नैतिक नहीं,कानूनी विजय कहें जनाब!

सियाराम पांडेय शांत

देश में नैतिक और अनैतिक का विचार हो रहा है। सत्य और असत्य का विचार हो रहा है। संविधान और लोकतंत्र के संरक्षण की बात हो रही है। दीनों-दलितों के हितों की बात हो रही है। वंचितों, शोषितों के अधिकारों को लेकर आवाजें बुलंद होने लगी हैं। महिलाओं के मुद्दों पर, उनके हक और हकूक पर बात हो रही है। यह बहुत अच्छी बात है। लग रहा है कि भारत में जागरूकता आ रही है। लोग जागरूक हो रहे हैं लेकिन यह सिक्के का केवल एक पहलू है। ये सारी आवाजें एक सतह से शुरू होती हैं और दूसरी सतह पर पहुंचने से पहले ही शांत हो जाती हैं। सारा कोलाहल वहीं कहीं ठहर जाता है। दिखाई देने लगते हैं उन सारे वादों,नारों,संघर्षों और शिद्दतों के दुखांत। दिखाई देती है तो केवल आत्म केन्द्रीयता। यह मेरा-यह मेरा का भाव सर्वोपरि हो जाता है। पिछले तीन दिनों में दो धरने हुए। एक राजनीतिक, दूसरा सामाजिक। एक धरना ममता बनर्जी का और दूसरा धरना अन्ना हजारे का। एक मुख्यमंत्री,दूसरा गांधीवादी समाजसेवी। एक को भरपूर राजनीतिक समर्थन और दूसरे की उतनी ही उपेक्षा। दोनों ही धरने असमय काल कवलित हो गए। लक्ष्यहीन स्थिति में खत्म करने पड़े। पराजय को भी जय बताना पड़ा।धरना करने के लिए ही नहीं,खत्म करने को भी सम्मानजनक बताने की दरकार होती है। सो दोनों ने ही बहाना तलाश लिया और इस बहाने अपनी नाक बचा ली। ममता बनर्जी ने तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश को भी अपनी नैतिक जीत बता दिया और उसमें लोकतंत्र और संविधान की जीत तलाश ली। भाजपा वाले भी कब पीछे रहते। उन्होंने इसे सीबीआई की नैतिक जीत कह दिया। ऐसा लगा, जैसे सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश न हो ,कोई वैदिक ऋचा हो, जिसका हर राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से,अपनी-अपनी सुविधा के लिहाज से भाष्य कर रहा था। ममता बनर्जी ने यह भी कहा कि अमित शाह की रैली इसलिए रोकी कि उन्हें स्वाइन फ्लू था। यह संक्रामक रोग राज्य में फैल सकता था, तो इस तरह का विचार पहले ही करना था। पहले बता देतीं,टंटा कट जाता। इतना राजनीतिक बावेला न होता। वह लगे हाथ यह भी बता देतीं की योगी आदित्यनाथ,शाहनवाज हुसैन और शिवराज सिंह चौहान को कौन सी बीमारी है। वैसे भी वेद की ऋचाओं का भाष्य तो अब होता ही नहीं,अगर होता भी है तो पता नहीं चलता। जंगल में मोर नाचा किसने देखा। वह सब एक किताब जो सीमित संख्या में छपती है,उसके पृष्ठ कलेवरों में सिमट जाता है। बेठन में बंधना और पुस्तकालयों में सजना ही उसकी नियति है। वेदों के उतने भाष्य नहीं होते,जितने नेताओं की बातों और कोर्ट के आदेशों के होते हैं। तसल्ली की जा सकती है कि देश की बौद्धिकता अभी जीवित है। सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस ने ममता बनर्जी के वकील को कहा कि आप कल्पना बहुत करते हैं। कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार चिट फंड कंपनियों के घोटाला मामले में सीबीआई को पूरा सहयोग दें। शिलांग के सीबीआई दफ्तर में पेश हों। उन्हें गिरफ्तार नहीं नहीं किया जाएगा। गिरफ्तार तो उन्हें अभी भी नहीं किया जाना था। उनसे केवल पूछताछ होनी थी। अब कोलकाता और शिलांग की दूरी देख लें। वहां जाना कितना कठिन है। राजीव कुमार जो छिपाना चाहते थे,उसे बताना पड़ेगा,यही तो है नैतिक जीत। यह तो नैतिकता का मामला था कि जिस समय जांच सीबीआई को सौपीं गई,राजीव कुमार अपने द्वारा की गई जांच के दस्तावेज सीबीआई को सौंप देते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। जब नैतिकता का निर्वाह किया ही नहीं तो नैतिक जीत कैसे हुई? भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के दिग्गजों को अपने शब्दों पर विचार करना चाहिए,उसमें सुधार-परिष्कार करना चाहिए । यह हार- जीत कानूनी तो हो सकती है लेकिन नैतिक हरगिज नहीं हो सकती। जब यह कहा जाता है कि देश में कोई बिग बॉस नहीं है, जनता और संविधान ही बिग बॉस हैं तो उन्हें अपना काम करने दिया जाए। जनता अपना भला-बुरा बेहतर जानती है। राजनीतिक दल उसे गुमराह न करें। राजनीतिक दलों ने पांच वर्षों में क्या किया है,वह बखूबी जानती है। उसे कुछ भी बताने-जताने के मतलब हैं नानी के आगे ननिहाल का बखान करना। जांच के रहस्यों को छिपाना भी अपराध है और ऐसे अधिकारी का बचाव तो महापाप है। जनता के 40 हजार करोड़ हड़पने वालों को सजा दिलाने की बजाय उनके पक्ष में खड़ा होना अगर नैतिक जीत है तो फिर इस देश द्रौपदी का भगवान ही मालिक है। इस मुद्दे पर जिस तरह विपक्ष ने संसद के दोनों सदनों में हंगामा किया,उसे भी बहुत उचित नहीं कहा जा सकता। विधि व्यवस्था बनाए रखने का यह तो कोई मार्ग है ही नहीं। नैतिकता अंदर से आती है। नैतिकता सरलता का मार्ग है। राजनीतिक कुटिलता के लिए उसमें कोई गुंजाइश नहीं है। अपनी सुविधा के अनुसार भाष्य करना या अपने दल का झंडा ऊंचा रखने में बुराई नहीं है लेकिन जनहित की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। जोश की तलाश तो ठीक है लेकिन होश नहीं खोया जाना चाहिए। होश में काम किया जाए तो राजनीतिक,समामाजिक,आर्थिक और धार्मिक अराजकता की नौबत ही न आए। देश का हित जब तक सर्वोपरि नहीं होगा, तब तक इसी तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगते ही रहेंगे।

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