आसान नहीं विपक्षी एकता की राह

-योगेश कुमार गोयल-

एक तरफ चुनाव आयोग की ओर मार्च के शुरू में 17वीं लोकसभा के लिए चुनाव की तारीखें घोषित किए जाने के संकेत मिल चुके हैं, दूसरी ओर आम चुनाव में भाजपा को परास्त करने के लिए लंबे अरसे से चल रही विपक्षी एकता की मुहिम को ताकत प्रदान करने के प्रयास अंतिम चरण में हैं। इसी उद्देश्य से गत 19 जनवरी को कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में अलग-अलग विचारधारा वाले 23 विपक्षी दलों ने एकजुटता दिखाने के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में देश के वर्तमान हालातों को आपातकाल सरीखा बताते हुए बदल दो, बदल दो, दिल्ली में सरकार बदल दो नारे के साथ महारैली का आयोजन किया। हालांकि भाजपा के नेतृत्व वाले राजग में भी कुछ छोटी और क्षेत्रीय पार्टियां सम्मिलित हैं और उसने कोलकाता रैली में जुटे चार वर्तमान मुख्यमंत्रियों ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, एच डी कुमारस्वामी, अरविंद केजरीवाल तथा छह पूर्व मुख्यमंत्रियों अखिलेश यादव, फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, बाबूलाल मरांडी, हेमंत, गेगांग अपांग सहित कई प्रमुख विपक्षी नेताओं की मौजूदगी को परस्पर विरोधी विचारधाराओं वाले स्वार्थ और विरोधाभासी लोगों का सम्मेलन करार दिया किन्तु चुनाव की घोषणा से ठीक पहले एक ही मंच पर करीब दो दर्जन विरोधी दलों की एकजुटता और इसी मंच के जरिये भाजपा के ही बागी नेताओं शत्रुघ्न सिन्हा, यशवंत सिन्हा तथा अरूण शौरी के बागवती तेवरों से भाजपा की नींद उड़ना तो स्वाभाविक ही है। 1971 में भी देश की कई प्रमुख पार्टियों ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ माहौल बनाने का प्रयास किया था किन्तु उस वक्त मतदाताओं पर विपक्षी एकता की उस मुहिम का कोई असर देखने को नहीं मिला था। आपातकाल के बाद 7 जून 1977 को ज्योति बसु ने कोलकाता के इसी मैदान में विपक्षी एकता की ऐसी नींव रखी थी, जिसकी आंधी में इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार धराशायी हो गई थी। हालांकि अब उसी मैदान से करीब 41 वर्षों बाद ममता बनर्जी ने संयुक्त विपक्ष को एकजुट करने के लिए जिस मुहिम की शुरूआत की है, उसका यह अर्थ हरगिज नहीं लगाया जा सकता कि भाजपा के बागी नेता तथा इतने सारे दल एकजुट होकर हर हाल में मोदी सरकार को उखाड़ ही फैंकेंगे क्योंकि मंच पर एकत्रित होकर नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के विरोध में एक स्वर में आवाज बुलंद करने वाले इन सभी दलों की यह एकजुटता चुनाव तक कितनी बरकरार रह पाती है, यह देखना बेहद दिलचस्प रहेगा। वाम दल तथा उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ममता द्वारा आयोजित महारैली में शामिल नहीं हुए। नवीन पटनायक, चंद्रशेखर राव, मुलायम सिंह, जगन मोहन रेड्डी इत्यादि विपक्षी नेता भी ममता की रैली से दूर रहे। जिस प्रकार कांग्रेस की ओर से सोनिया या राहुल और बसपा की ओर से मायावती द्वारा भी खुद रैली में शामिल न होकर अपना-अपना प्रतिनिधि रैली में भेजकर अप्रत्यक्ष रूप से ममता की रैली से दूरी बनाकर रखी गई, उसके राजनीतिक मायने भी बहुत गहरे हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि ममता खुद प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोये हुए हैं और निश्चित रूप से उन्होंने महारैली में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश इत्यादि विभिन्न प्रदेशों से कई विपक्षी दलों को जुटाकर कांग्रेस और बसपा को यही स्पष्ट संकेत देने की कोशिश की है। निसंदेह ममता का प्रयास यही रहेगा कि अगर वह पश्चिम बंगाल का किला जीतने में सफल रही तो इन्हीं सहयोगियों के बूते वह प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी मजबूत करने का प्रयास करेंगी लेकिन जिस प्रकार ममता को राहुल या मायावती की दावेदारी रास नहीं आ रही, वही हाल इन दोनों दलों में ममता को लेकर भी है। हालांकि कोलकाता के मंच से कुछ पार्टियों के नेताओं ने भाजपा के मुकाबले विरोधी पार्टियों द्वारा हर क्षेत्र से एक-एक संयुक्त उम्मीदवार उतारे जाने पर बल दिया किन्तु यह कितना व्यावहारिक होगा, इसका अनुमान लगा पाना कठिन नहीं है। दरअसल मंच पर जुड़े तमाम दलों में से अधिकांश अपने-अपने राज्यों में अपने-अपने समीकरणों के हिसाब में चुनाव मैदान में कूदेंगे, यह तय है और ऐसे में विपक्षी एकता के दावे कितने कारगर साबित होंगे, इसका आभास इसी से हो जाता है। चुनाव आते-आते अपने-अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के हिसाब से नए-नए क्षेत्रीय गठबंधन बनेंगे भी और टूटेंगे भी, यह भी तय है। वैसे भी भाजपा को किसी भी प्रकार केन्द्रीय सत्ता से बाहर करने के लिए देश में गठबंधन या महागठबंधन बनाने की कवायदें पिछले कुछ वर्षों से चलती रही हैं किन्तु ये कोशिशें कभी सफल नहीं हो सकी। उत्तर प्रदेश में तो गत दिनों सपा-बसपा गठबंधन करते हुए कांग्रेस को किनारे किए जाने से यह आईने की तरह साफ भी हो गया है कि विपक्षी एकता की राह में अभी भी कितने रोड़े हैं। आप और कांग्रेस के बीच मतभेद इतने गहराये हुए हैं कि दोनों ही दल दिल्ली, पंजाब तथा अन्य राज्यों में एक-दूसरे के साथ गठजोड़ न करने की कसमें खा रहे हैं। बिहार तथा मध्य प्रदेश में भी कमोवेश यही हालात हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भी दक्षिण भारत में गैर-भाजपा तथा गैर-कांग्रेसी मोर्चा बनाने के प्रयासों में जुटे हैं। दूसरी ओर राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय दलों को एक साथ जोड़ने के लिए कोलकाता में महारैली करने वाली ममता बनर्जी भी कांग्रेस से दूरी बनाकर रखना चाहती हैं। कोलकाता रैली में अपने भाषण में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने तो यह स्वीकार भी किया कि उनके लिए मंजिल दूर है। उन्होंने शायराना अंदाज में कहा कि मंजिल दूर है, रास्ता कठिन है, फिर भी पहुंचना है, इसलिए दिल मिले ना मिले, हाथ मिलाकर चलो। हालांकि यह कांग्रेस भी बखूबी जानती है कि जब आपस में दिल ही नहीं मिलेंगे तो वो भला कितनी दूर हाथ पकड़कर साथ चल सकेंगे? ऐसे में देखा जाए तो विभिन्न राज्यों में टुकड़ों में बिखरे विपक्षी दलों के चलते यह स्थिति भाजपा के लिए कुल मिलाकर संतोषजनक ही है जबकि देशभर में विपक्षी दलों को एकजुट कर केन्द्र में सत्तासीन होने के ख्वाब देख रही कांग्रेस के लिए स्थिति विकट होती जा रही है क्योंकि महागठबंधन की बात करने वाले कुछ क्षेत्रीय दल अपनी मजबूत पकड़ वाले क्षेत्रों में कांग्रेस के साथ जाने से परहेज कर रहे हैं। भाजपा के लिए इस तरह की परिस्थितियां सुखद इसलिए हो सकती हैं क्योंकि विभिन्न राज्यों में विपक्षी दलों के कई-कई टुकड़ों में बंट जाने से मतों के धु्रवीकरण का सीधा लाभ भाजपा को मिलने के आसार हैं जबकि यही विपक्षी दल अपने क्षेत्रीय दलगत स्वार्थों के चलते महागठबंधन के मूल उद्देश्यों पर कुठाराघात कर कांग्रेस के लिए मुसीबतें बढ़ाने का सबब बन सकते हैं। वैसे महागठबंधन बनाने के लिए भले ही कितने भी प्रयास किए जाते रहे हों पर वास्तविकता के धरातल पर देखा जाए तो समूचे विपक्ष के पास एक भी ऐसा चेहरा नहीं है, जो वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में नरेन्द्र मोदी के कद की बराबरी कर सके। बहरहाल, कोलकाता रैली ममता द्वारा भले ही शक्ति प्रदर्शन करके मतदाताओं को विपक्षी एकता का संकेत देने के उद्देश्य से की गई हो किन्तु विपक्षी एकता की राह आसान नहीं है।

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