रायपुर। बस्तर के सारकेगुड़ा गांव में मुठभेड़ की जांच के लिए गठित न्यायिक आयोग ने 78 पेज की अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष में कहा है कि कोत्तागुड़ा और राजपेटा में 28-29 जून 2012 की दरम्यानी रात सीआरपीएफ और सुरक्षाबलों की संयुक्त टीम ने जिन 17 लोगों को माओवादी बताकर मार गिराने का दावा किया था ,उनमें से एक भी माओवादी नहीं था।यह एक ऐसा मामला था जिसमें केंद्र में शासित कांग्रेस की प्रमुखता वाली यूपीए सरकार और राज्य की कांग्रेस कमेटी आमने सामने आ गए थे। सारकेगुड़ा मसले को लेकर सीआरपीएफ ने बीस नक्सलियों के मारे जाने का दावा किया था, इस दावे पर तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने तब कहा था ,यह 20 नक्सलियों की नहीं बल्कि 72 जवानों की शहादत का बदला है।पी चिदंबरम इस घटना को फ़र्ज़ी मुठभेड़ मानने को तैयार नहीं थे, जबकि तत्कालीन केंद्रीय मंत्री पी किशोर चंद्र डे ने राज्य कांग्रेस कमेटी का पक्ष लेते हुए केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम से सवाल कर दिया था। पूरे देश में हलचल मचा देने वाली यह घटना तब हुई थीं, तब छत्तीसगढ़ में डाक्टर रमन सिंह की सरकार काबिज थीं. इलाके के मुआयने में गए पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मुठभेड़ को झूठा बताते हुए हुए न्यायिक जांच की की मांग की थी।इस मामले में तब विधान सभा में जमकर हंगामा हुआ था। कांग्रेस ने अपना एक जाँच दल भी घटनास्थल में भेजा था। जब इस मामले में सरकार की खूब फजीहत हुई तब सरकार ने 14 दिसम्बर 2012 को जबलपुर उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश वीके अग्रवाल की अध्यक्षता में आयोग का गठन कर दिया था। सात सालों की मशक्कत के बाद एक सदस्यीय आयोग ने भूपेश सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। सूत्रों के अनुसार आयोग ने अपनी रिपोर्ट इसी महीने के प्रारंभ में ही सौंप दी थी, लेकिन सार्वजनिक नहीं की गई।शनिवार की देर रात कैबिनेट बैठक में सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री रिपोर्ट दबाये रखने पर कड़ी आपत्ति भी ब्यक्त की।
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