अब आबादी का रजिस्टर

अब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) शुरू होने से पहले ही विवादास्पद हो गया है। यह देश में रहने वाले निवासियों का राष्ट्रीय डाटा तैयार करने की रूटीन कवायद है। इसमें विदेशी भी शामिल किए जाएंगे, जो 6 माह से अधिक समय से एक स्थान पर रहते होंगे या आगामी 6 माह बसने की योजना बना रहे होंगे। आबादी के स्तर पर बदलाव स्वाभाविक हैं, क्योंकि कोई दिवंगत होता है, तो कोई जन्म लेता है, कोई कामकाज के सिलसिले में अपना पुश्तैनी घर, गांव या कस्बा भी छोड़ता है। बदलाव के ऐसे असंख्य आंकड़े सामने कैसे आएंगे या सरकार की जानकारी में कैसे होंगे? बेशक सरकारें और प्रशासन इसी आधार पर योजनाओं और नीतियों के प्रारूप तय करते हैं। एक और गौरतलब तथ्य यह है कि भारत में 3.5 करोड़ से ज्यादा आदिवासी हैं। कुछ भटकी प्रजातियां भी हैं और कुछ हजार सिर्फ गन्ना काटने वाले समुदाय भी हैं। करीब 2 करोड़ भिखारी भी बताए जाते हैं। ये सभी अस्थायी और अस्थिर निवासी हैं। बेशक वे सभी ‘भारतीय’ ही होंगे। योजनाओं और सुविधाओं का लाभ उन्हें भी मिलना चाहिए। आंतरिक सुरक्षा वहां भी एक संवेदनशील समस्या है। तो समय-समय पर उनका हिसाब-किताब क्यों नहीं होना चाहिए? 2003 में तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने एक नियम बनाया था-नागरिकों के पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान कार्ड जारी करना। उसके तहत गांव, कस्बा, तहसील, जिला, राज्य और देश के स्तर पर यह काम किया जाना है। लिहाजा एनपीआर देश के स्वाभाविक निवासियों का रजिस्टर है। इसका पालन यूपीए सरकार ने भी किया। बेशक पायलट प्रोजेक्ट के आधार पर किया गया, लेकिन एनपीआर की प्रक्रिया शुरू की गई। जब आधार कार्ड वाले विभाग ने सवाल उठाए कि आधार और एनपीआर में ‘क्लैश’ संभव है,तो उसके मद्देनजर एक मंत्री-समूह गठित करना तय हुआ। वह समूह बना या लटक गया, इस पर कोई भी पक्ष बोलने को तैयार नहीं और न ही सरकारी वेबसाइट पर अद्यतन जानकारी दी गई है। बहरहाल मोदी सरकार आने के बाद 2015 में एनपीआर की प्रक्रिया को अपडेट किया गया। अब हम 2020 में जा रहे हैं और 2021 में भारत की जनगणना की जानी है। यह हर 10 साल के बाद कानूनन अनिवार्य है। एनपीआर नागरिकता कानून के तहत और जनगणना देश के जनगणना कानून के तहत की जानी है। जाहिर है कि 2015 के बाद स्थितियों और आंकड़ों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। हमारी राष्ट्रीय जनसंख्या का मौजूदा आंकड़ा भी जानना जरूरी है। सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक अनुपात के यथार्थ भी सामने आने चाहिए। सवाल है कि इस विश्लेषण में ऐसी कौन-सी साजिशें छिपी हैं, जिनके मद्देनजर पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार और केरल की वामपंथी सरकार ने एनपीआर की प्रक्रिया लागू करने से इनकार कर दिया है। हालांकि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पंजाब राज्यों के अलावा पुडुचेरी संघ शासित क्षेत्र में कांग्रेस की सरकारें हैं। कांग्रेस महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार में भी शामिल है। इन सरकारों को अभी निर्णय लेना है और कांग्रेस भी आधिकारिक तौर पर खामोश है। एनपीआर की अधिसूचना केंद्र सरकार ने 31 जुलाई, 2019 को जारी की थी। उसके बाद लगभग सभी राज्य सरकारें अधिसूचना जारी कर चुकी हैं। गृहमंत्री अमित शाह और सूचना-प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी इन तथ्यों को स्पष्ट कर चुके हैं। सरकार यह भी स्पष्ट दावा कर रही है कि एनआरसी और एनपीआर में कोई संबंध नहीं है। एनपीआर का डाटाबेस एनआरसी में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। तो ओवैसी सरीखे नेता किस आधार पर यह अफवाह फैला रहे हैं कि एनपीआर ही एनआरसी का पहला कदम है? गृहमंत्री ने एक साक्षात्कार के जरिए भी यह स्पष्ट किया है कि अप्रैल, 2020 से तो देश भर में असम को छोड़ कर मकानों की मैपिंग शुरू होगी। व्यापक स्तर पर कर्मचारियों और अफसरों को प्रशिक्षण दिया जाना है। राज्य उनकी तैनाती तय करेंगे। वे घर-घर तक जाएंगे और सूचनाओं के फॉर्म भरवाएंगे। सरकारी ऐप बनाया जाएगा और उसके विज्ञापन भी किए जाएंगे। यह कवायद कुल डेढ़ साल की है। सवाल इसलिए भी किए जा रहे होंगे कि सरकार के पास पहले से ही विभिन्न कार्डों के जरिए डाटाबेस मौजूद है, तो अब नए सिरे से क्यों किया जा रहा है? इसका जवाब शुरुआत में ही दे दिया गया है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में आबादी के स्तर पर उथल-पुथल जारी रहता है, लिहाजा उसे अपडेट करना जरूरी है। कोई भी पुराना डाटाबेस अधूरा हो सकता है। बहरहाल हम देश के नेताओं से इतना ही अनुरोध कर सकते हैं कि राजनीति के कुछ और मुद्दे खोजिए, लेकिन हिंदू-मुसलमान को साथ-साथ रहने दीजिए।

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