- प्रमोद भार्गव
गृहमंत्री अमित शाह के सफल कश्मीर दौरे के बाद लगने लगा है कि घाटी के दिन फिरने जा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर के संबंध में लोकसभा में जो बहस चली और शाह ने बिना लाग-लपेट के जो बेबाकी से बातें कहीं, उनसे साफ हुआ कि नरेंद्र मोदी सरकार फिरकापरस्त अलगाववादियों के दबाव में आए बिना स्पष्ट नीति के तहत कश्मीर समस्या के हल की दिशा में आगे बढ़ रही है। इन्हीं नीतिगत दबावों के चलते संभव हुआ है कि पिछले तीन दशक के इतिहास में केंद्र सरकार के मंत्री प्रतिनिधि के कश्मीर पहुंचने पर अलगाववादियों ने न तो किसी तरह के बंद एवं विरोध प्रदर्शन का ऐलान किया और न ही बच्चों के हाथों में पत्थर थमाकर अपने देश विरोधी मंसूबे को साधने की कोशिश की। अलगाववादियों में यह भावना किसी हृदय परिवर्तन के तहत नहीं आई है बल्कि वे जान गए हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी के सत्ता में रहते हुए घाटी में अब उनके पृथकतावादी हथकंडों की दाल गलने वाली नहीं है। शायद इसीलिए अलगाववादी संगठन हुर्रियत ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के समक्ष बातचीत का प्रस्ताव रखा है। इस प्रस्ताव के रखे जाने और विरोध प्रदर्शन नहीं होने से साफ हुआ है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। अमित शाह ने घाटी की धरती और लोकतंत्र के मंदिर संसद से खुला संदेश दे दिया कि लक्षित हिंसा, पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद और नक्सलवाद किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किए जाएंगे। शाह ने संसद में जो बयान दिया है, उससे भी साफ है कि घाटी में विश्वास बहाली के नाम पर मोदी सरकार ऐसा कुछ नहीं करेगी, जिससे अलगाववादियों को ताकत मिले। इस मंशा को उन्होंने कश्मीर दौरे के समय प्रकट करते हुए कहा कि ‘आतंकियों को विदेश से मिलने वाली आर्थिक मदद रोकने और घुसपैठ-रोधी तंत्र मजबूत करने के साथ ही आतंक और अलगाववादियों के विरुद्ध सख्ती से पेश आने की नीति बहाल रहेगी।‘ शाह ने फिलहाल अलगाववादियों द्वारा राज्यपाल सत्यपाल मलिक को दिए गए प्रस्ताव को भी ठुकरा कर कठोर संदेश दिया है कि मोदी सरकार जल्दबाजी में कोई बातचीत करने नहीं जा रही है। हालांकि इस सिलसिले में मलिक ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि एक तो पूरी वार्ता भारतीय संविधान के दायरे में होगी, दूसरे पाकिस्तान का दखल किसी भी सूरत में मंजूर नहीं होगा। अबतक पृथकतावादी ही नहीं, फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी केंद्र सरकारों पर यह दबाव डालते रहे हैं कि कश्मीर समस्या के निदान के लिए पाकिस्तान को भी पार्टी बनाया जाए। क्योंकि यही दो घाटी के ऐसे परिवार रहे हैं, जो 70 साल से जम्मू-कश्मीर की सत्ता में भागीदार रहते हुए, एक तो यहां की अवाम को निचोड़ते रहे हैं, दूसरे अलगाववादियों को भी किसी न किसी रूप में शह देते रहे हैं। लेकिन पिछली मोदी सरकार द्वारा अलगाववादियों पर शिकंजा कसने और कूटनीतिक सफलताओं के चलते पाकिस्तान पर जो अंतर्राष्ट्रीय दबाव बना, उसके परिणामस्वरूप अब पृथकवादियों की बोलती बंद है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद 919 ऐसे लोगों की सुरक्षा वापस ले ली गई है, जो अलगाव की मंशा पाले हुए पिछले तीन दशकों से घाटी में आतंक और हिंसा को अंजाम दे रहे थे। नतीजतन, स्वर्ग कही जाने वाली इस जमीन पर पिछले 70 सालों में 41,000 से भी ज्यादा लोगों को स्वर्गलोक पहुंचा दिया गया। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जो लोग देश को तोड़ने की पैरवी कर रहे थे, उन्हें न केवल सुरक्षा मिली हुई थी, बल्कि पांचसितारा जीवन जीने की सुविधाएं व संसाधन भी मिले हुए थे। जबकि घाटी में खतरा उन्हें है, जो देश की रक्षा में लगे हैं और देशहित की बात करते हैं। पाकिस्तान भी अब जिस तेज गति से आर्थिक बद्हाली की ओर बढ़ रहा है, इस कारण वहां जो उदारवादी संगठन और पाक को आर्थिक मदद देने वाले देश हैं, वे पाक में सक्रिय चरमपंथियों और हिंसक गिरोहों पर लगाम लगाने के लिए मुखर हो रहे हैं। नतीजतन घाटी में सक्रिय अलगाववादियों को अनुभव होने लगा है कि घाटी में शांतिपूर्वक रहना है तो बातचीत ही एकमात्र विकल्प है। घाटी के हालात सुधारने की दृष्टि से धारा 356 का उपयोग करते हुए जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन की मियाद छह महीने और बढ़ा दी गई। 3 जुलाई 2019 को यह अवधि समाप्त हो रही है। इसे लेकर लोकसभा में सवाल उठाए गए कि इस संवेदनशील राज्य में निर्वाचित सरकार का नहीं होना देशहित में नहीं है। प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान शाह ने इस प्रश्न का तार्किक उत्तर देते हुए कहा कि ‘अबतक 132 बार धारा-356 का उपयोग किया गया है। 132 में से 93 बार कांग्रेस ने ही इसका उपयोग किया है और अब बेवजह हमें नसीहत दे रहे हैं।‘ शाह ने आगे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर निशाना साधते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा जो आज भारत का भाग नहीं है, इसके लिए नेहरू जिम्मेदार हैं। जिसे आज गुलाम कश्मीर या पाक अधिकृत कश्मीर कहा जाता है, वह भारत का हिस्सा है। इतिहास पढ़कर इसे समझा जा सकता है। दरअसल, नेहरू ने कश्मीर विलय का फैसला तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल को नजरअंदाज करके लिया था। यदि पटेल को विश्वास में लिया होता तो यह नौबत आती ही नहीं। कश्मीर विलय के अवसर पर जो शर्ते शेख अब्दुल्ला ने नेहरू के सामने रखी थीं, लगभग वही शर्तें हैदराबाद और जूनागढ़ के नबावों ने भी रखी थीं। नेहरू शेख के दबाव में आ गए और धारा 370 का प्रावधान कर दिया लेकिन पटेल इस तरह के दबाव में नहीं आए। नतीजतन पटेल ने 630 रियासतों का भारत में विलय कराया लेकिन एक भी रियासत को 370 की सुविधा नहीं दी। हालांकि धारा 370 अस्थायी है, बावजूद कश्मीरी मुसलमानों में जितनी भी अलगाव व आतंक की भावना उपजी हैं, वह इसी धारा की देन है। दरअसल, शेख अब्दुल्ला कश्मीर के भारत में विलय के हिमायती नहीं थे। उनका कहना था, ‘हमने कश्मीर का ताज खाक से हासिल किया है। लिहाजा हम हिंदुस्तान में शामिल हों या पाकिस्तान में यह हमारी मर्जी है। इसलिए पहले हम अपनी आजादी सुरक्षित करेंगे।‘ अंत में शेख ने विलय के लिए शर्त रखी कि हम भारत सरकार पर भरोसा नहीं रख सकते, क्योंकि उसमें बहुमत में हिंदु होंगे। इसलिए यदि सरकार कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाना चाहती है तो मुस्लिमों का भरोसा बनाए रखने के लिए संविधान में कश्मीर को विशेष दर्जा दे। इसके तहत कश्मीर का अपना अलग झंडा, सदर-ए-सियासत और संविधान हो। नेहरू ने ऐसा ही करने का वचन शेख को दे दिया। जब संविधान सभा में यह प्रस्ताव लाया गया तो इसका जमकर विरोध हुआ। किंतु नेहरू के वचन के पालन में अंततः यह प्रस्ताव सभा को स्वीकारना पड़ा। हालांकि इसे इस लिखित आश्वासन के साथ सभा ने संविधान में जगह दी कि यह अनुच्छेद अस्थाई है, इसे कुछ समय बाद खारिज कर दिया जाएगा। लेकिन विडंबना यह रही कि 370 और 35-ए जैसे प्रावधानों के चलते अनेक कश्मीरी मुस्लिम यह मानने लगे हैं कि इन प्रावधानों के चलते उन्हें घाटी की धरती पर कई विशेषाधिकार प्राप्त हैं और वे भारत व अन्य भारतीयों से भिन्न हैं। वे कश्मीरियत की बात तो करते हैं लेकिन उसे भारतीयता से अलग मानते हैं। संसद में इसे अमित शाह ने व्यावहरिक ढंग से परिभाषित करते हुए कहा कि इस राज्य में इंसानियत, जम्हूरियत व कश्मीरियत की नीति वर्तमान में भी जारी है। इंसानियत के मायनों के तहत यहां की महिलाओं को शौचालय और धुंए से मुक्ति की सुविधा 70 साल बाद मिली है। जम्हूरियत, मसलन लोकतंत्र की बात है तो यहां पंचायत चुनाव प्रतिबंधित थे, अब 70 साल बाद लोगों को पंचायती सभा में अपनी बात रखने का अधिकार मिला है। यही वास्तव में जम्हूरियत है। यदि हम कश्मीरियत की बात करें तो कश्मीरी पंडितों को यहां फिर से बसाने की बात करनी चाहिए। शाह के संदेश से साफ है कि घाटी केवल मुस्लिमों के लिए नहीं है। आज धारा 370 भारत की एकता और अखंडता के लिए चुनौती बनी हुई है। जब इस अस्थाई धारा को हटाने की बात उठती है तो अलगाववादी ही नहीं, फारूख, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती तक कश्मीर के अलग हो जाने का भय केंद्र सरकार को दिखाने लगते हैं। कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल इनके पक्ष में खड़े हो जाते हैं। महबूबा ने तो लोकसभा चुनाव के ठीक पहले यहां तक कह दिया था कि इस धारा को हटाने की कोशिश हुई तो मालूम नहीं कश्मीरी मुस्लिम कौन-सा झंडा कंधे पर थाम लेंगे। दरअसल इन 70 सालों में केंद्र सरकारों ने घाटी में जम्हूरियत के बहाने सांपों को दूध पिलाने का काम ही किया है, जो अब तक डंसते फिर रहे हैं। किंतु अब इनके फन कुचलने का अनुकूल समय आ गया है।
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