदेशक और अभिनेता सामने आए। पलामू कायह नाट्रय लेखन और अभिनय का प्रारम्भिक दौर था। इस संस्था ने ‘थैंक्यू मिस्टर गोलार्ड’ एक और द्रोणाचार्य, ‘सदगति जैसे नाटक खेले गए और दर्शकों के बीच क्रांंतिकारी भावना पैदा की। नटराज के अतिरिक्त यहां अभिव्यक्ति संकेत एवं मेलोड़ी नामक नाट्य सस्थाएं स्थापित हुई । वस्तुतः ये संस्थाऐं नटराज से टूट-टूट कर बनी है। यहां इप्टा जेसी नाट्य संस्था बहुत ही सक्रिय रही । नवें दशक के आसपास यहां के टाउन हाॅल में रामेश्वर लिखित और निर्देशित ‘दुर्जन सिंह हाय-हाय’ शीर्षक लघुनाटक अभिनित हुआ ।
यह नाटक विश्व प्रसिद्ध पत्रकार एवं कथाकार महाश्वेता देवी के पलामू आगमन के उपलक्ष्य में खेला गया था । दर्शकों के बीच महाश्वेता देवी और उनकी सहयोगी सुश्री महुआ घोष भी उपस्थित थी । इस नाटका का स्वर क्रान्तिकारी और सामन्ती-प्रथा के विरूद्ध था । इसी क्रम में यह उल्लेख्य हैै कि उपेन्द्र कुमार मिश्रा ने महाश्वेता देवी कथाकृति जंगल के दावेदार का नाट्य रूपान्तरण कर उसे मंचित कर धूम मचादी और अपनी निर्देशन-मंचीयक्षमता की अपनी अलग पहचान बना ली । ‘अभिव्यक्ति’ संस्था से अमिताभ दीक्षित ने जुड़ कर एक चिर शोषित व्यक्ति का अभिनय कर पलामू रंगमंचीय अभिनय का कीर्तिमान कायम किया । पलामू में इप्टा ने मुख्यतः नुक्कड़ नाटकों का धूम-धूम कर अभिनय करके नवजागरण का शंखनाद किया है ।
उपेन्द्र कुमार मिश्र, प्रेम प्रकाश, उमेश नजीर, विनय कुमार जैसे नाट्य निर्देशक और अभिनेताओं ने राजा का बाजा, समरथ के नहि दोष गुसाई, आफन डयूटी, देश आगे बढ़ रहा है, जंगीराम की हवेली, जनता पागल हो गई है, रक्तबीज, नंगा प्रसाद, मशीन गांव से शहर तक, अपहरण भाई चारे का जैसे असंख्य नुक्कड़ नाटक खेल कर पलामू की इप्टा ने अभिनय द्वारा अमंचीय नाटकों के कलात्मक औदात्य का परिचय दिया है । इन नुक्कड़ नाटकों के संवाद प्रायः पद्यात्मक रहे हैं और इन नाटकों को गीत नाटकों का अभिनव प्रयोग मान सकते है। स्वयं सेवी संस्थाओं ने भी नुक्कड़ नाटकों के अभिनय को जनजागरण के लिए एक मारक हथियार के रूप में स्वीकार किया है। हीरो ने महिला दिवस के अवसर पर 8 मार्च को हजारों की संख्या में उपस्थित महिलाओं के बीच वोटिंग और फोटोग्राफी ‘टीकारण’ जैसे सरकारी कार्यक्रम पर पल्स पोलियों, सड़क निर्माण प्रजनन एवं शिशु स्वास्थ्य जैसे विषयों पर नुक्कड़ नाटक खेेलकर नाटक और अभिनव को नया संदर्भ दिया है । इस तरह पलामू की नाट्य परम्परा से जुडे हुए लोगों में पुलिन मित्रा, त्रिभुवन नाथ वर्मा, सैकत चटर्जी, मुक्ता रंजन, राधवेन्द्र पाठक, मोहित कुमार सिन्हा, कुमार युगान्त, सफी उल्ला खां, दीपू, सर्राफ, अमर जयसवाल, सनत कुमार, आनन्द कुमार आदि उल्लेखनीय है।
यहां नारी भी युवा कलाकारों ने भी अभिनय के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है । सुषमाश्रीवास्तव, शिवांगी, मुक्ता रंजन, नीतू, रीता आदि नाम इस क्रम में लिये जा सकते है। गढ़वा में नारी पात्रों में प्रीति सिन्हा, माया पाण्डेय, अमूल्या तिर्की, विमला देवी, नीलम देवी, अर्चना, सुधा कुमारी, पुष्पा कुमारी, सविता, मंजू मेहता, कविता कुमारी, सरिता देवी, आदि स्कूली छात्राएं धरोहर बन कर आई है। महिलाओं ने लिंगभेद, बाल विवाह, दहेज प्रथा, अपनढ़ और जैसे नाटकों का मंचन किया है। सबसे बड़ी बात है कि यहां के गणेशलाल अग्रवाल कौलेज, योध सिंह नामधारी काॅलेज में वार्षिकोत्सव और कई अन्य अवसरों पर नाटक-मंचन का कार्य होता रहा है। स्कूलों में मिशन स्कूल, के.जी. स्कूलों में विभिनन अवसरों पर नाटक खेलने की सुदीर्ध परम्परा रही है। स्व. डाॅं0 ब्रजकिशोर पाठक ने शहीद नीलाम्बर-पीताम्बर’ नामक नाटक लिखा। उनकी यह किताब पलामूवासियों में काफी लोकप्रिय हुई है. उनकी इस किताब में नाटक में कई अनमिनेय दृश्यों को दिखाया है जिसे मंचित करना आसान नहीं है। इसकी दृश्य-योजनाओं को देखने से दूरदर्शन आसानी से इसे अभिनेय बना सकता है।
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