लेखक — विवेक अत्रे
वर्तमान युग में आधुनिक संसार योग विज्ञान के लाभों को अधिकाधिक स्वीकार कर रहा है। प्रत्येक वर्ष 21 जून को मनाया जाने वाला अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस इस तथ्य का प्रमाण है कि सभी राष्ट्रों में योग के प्रति एक सार्वभौमिक आकर्षण विकसित हुआ है और उसे प्रासंगिक माना जाता है।
विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक उत्कृष्ट पुस्तक, योगी कथामृत के लेखक, श्री श्री परमहंस योगानन्द ने विश्व को योग से सम्बंधित गूढ़ विषयों की शिक्षा प्रदान करने में तथा इस तथ्य को प्रतिपादित करने में, कि योगाभ्यास को केवल पौर्वात्व देशों तक सीमित रखने की आवश्यकता नहीं है, एक प्रमुख भूमिका निभाई है। संयुक्त राज्य अमेरिका के लोग व्यापक रूप से उनकी शिक्षाओं के प्रति अत्यंत ग्रहणशील थे और उन्होंने उनका अनुसरण किया तथा वहाँ से अन्ततः संसार के अन्य क्षेत्रों में उनकी ध्यान-योग की शिक्षाओं का प्रसार हुआ। योगानन्दजी को वर्तमान में पाश्चात्य जगत् में योग के जनक के रूप में पहचाना जाता है।
“योग” का शाब्दिक अर्थ है (ईश्वर के साथ) “मिलन।” सभी सन्त इस तथ्य का समर्थन करते हैं कि परमात्मा के साथ यह मिलन प्रत्येक मनुष्य का स्वाभाविक एवं उच्चतर लक्ष्य है। हमें प्राकृतिक ढंग से उस लक्ष्य की ओर ले जाने वाला योग और उसका मार्ग, अर्थात् ध्यान का अभ्यास, एकमात्र वह उपाय है जिसके द्वारा मनुष्य सर्वशक्तिमान् ईश्वर के साथ समस्वरता का अनुभव कर सकता है।
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आज सम्पूर्ण विश्व के लाखों सामान्य लोगों को यह बोध हो रहा है कि योग केवल शारीरिक व्यायाम ही नहीं है, अपितु वास्तव में योग आंतरिक विजय का एक मार्ग प्रशस्त करता है, जिसके माध्यम से अन्ततः ईश्वर-साक्षात्कार के लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है।
सभी महान् सन्तों के अनुसार जो व्यक्ति अद्वितीय ऋषि पतंजलि द्वारा उनकी पुस्तक में प्रतिपादित अष्टांग योग मार्ग का अनुसरण करता है, वह निश्चय ही अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। श्रीमद्भगवद्गीता में विशेष रूप से क्रियायोग का उल्लेख किया गया है तथा इसके अतिरिक्त उसमें इस बात पर भी बल दिया गया है कि एक योगी महानतम् आध्यात्मिक योद्धा होता है और यदि वह दृढ़तापूर्वक योगाभ्यास को जारी रखता है तो अन्ततः ईश्वर को प्राप्त कर लेगा।
योगानन्दजी ने योग की विशिष्ट शाखा, क्रियायोग, पर प्रकाश डाला और अपनी शिक्षाओं के माध्यम से उन्होंने विश्व को उससे परिचित कराया। क्रियायोग एक सरल मनोदैहिक पद्धति है, जिसके द्वारा मनुष्य का रक्त कार्बनरहित हो जाता है और ऑक्सीजन से पूर्ण हो जाता है। परन्तु क्रियायोग का सच्चा लाभ उसके आध्यात्मिक महत्व में निहित है, क्योंकि नियमित रूप से इसका अभ्यास करने वाला व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर तीव्र गति से प्रगति करता है।
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योगानन्दजी के महान् गुरू, स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि, ने अपने युवा शिष्य को एक “जगद्गुरू” की भूमिका निभाने के लिए तैयार करने में सहायता प्रदान की थी। श्रीयुक्तेश्वरजी को उनके गुरू लाहिड़ी महाशय ने क्रियायोग की दीक्षा प्रदान की थी। लाहिड़ी महाशय की अपने अमर गुरू महावतार बाबाजी के साथ चमत्कारपूर्ण, प्रेरणादायक, और नाटकीय भेंट का वर्णन योगी कथामृत में अत्यंत सजीव ढंग से किया गया है।
उस महत्वपूर्ण भेंट के दौरान, बाबाजी ने अपने अग्रगण्य शिष्य को अंधकारमय युगों में विलुप्त क्रियायोग के प्राचीन विज्ञान को पुनर्जीवित करने के लिए तैयार किया। बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय को सभी निष्ठावान् भक्तों को क्रियायोग की दीक्षा प्रदान करने की भी अनुमति प्रदान की थी। योगानन्दजी द्वारा सौ वर्षों से भी अधिक पूर्व स्थापित संस्थाओं, सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप और योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के तत्वावधान में वह परम्परा अभी भी जारी है।
योगानन्दजी द्वारा उनकी पुस्तक, योगी कथामृत, में लिखी गई ये अंतिम पंक्तियाँ हमें क्रियायोग के मार्ग का निष्ठापूर्वक अभ्यास करने हेतु स्मरणीय प्रेरणा प्रदान करती हैं : “पृथ्वी पर तेजस्वी रत्नों की भाँति चतुर्दिक बिखरे क्रियायोगियों को प्रेम की तरंगें भेजते हुए मैं कृतज्ञ भाव से प्रायः सोचता हूँ : ‘भगवन्! आपने इस संन्यासी को इतना बड़ा परिवार दिया है!’” अधिक जानकारी: yssi.org
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