राज्यों में भाजपा स्वीकार नहीं

भाजपा झारखंड में भी चुनाव हार गई। एक और महत्त्वपूर्ण राज्य उसकी मुट्ठी से फिसल गया, जिसका गठन 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने किया था। राज्य के इन 19 सालों में से करीब 17 साल भाजपा ने सरकार चलाई है। फिर भी जनता ने करारी पराजय के साथ उसे नकार दिया। ऐसे जनादेश अब चौंकाते नहीं हैं। लोकसभा का जनादेश मई, 2019 में मिला था और 303 सीटों के प्रचंड जनादेश के साथ मोदी सरकार दोबारा आई थी, लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा की किसी भी राज्य में स्पष्ट जीत नहीं हुई है। हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हुआ, बेशक दोनों राज्यों में वह सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की नवजात जजपा के साथ मजबूरन गठबंधन करना पड़ा। चलो, बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया और भाजपा की दोबारा सरकार बन गई। मनोहर लाल खट्टर लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन महाराष्ट्र में तो शिवसेना जैसे सबसे पुराने सहयोगी दल ने ही आंखें दिखा दीं। भाजपा शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से संवाद करके गठबंधन को बचा नहीं सकी। नतीजतन उद्धव आज कांग्रेस और एनसीपी जैसी धुर-विरोधी और विरोधाभासी विचार वाली पार्टियों के साथ गठबंधन कर मुख्यमंत्री बने बैठे हैं। निश्चित तौर पर यह भाजपा के अहंकार की पराजय है। झारखंड ने तो नाक ही कटा दी। खुद मुख्यमंत्री रघुबर दास, तीन कैबिनेट मंत्री, विधानसभा स्पीकर और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष ही चुनाव हार गए, तो उसकी व्याख्या क्या करेंगे? मुख्यमंत्री उस निर्दलीय उम्मीदवार से 15 हजार से ज्यादा वोट से हारे हैं, जो भाजपा का संस्थापक सदस्य रहा। आत्मा से आज भी संघ का प्रचारक है। भाजपा नेतृत्व ने उन्हें बागी क्यों होने दिया? यह प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की 20 रैलियों के ताबड़तोड़ प्रचार, डबल इंजन की सरकार और केंद्र की ज्यादातर योजनाओं का झारखंड में आगाज करने के बावजूद हुआ है। सवाल है कि जो भाजपा करीब 52 फीसदी मतों के साथ, लोकसभा चुनाव के दौरान, 54 विधानसभा सीटों पर बढ़त लिए थी और 14 में से 11 सांसद जीते थे, आज बुरी तरह अस्वीकार क्यों कर दी गई? इन जनादेशों के बाद भाजपा देश की करीब 42 फीसदी आबादी पर काबिज है, जबकि दिसंबर, 2018 के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के जनादेशों से पूर्व यह आंकड़ा करीब 72 फीसदी था। निश्चित है कि भाजपा लगातार सिकुड़ रही है। झारखंड चुनाव से पहले मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 समाप्त करने का ऐतिहासिक बिल संसद से पारित कराया। अयोध्या विवाद पर पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने फैसला राम मंदिर के पक्ष में दिया। करीब 1.5 करोड़ घर बनवा कर गरीबों को दिए गए और विकास के अन्य काम भी किए गए होंगे। उसके बावजूद यह जनादेश चौंकाता है, क्योंकि ‘मोदी है तो मुमकिन है’ की राजनीतिक धारणा और जुमलेबाजी को यह खंडित करता है। झारखंड चुनाव पर सीएए और एनआरसी की छाया भी अपेक्षाकृत कम थी, क्योंकि बिल संसद में तब पारित किया गया, जब चुनाव के दो चरण ही शेष थे। दरअसल हमारे सामने झारखंड संबंधी कुछ सर्वे भी आए हैं। उनका औसत निष्कर्ष यह था कि झारखंड की जनता भाजपाई मुख्यमंत्री रघुबर दास की नीतियों और कार्यशैली से बेहद नाराज थी। वह भाजपा के गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री के प्रयोग से भी नाखुश थी। प्रधानमंत्री मोदी भी इस असंतोष और विरोध को शांत नहीं कर सके। संघ और भाजपा ने भी एकजुटता के साथ चुनाव में काम नहीं किया। दरअसल वे प्रधानमंत्री मोदी को सचेत करना चाहते थे कि सरकार सब कुछ ठीक नहीं कर रही है। बेशक झारखंड संसाधन संपन्न राज्य है, लेकिन प्रति व्यक्ति आय के आधार पर गरीब है। ऐसे राज्य में, जहां 26 फीसदी से अधिक आबादी आदिवासियों की हो और वे एक-तिहाई सीटों पर निर्णायक हों, वहां खनन घोटाले हुए। भाजपा के बड़े आदिवासी नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को पार्टी नेतृत्व ने हाशिए पर रखा। यही नहीं जल, जंगल, जमीन यानी आदिवासियों के स्वाभाविक हकों की अनदेखी कर जमीन अडाणी जैसे समूह को बिजली प्लांट के लिए दी गई और बिजली भी बांग्लादेश के लिए पैदा की जानी है, तो ऐसे मुद्दों पर व्यापक आंदोलन हुए। जाहिर है कि उनका असर भाजपा के खिलाफ  जाना ही था। बहरहाल वजह कई हो सकती हैं, लेकिन यह स्थिति भाजपा के लिए चेतावनी की घंटी है। भाजपा को तुरंत एनडीए की बैठक बुलानी चाहिए और घटक दलों के साथ रिश्तों की नई शुरुआत करनी चाहिए।

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