रमेश ठाकुर
मनगढ़ंत कहानी हो या फरेब की सियासत, कुछ समय के लिए अपना असर तो जरूर छोड़ती है। लेकिन मियाद खत्म होने के बाद औंधे मुंह धराशाई होते वक्त भी नहीं लगता। तत्काल नहीं, लेकिन झूठ पर सत्य की विजय जरूर होती है। कुछ ऐसा ही समझौता रेल ब्लास्ट की घटना में भी हुआ। करीब 12 वर्ष की लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार ‘भगवा आतंक’ के नाम से देश में फैलाया गया ‘जहर’ उस वक्त फीका पड़ गया, जब घटना में साजिशन संलिप्त किए गए सभी आरोपी बेकसूर साबित हुए। एनआईए कोर्ट ने समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट में अपना अंतिम फैसला सुनाकर आरएसएस के पूर्व प्रचारक स्वामी असीमानंद सहित सभी आरोपियों को बरी कर दिया। देर-सबेर ऐसा होगा, यह सभी को उम्मीद थी। दरअसल, उस घटना की पूरी पटकथा सियासी कलम से लिखी गई थी। केस में सामाजिक हस्तक्षेप न के बराबर हुआ। जांच की पूरी कहानी सीमित दायरे में रखी गई। आरोपियों के पक्ष में खड़े गवाहों की दलीलें तक नहीं सुनी गई। आरोपियों ने बेगुनाही के जो साक्ष्य पेश किए, उन पर गौर नहीं किया गया। लेकिन पिछले कुछ सालों में स्वतंत्र जांच एजेंसियों व अदालतों में निष्पक्षता का माहौल बना तो फैसला समझौता ब्लास्ट के आरोपियों के पक्ष में हुआ। असल में फैसले के बाद हार उन लोगों की हुई जो मौजूदा आतंकी गतिविधियों पर चादर डालकर दूसरा रंग देने की फिराक में थे। लेकिन ऐसी नापाक ताकतें अपने मकसद में कामयाब नहीं हुईं। उनकी प्लानिंग पूरी तरह से एक्सपोज हो गई। बताने की जरूरत नहीं कि आतंकवाद का मजहब नहीं होता, न आतंकियों का ईमान होता है। हालांकि देश के ही कुछ गद्दारों ने साजिशन भगवा आतंक का नाम दिया, लेकिन सफल नहीं हो सके। गौरतलब है कि पाकिस्तान के लिए 18 फरवरी 2007 को दिल्ली से अटारी जा रही सवारी रेलगाड़ी में हरियाणा के दीवाना स्टेशन के पास बम विस्फोट हुआ था, जिसमें चार रेलकर्मियों सहित कुल 68 लोग मारे गए थे। घटना के शिकार ज्यादातर पाकिस्तानी नागरिक हुए थे। तभी से घटना को सियासी और मजहबी रंग दिया गया। उस वक्त आरोप यह लगाया था कि स्वामी असीमानंद और उनके साथियों ने घटना को अंजाम दिया। घटना की आड़ में भगवा आतंक का जहर फैलाया गया। सियायी दलों की सोची-समझी चाल के चलते ‘हिंदू आतंकवाद’ और ‘भगवा आतंक’ का नाम दिया गया। इसके बाद देश का सौहार्द काफी हद तक खराब हुआ। घटना की जांच जब एनआईए के जिम्मे आई, तो उनकी टीम भ्रम का शिकार हो गई। उस दौरान कांग्रेस की हुकूमत थी। इसलिए उस आतंकी कृत्य को भाजपा से संबद्ध रखनेवाले संतों के सिर पर इसलिए मढ़ा गया ताकि पार्टी की छवि खराब हो सके। लेकिन उसी एनआईए ने 12 साल के बाद माना कि हादसे में उन लोगों का कोई लेना-देना नहीं है, जिनका नाम सबसे पहले एफआईआर में दर्ज किया गया था। स्वामी असीमानंद, लोकेश शर्मा, कमल चौहान व राजेंद्र चौधरी को आरोपी बनाया था। भगवा आतंक का नाम देकर स्वामी असीमानंद व अन्य आरोपियों को जान-बूझकर वर्षों जेल में रखा गया। सवाल उठता है, उनके जीवन के इतने महत्वपूर्ण वर्ष जो जेल की काल कोठरी में बर्बाद हुए, उसका हिसाब कौन देगा? कानूनी किताबों की एक प्रचलित कहावत है कि ‘कितने भी गुनहगार क्यों न छूट जाएं, पर किसी बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए’ लेकिन समझौता ब्लास्ट केस में ऐसा ही हुआ। सभी बेगुनाह बिना कुछ किए सालों जेल में सड़ते रहे। असीमानंद इसलिए राजनीति के शिकार हुए थे क्योंकि उस वक्त वह आरएसएस प्रचारक थे। इसलिए मामले पर राजनीतिक रंग चढ़ाया गया था। स्वामी असीमानंद के जन्म का नाम नाबा कुमार सरकार है। संतों की संगत में आने के बाद उनके गुरू स्वामी परमानंद ने उनको स्वामी असीमानंद का नाम दिया। तभी से उनको इसी नाम से जाना जाने लगा। स्वामी असीमानंद बंगाल के हुगली जिले से ताल्लुक रखते हैं। उनका अल्प आयु से ही आरएसएस से जुड़ाव हो गया था। 1977 में उनको संघ प्रचारक बना दिया गया था। कम उम्र में उनको यह उपाधि मिली तो संघ के भीतर भी उनके कई विरोधी बन गए। लेकिन उन्होंने तेजस्वी प्रभाव से अपने पर हावी नहीं होने दिया। अब केस से बरी होने के बाद असीमानंद फिर से अपने पुराने रंग में वापसी की योजना बना रहे हैं। वे एनआईए के खिलाफ मानहानि का दावा और उनके द्वारा प्रताड़ित करने को लेकर कोर्ट भी जाएंगे।
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