आतंकियों से कम नहीं हैं पत्थरबाज

-योगेश कुमार गोयल-

14 फरवरी को घाटी में हुए सबसे बड़े फिदायीन हमले के बाद यह तथ्य सामने आया कि 20 वर्षीय आत्मघाती आतंकी आदिल अहमद डार मार्च 2018 में जैश-ए-मोहम्म्द में शामिल होने से पहले घाटी में एक पत्थरबाज के रूप में सक्रिय था। यह बात भी आईने की तरह साफ हो गई है कि सुरक्षाबलों के लिए घाटी में मुसीबत का सबब बनते रहे ऐसे पत्थरबाज आने वाले समय में देश की सुरक्षा के लिए कितना बड़ा खतरा बन सकते हैं। बाद में 18 फरवरी को जब इस हमले के मास्टर माइंड दो आतंकवादियों को घेरकर सेना उनपर काबू करना चाहती थी, तब भी पत्थरबाज सेना के काम में बाधा बनने की कोशिश करते देखे गये। ऐसे में समय की मांग अब यही है कि घाटी में पत्थरबाजों के साथ भी उतनी ही सख्ती से निपटा जाए, जितना आतंकियों से निपटा जाता है। ऐसे लोग किसी भी लिहाज से आतंकियों से कम नहीं हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2015 से 2017 के बीच घाटी में पत्थरबाजी की 4736 घटनाएं हुई और 11566 सुरक्षाकर्मी पत्थरबाजों की निमर्मता के शिकार होकर घायल हुए थे। 2018 में भी पत्थरबाजी के 759 मामले सामने आए, जिनमें सुरक्षाबलों सहित हजारों लोग गंभीर रूप से घायल हुए। हमें अब भली-भांति समझ लेना होगा कि जिन पत्थरबाजों को हमारे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी या नेतागण अपने ही भटके हुए बच्चे बताकर उनके प्रति सहानुभूति व्यक्त करते रहे हैं, वे कोई भटके हुए बच्चे नहीं हैं।उन्हीं की बदौलत आतंकी घाटी में अपना खूनी खेल खेलने में सफल होते रहे हैं। यही कारण है कि अब देशभर में पत्थरबाजों के खिलाफ भी एक ही स्वर में आवाज उठने लगी। आज जरूरत तो इस बात की भी है कि पत्थरबाजों के पक्ष में आवाज बुलंद करने वालों के साथ भी सख्ती बरती जाए। दरअसल पत्थरबाजों की पैरोकारी के चलते सुरक्षा बलों के हौसले पस्त करने की घृणित कोशिशें लंबे अरसे से होती रही हैं। घाटी में गश्त करते सुरक्षा बलों पर जब-तब पत्थरबाज सुरक्षा बलों के लिए बेहद मुश्किल हालात पैदा करते रहे हैं। पाकपरस्त पत्थरबाज घाटी में आतंकवादियों के लिए कवर का काम करते हैं। जब भी सुरक्षा बल आतंकियों के खिलाफ कोई ऑपरेशन चलाते हैं तो पत्थरबाज सेना की गाडि़यों और जवानों पर डंडों व पत्थरों से ताबड़तोड़ हमले कर आतंकियों को बचकर भाग निकलने में मददगार बनते हैं। घाटी में आम नागरिकों की सुरक्षा के लिए गश्त करते समय भी सेना के जवान प्रतिदिन पत्थरबाजों की निर्दयता के शिकार होते हैं। इन निर्दयी युवाओं को घाटी में जहां भी सेना के वाहन या जवान दिखते हैं, वहीं इनके ऊपर हमले शुरू हो जाते हैं। ऐसे शातिर पत्थरबाज ‘भटके हुए बच्चों’ के नाम पर किसी भी प्रकार की सहानुभूति, दया या रहम के हकदार नहीं हो सकते। कुछ समय पहले पैलेट गन की मार ने पत्थरबाजों की कमर बुरी तरह तोड़ दी गई थी। इनसे सहानुभूति रखने वालों ने पैलेट गन के इस्तेमाल पर बवाल मचाकर इस पर प्रतिबंध लगवा दिया और पत्थरबाजों के हौसले फिर बुलंद हो गए। कितनी हैरत की बात है कि जब 9 अप्रैल 2017 को श्रीनगर के बडगाम में चुनाव ड्यूटी के दौरान पत्थरबाजों की निर्ममता से बचने के लिए मेजर लीतुल गोगोई ने एक पत्थरबाज को अपनी जीप के आगे बांधकर मानव कवच के रूप में इस्तेमाल किया था तो पत्थरबाजों के प्रति सहानुभूति रखने वालों ने देशभर में हंगामा मचा दिया था। जब सेना के जांबाज जवान इन्हीं पत्थरबाजों की निर्दयता के शिकार होते हैं तो पत्थरबाजों के पैरोकारों द्वारा खामोशी का शर्मनाक लबादा ओढ़ लिया जाता है। दरअसल, पीडीपी हो या नेशनल कांफ्रैंस या अन्य कोई क्षेत्रीय दल, इनकी राजनीति का यथार्थ ही आतंकियों और पत्थरबाजों के प्रति हमदर्दी रहा है। यही वजह है कि फारूक अब्दुल्ला हों या उनके बेटे उमर अब्दुल्ला अथवा महूबबा मुफ्ती, ये सभी सदैव पत्थरबाजों के पैरोकार बनकर सामने आए हैं और यही कारण है कि राज्य में सेना और सुरक्षाबलों की तैनाती सदैव ऐसे स्थानीय नेताओं की आंखों में खटकती रही है। आज हर कोई बखूबी जानता है कि पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में आतंकवाद को जीवित रखने के लिए करोड़ों रुपये का फंड रखा जाता है। इसी फंड से इन पत्थरबाजों तथा आतंकी हमले करने वालों के दैनिक मेहनताने का भुगतान किया जाता रहा है। जब निरंकुश पत्थरबाजों के हमलों का जवाब देने के दौरान किसी पत्थरबाज की मौत हो जाती है तो आसमान सिर पर उठा लिया जाता है। जब सेना पर इन पत्थरबाजों के हमले होते हैं तो पत्थरबाजों के विरोध में उठे यही स्वर खामोश हो जाते हैं। यह कश्मीर के राजनेताओं का दोहरा चरित्र ही तो है और पत्थरबाजों को लेकर स्थानीय दलों का हमदर्दी भरा यही रवैया सैन्य बलों के लिए मुसीबत बनता रहा है। तत्कालीन महबूबा सरकार द्वारा तो गत वर्ष न केवल पत्थरबाजी के 1745 मामलों में 9730 युवाओं पर से पत्थरबाजी के केस वापस ले लिए गए थे। पत्थरबाजों पर कार्रवाई करने पर समय-समय पर सुरक्षा बलों पर ही कार्रवाई के घृणित प्रयास भी किए गए। अगर हम दूसरे देशों में पत्थबाजी के ऐसे ही मामलों में बने कानूनों पर नजर डालें तो कई देश ऐसे हैं, जहां पत्थरबाजी के लिए कड़े कानून बने हैं। अमेरिका में ऐसे मामलों के लिए उम्रकैद, इजरायल में 20 साल, न्यूजीलैंड में 14 साल, आस्ट्रेलिया में 5 साल और यूके में 3-5 साल की सजा का प्रावधान है। घाटी में पत्थरबाजों को कई बार सुधरने का अवसर दिया गया और सेना ने उनके प्रति अनेक अवसरों पर नरमी भी दिखाई। फिर भी गत वर्ष मई-जून माह में पूरे रमजान के दौरान, उसके बाद ईद की नमाज के पश्चात्, फिर बकरीद की नमाज के बाद और उसके बाद भी अनेक अवसरों पर पत्थरबाजों ने बार-बार अपना हिंसक और उपद्रवी रूप दिखाकर साबित किया है कि वे किसी भी तरह सुधरने वाले नहीं हैं। दरअसल ऐसे उपद्रवी युवाओं को आतंकी संगठन कुछ पैसों का लालच देकर सनसनी, डर और उत्पात का माहौल पैदा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं और धीरे-धीरे ऐसे ही उपद्रवी तत्व पत्थरबाजी करते-करते आदिल अहमद डार जैसे कुख्यात आतंकी बनकर देश की सुरक्षा के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनकर सामने आते हैं। इसलिए घाटी में आतंकियों की कमर तोड़ने के लिए अब पत्थरबाजों को भी जमींदोज करना ही एकमात्र विकल्प है। अगर पत्थरबाजों के हौंसले पस्त होंगे तो आतंकियों की कमर अपने आप टूट जाएगी। एनआईए की एक रिपोर्ट में गत वर्ष खुलासा हो चुका है कि पाकिस्तान ने 2016-17 में 200 करोड़ की टेरर फंडिंग की थी। इसी फंडिंग का एक बड़ा हिस्सा पत्थरबाजों के लिए मुकर्रर होता है। घाटी में कई जगहों पर तो बाकायदा लाउडस्पीकरों पर घोषणा करके सेना के शिकंजे में फंसे आतंकियों की मदद के लिए युवाओं को उनकी मदद के लिए इकट्ठा किया जाता है। पत्थरबाजों के साथ हमदर्दी रखने वालों को भली-भांति समझ लेना होगा कि आतंकियों के लिए सहानुभूति रखने वाले कट्टर, निरंकुश और निर्दयी पत्थरबाजों का ‘गांधीगिरी’ सरीखी कोशिशों के जरिये हृदय परिवर्तन कदापि संभव नहीं। ऐसे राष्ट्र विरोधी तत्वों से निपटने का एकमात्र तरीका अब यही है कि आतंकियों सहित उनके साथ सहानुभूति रखने वाले लोगों के साथ भी बेहद कड़ाई से निपटा जाए। हालांकि उम्मीद की जानी चाहिए कि पुलवामा हमले के बाद जिस प्रकार सरकार द्वारा सेना को अपने हिसाब से अपने अभियान चलाने की छूट प्रदान की गई है, उससे आतंकियों और उनके समर्थकों पर लगाम कसने में मदद मिलेगी और घाटी में हालात सुधरेंगे।

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