सभी जानते हैं कि हाथी सिंह की अपेक्षा अधिक बलवान जीव है। उसका आकार बड़ा, भारी और बलवान है, परन्तु फिर भी एक अकेला सिंह हाथियों के झुंड को भगाने में समर्थ होता है। शेर की ताकत का रहस्य क्या है? केवल यह कि हाथी अपने शरीर पर भरोसा करता है, जबकि शेर अपनी शक्ति पर भरोसा करता है।
हाथी बनाम शेर
हाथी चालीस-पचास, सौ-सौ या कभी-कभी दो-दो सौ का झुण्ड बनाकर चलते हैं। जब कभी वे विश्राम करते हैं, तो हमेशा एक बलशाली हाथी को पहरेदार के रूप में नियुक्त करते हैं। उन्हें सदा यही डर लगा रहता है कि कहीं शेर उन पर आक्रमण न करे दे। उन्हें मारकर न खा जाए। यदि हाथी को अपनी ताकत पर भरोसा हो, तो वह हजारों शेरों को मार-कुचल सकता है, परन्तु बेचारे हाथी को अपनी अंतरात्मा पर विश्वास नहीं होता, इसलिए उसमें सदा साहस का अभाव बना रहता है। वेदान्त शिक्षा देता है कि स्वयं को नीच, अधम, दुःखी पापी या अभागा नहीं कहना चाहिये। वेदान्त की इच्छा है कि आप अपनी आंतरिक शक्ति पर पूर्ण विश्वास करें। स्वामी रामतीर्थजी कहते हैं:-यदि मुझसे कोई एक शब्द में मेरा तत्त्वज्ञान पूछे, तो मैं कहूंगा कि आत्मनिर्भरता या आत्मबोध। यह सत्य है। सर्वथा सत्य है कि जब आप स्वयं अपनी सहायता करते हैं, तभी परमात्मा भी आपकी सहायता करता है। दैव आपकी सहायता करने के लिये बाध्य हैं, लेकिन केवल तभी जब आप स्वयं पर निर्भर रहें। आप तभी सब कुछ पा सकते हैं। आपके सम्मुख कुछ भी असंभव नहीं है। एक बार दो भाई मुकदमेबाजी में फंसे न्यायाधीश के सम्मुख आए। उनमें से एक बहुत धनवान था, जबकि दूसरा कंगाल। न्यायाधीश ने धनवान भाई से प्रश्न किया, जब तुम इतने धनी हो, तो तुम्हारा भाई निर्धन कैसे हो गया? धनवान व्यक्ति ने उत्तर दिया-पांच वर्ष पहले हमें एक समान पैतृक संपत्ति प्राप्त हुई थी। दो लाख रुपये मेरे हिस्से में आये थे तथा इतने ही मेरे भाई को मिले थे। इसके बाद मेरा भाई स्वयं को धनवान मानकर सुस्त हो गया। उसने सभी कार्य अपने नौकरों को सुपुर्द कर दिया। उसे जब भी कोई काम होता, तो वह अपने नौकरों को बुलाकर कहता-जाओ, यह काम करो, जाओ, वह काम करो। इस प्रकार वह सुख-आराम तथा मौज-मस्ती में समय बिताने लगा।
आत्मनिर्भर बनिये
जब हम दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं तब कहते हैं-जाओ, जाओ। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु दूर चली जाती है, तब हमआत्मनिर्भर बन जाते हैं, तब संसार के सभी पदार्थ हमारी ओर खींचे चले जाते हैं। स्वामीजी कहते हैं- यदि आप अपने को निर्धन, तुच्छ, क्षुद्र, कीट मानते हैं, तो आप वही हो जाएंगे। इसके विपरीत यदि आप आत्मसम्मान की भावना से परिपूर्ण हैं तथा आत्मनिर्भर हो जाते हैं, तो आपको सम्मान तथा यश प्राप्त होता है। स्वयं को दीन हीन दुर्बल भाग्यहीन कभी न समझिए। आप जैसा सोचेंगे, वैसे ही बन जाएंगे। स्वयं को परमेश्वर मानेंगे, तो आप परमेश्वर का रूप बन जाएंगे। स्वयं को स्वाधीन समझेंगे, तो स्वाधीन हो जायेंगे। स्वयं को मुक्त समझेंगे, तो मुक्त हो जाएंगे। जब तक आप बाह्य शक्तियों पर निर्भर रहेंगे, जबतक आप दूसरों पर विश्वास करते रहेंगे, तब तक आपके कार्यों का परिणाम असफलता ही रहेगा। जब आप अंतर्मन में विराजमान ईश्वर पर विश्वास और भरोसा करते हुए शरीर को काम में नियुक्त कर देंगे, तो आपकी सफलता निश्चित हो जायेगी। सत्य में सदैव विश्वास रखिए। अपने इर्द-गिर्द के पदार्थों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कीजिए। अपनी परिस्थितियों का वास्तविक मूल्यांकन कीजिए। उनकी भावनाओं को इतने परिणाम में जान लीजिए कि यह संसार आपके लिये मिथ्या हो जाए। यह एक दिव्य सिद्धांत या प्राकृतिक नियम है कि जब मानव व्यावहारिक रूप में बाह्य वस्तुओं पर भरोसा करता है, तब उसे असफलता का मुंह देखना पड़ता है। यही सिद्धांत है। यही नियम है। स्वयं पर विश्वास कीजिए, स्वयं पर निर्भर होने की आदत बनाइये। फिर देखिये, सफलता कैसे नहीं मिलती। अपने प्रत्येक कार्य को निष्काम, निर्लिप्त भावना से कीजिए। ठीक उसी प्रकार जैसे कोई डाक्टर अपने मरीजों की चिकित्सा करता है तथा बीमारी को अपने पास नहीं आने देता। सब प्रकार की उलझनों व बंधनों से मुक्त हो जाइए। निर्लेप साक्षी की भावना से कार्य कीजिए। स्वाधीन हो जाइए। आत्मनिर्भर हो जाइए।
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