रांची । झारखंड में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के नाम पर जारी संशय का पटाक्षेप हो गया। आलाकमान ने एक पूर्व आइपीएस अधिकारी के हाथों से कमान लेकर दूसरे को सौंप दी है। साथ में पांच कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति कर सियासी गणित साधने की कोशिश की गई है। आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस नेतृत्व ने पूरी कवायद की है और पार्टी में बुरी तरह से जारी घमासान को थामने के लिए डैमेज कंट्रोल के तहत डॉ अजय की बलि दी गई है।
राष्ट्रीय नेतृत्व ने एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की है। झारखंड के बिखरे आदिवासी वोट बैंक को साधने की कोशिश की है, तो दूसरी ओर अपल्संख्यक को अपने पाले में करने की जुगत। झारखंड में कांग्रेस ने एक बार फिर आदिवासी-मुस्लिम समीकरण को आगे बढ़ाया है। साथ ही नये अध्यक्ष की शक्तियों को सीमित करते हुए नये पांच कार्यकारी अध्यक्षों को मनोनीत किया है जिसमें मुस्लिम चेहरे के रुप में इरफान अंसारी, कुर्मी जमात से कमलेश महतो, कायस्थ चेहरे के तौर पर मानस सिन्हा, दलित फेस संजय पासवान और भूमिहार वर्ग को साधने के लिए राजेश ठाकुर को कमान सौंपी गई है।
कांग्रेस के कई कद्दावर नेताओं को पछाड़कर अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने वाले रामेश्वर उरांव पार्टी के लिए आगामी विस चुनाव में सत्ताधारी दल की परेशानी बढ़ा सकते हैं या नहीं यह तो अभी समय के गर्भ में है लेकिन इसमें कोई विवाद नहीं है कि रामेश्वर उरांव झारखंड में कांग्रेस के प्रमुख आदिवासी चेहरा हैं। वह मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। साथ ही केंद्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के चेयरमैन भी रह चुके हैं। मनमोहन सरकार में कई अहम पदों पर रहते हुए रामेश्वर उरांव को आदिवासियों के लिए काम करने का मौका मिला। यही वजह है कि कांग्रेस राज्य के संगठन में मचे घमासान के बीच उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाकर आदिवासियों के बीच पैठ बनाने की कोशिश में है। रामेश्वर उरांव 2004 में लोहरदगा सीट से सांसद रहे। हालांकि 2009 और 2014 के चुनाव में वह भाजपा के सुदर्शन भगत से हार गए थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में उम्र को एक कारण बताते हुए डॉ उरांव का टिकट कटा, लेकिन विधानसभा चुनाव कराने के लिए प्रदेश की कमान मिलने में इनकी बेदाग छवि कई दिग्गजों पर भारी पड़ी।
राजनीति विश्लेषकों की मानें तो रामेश्वर उरांव को कांटों के बीच प्रदेश अध्यक्ष पद का ताज मिला है। इसकी मुख्य वजह यह है कि संगठन दो धड़ों में बटी है। कई मौके ऐसे आए जब दोनों पक्षों के बीच खुलेआम मारपीट भी हुई। कुछ दिनों पूर्व पार्टी के प्रभारी आरपीएन सिंह के सामने ही डॉ अजय और सुबोधकांत के समर्थक आपस में उलझ गए। दरअसल, सुबोधकांत सहाय अजय कुमार का भारी विरोध कर रहे थे। इसके लिए वह दिल्ली जाकर पार्टी हाईकमान से भी अजय कुमार की शिकायत कर चुके थे। चुनाव नजदीक होने पर भी राज्य की इकाई में मचे घमासान से पार्टी नेतृत्व चिंतित थी । आखिरकार अजय कुमार ने मामले की नजाकत को समझते हुए बीते दिनों इस्तीफा दे दिया। इसके बाद पार्टी नेतृत्व ने निर्विवाद आदिवासी चेहरे रामेश्वर उरांव को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का फैसला किया।
डॉ उरांव पर दोहरी जिम्मेवारी है। उन्हें राज्य में हाशिये पर गयी कांग्रेस की जमीन बचानी है इसके साथ ही संगठन को अंतर्कलह से बाहर निकालना भी है। डॉ उरांव के लिए यह रास्ता आसान नहीं होगा। पहले तो डॉ उरांव को अपने घर में मचे घमासान से निपटना होगा वहीं पार्टी की साख को वापस लौटाना होगा, जो बड़ी चुनौती है।
जानकारों की मानें तो कांग्रेस ने झारखंड में नवंबर दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुये आदिवासी कार्ड खेला है। इस बार लोकसभा चुनाव में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में पार्टी की पकड़ मजबूत हुई है। लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस राज्य की 14 में से सात सीटों पर लड़ी थी। इनमें से उसे एकमात्र सिंहभूम सीट पर सफलता मिली थी। यह सीट अनुसूचित जनजाति के लिये सुरक्षित है। दो अन्य सुरक्षित सीटों खूंटी और लोहरदगा में पार्टी बहुत कम वोटों के अंतर से हारी थी। राज्य में विधानसभा की 81 सीटों में 28 आदिवासी सीट हैं। हालांकि 2014 का लोकसभा और विधानसभा चुनाव कांग्रेस सुखदेव भगत के नेतृत्व में ही लड़ी थी। उस चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था। लोकसभा चुनाव में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुला था। जबकि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सात सीटें मिली थी।
2019 लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद से तत्कालीन अध्यक्ष डॉ अजय कुमार के खिलाफ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने मोर्चा खोल दिया था। पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय के समर्थकों ने डॉ अजय को हटाने को लेकर मुहिम चलायी थी। कांग्रेस में आपसी खींचतान और पार्टी के अंदर लगातार भारी विरोध का सामना कर रहे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार ने पिछले दिनों पद से इस्तीफा दे दिया था। डॉ अजय के इस्तीफे के बाद प्रदेश अध्यक्ष की रेस में पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय, पूर्व सांसद प्रदीप कुमार बलमुचू, काली चरण मुंडा,अरुण उरांव, लोहरदगा विधायक और पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत और पार्टी विधायक दल के नेता आलमगीर नेताओं के नाम सामने आये, लेकिन रामेश्वर उरांव के नाम पर अंतिम मुहर लगी।
बहरहाल, राजनीतिक जानकार कहते हैं कि विधानसभा चुनाव को महज तीन माह शेष है। ऐसे में संगठन के दिग्गजों के बीच बढ़ी दूरी को पाटना आसान नहीं होगा। बिखरे साख को वापस लाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी होगी । परिवारवाद से भी पार्टी को उबरना होगा। ऐसे तमाम कमजोर पक्ष से निपटना होगा। तभी कांग्रेस पार्टी विधानसभा में कुछ बेहतर प्रदर्शन कर सकती है।
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