बेगूसराय। कभी एशिया में मीठे पानी की सबसे बड़ा झील रहा काबर अब सिर्फ कागजों पर ही है। दस रामसेट साइट में शामिल यह पक्षी विहार अब पूरी तरह से कृषि विहार में तब्दील हो चुका है। जिस काबर में इस सावन भादो के महीने में नाव को ठेह (पानी का ठिकाना) नहीं मिलता था। उसका काबर में आज पानी के लिए हर कोई बेहाल है। इस धान के कटोरे में अब पानी नहीं, मक्का लहलहा रही है जिसके कारण इलाके के हजारों किसानों के घर खुशी की लहर है। वहीं, साल में छह महीना तक काबर के मालिक माने जाने वाले एक हजार से अधिक मछुआरों के घर शोक फैला है। उनके घर चिंता है कि काबर में पानी है नहीं, नाव चलेगी नहीं और मछली भी नहीं मरेगी, तो उनका परिवार कैसे चलेगा। एक समय था जब काबर की मछली के शौकीन लोग दूर-दूर से आते थे लेकिन आज मछुआरों को भी मछली पकड़ने पर आफत हो गई है। हालत यह है कि गूगल पर काबर झील पक्षी विहार को पढ़कर जब दूर-दूूराज से लोग यहां आते हैं तो उन्हें कहीं झील नजर नहींं आता है। चारों ओर सिर्फ और सिर्फ हरियाली दिख रही है। मक्का की लहराती फसलें दिख रही हैं। बर्बादी की कहानी कहती सूख रही नाव और सूख रहा है मछली रोकने वाला पात दिख रहा है। यहांं दूर-दराज से आने वाले सैलानी हैरान हैं कि एशिया फेमस काबर झील कि क्या दशा हो गई उपेक्षा का दंश झेलते-झेलते। दो घुमक्कड़ के नाम से चर्चित गार्गी और मनीष तथा उनके साथी आत्मानंद कश्यप इसी साल मार्च में यहां आए थे। उस समय पानी कम देख उन लोगों ने सोचा था कि सावन-भादो के समय में आएंगे तो काबर का नजारा खूबसूरत दिखेगा। खूब फोटोग्राफी करके ले जाएंगे तो दुनिया देखेगी लेकिन सितम्बर में यहां आते ही रो पड़े हैं। वे लोग सूख चुके काबर का फोटो लेकर दुनियां को दिखाने वापस लौट गए हैं। 15 हजार हेक्टेयर सेेे अधिक में फैले काबर झील के 15 हेक्टेयर मेंं भी इन लोगों को पानी नहीं दिखा। लहलहाता मक्का और पानी के अभाव में कीचड़ से सरोबार परेशान भैंस बर्बादी की कहानी सुना रही थी। आत्मानंद कश्यप और डॉ रमण झा ने बताया जिस काबर झील का नाम एशिया में फेमस है। बिहार के प्रथम पंचवर्षीय योजना में इसे नहर के माध्यम से बूढ़ी गंडक से भी जोड़ा गया लेकिन बाद के दिनों में उदासीनता और उपेक्षा के कारण आज काबर झील पूरी तरह से बर्बाद हो चुका है। इसके लिए सिर्फ किसी एक को दोष देने से काम नहीं चलेगा। सब को सोचना होगाा, काबर को बचाने के जन आंदोलन के रूप में अभियान चलाना होगा, तभी बचेगा काबर और बची रहेगी हमारी ऐतिहासिक संस्कृति। पानी के अभाव में साइबेरियन पक्षी के प्रवास पर भी प्रश्न चिन्ह ही लग गया है। साइबेरियन पक्षियों के अठखेलियां करने के लिए ना तो पानी है और ना हीं खाने के लिए धान, तो वे रुकेंगे कैसे। काबर घूमनेे के आने वाले लोगों को नाव पर सैैर तथा मछली मार कर परिवार का पालन पोषण कर रहे गोपाल सदा कहतेे हैं कि हम लोगोंं पर आफत आ गई हैं, क्या करें यह समझ सेे बाहर है।
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