झूठ, हिंसा और भय पर खड़ा भारत

-डा. अजय खेमरिया-

वे देश के इतिहास, संस्कृति, कला, साहित्य, पत्रकारिता और अन्य सभी बौद्धिक क्षेत्रों में एकाधिकार के स्वामी थे। सरकारी सुविधाओं पर टिके ये वामपंथी बुद्धिजीवी  वर्ष 2014 के बाद से छटपटा रहे है। बहुलतावाद, विविधता और साझा विरासत के नाम पर जो विकृत इतिहास इन बुद्धिजीवियों ने हमारे मन मस्तिष्क में भरा उसे आज का नया भारत खारिज करना सीख गया है। इस पुण्यभूमि के सनातन मान बिंदुओं को कमतर और अपमानित करके जिस अल्पसंख्यकवाद को इन विचारकों ने भारतीय शासन और राजनीति में स्थापित किया था उसे आज नए भारत ने अपनी गौरवशाली सनातन अस्मिता के साथ विसर्जित कर दिया है। सत्ता की बैसाखियों पर टिके इस भारत विरोधी वर्ग का असली चेहरा आजकल हमें देश की सड़कों पर दिखाई दे रहा है। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की आड़ में जिस हिंसात्मक आचरण को हवा भारत के इन वाममार्गी बुद्धिजीवियों ने दी है इसे समझने के लिए हमें इनके सुविधाभोगी चरित्र को भी खंगालने की जरूरत है। रामचंद्र गुहा और अन्य लेखकों को विरोध प्रदर्शन करते समय पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया इसे लेकर वामपंथी विचारक और समर्थक सरकार को गरिया रहे हैं। इस बीच सोशल मीडिया पर ऐसे तमाम वीडियो जारी हुए हैं जिनमें नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों ने हिंसक रुख अख्तियार करते हुए पुलिसकर्मियों पर खूनी हमले किए है। सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुचाया है, लेकिन किसी वामपंथी और जनवादी लेखक ने इस तरह के हिंसक कृत्यों की कोई निंदा नही की है। सवाल उठता है कि क्या देश का वाममार्गी बौद्धिक वर्ग आज सत्ताच्युत होते ही भारत के विरुद्ध खड़ा हो गया है। जनवाद की आड़ में आज भारत के राष्ट्रीय विचार से हद दर्जे तक खिलवाड़ किया जा रहा है। नागरिकता संशोधन कानून से भारत के किसी मुसलमान को कोई कानूनी संकट नही आने वाला है। यह वैधानिक रूप से तथ्य है और देश के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री संसद से लेकर हर लोकमंच पर इसे स्पष्ट कर चुके हैं। इसके बावजूद भारत की जनता खासकर मुस्लिम भाइयों को लगातार गुमराह किया जा रहा है। उन्हें उसी बौद्धिक नजरिए से भयादोहित किया जा रहा है जिसके जरिए 70 सालों से अल्पसंख्यकवाद की राजनीतिक दुकान को चलाया गया है। हिटलर और नाजिज्म के उदय की डरावनी दलीलें खड़ी की जा रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि बौद्धिक रूप से असली नाजिज्म का अबलंबन तो भारत के वाममार्गी कर रहे है। एक कपोल काल्पनिक झूठ को लोकजीवन में न्यस्त राजनीतिक स्वार्थों के लिए खड़ा कर दिया गया है। जो एनआरसी अभी प्रस्तावित ही नहीं है उसका पूरा मनगढंत खाका बनाकर पेश कर दिया गया है। इतिहास की भारत विरोधी ऋचाएं गढ़ने वाले ये बुद्धिजीवी असल में अपने असली चरित्र पर आ गए हैं उनकी अपनी नाजिज्म मानसिकिता आज सबके सामने आ गई है, जो किसी भी सूरत में अन्य  दूसरे विचार को स्वीकार नहीं करती है। इसके लिए वह झूठ, हिंसा सबको जायज मानती है। बहुलतावाद के यह वकील सच मायनों में नाजिज्म के अलमबरदार  खुद ही है। इन्हें भारत की संसदीय व्यवस्था  तक में भरोसा नहीं है वे इस बात को आज भी स्वीकार नहीं कर पा रहे है कि भारत की जनता ने एक विहित संवैधानिक प्रक्रिया के तहत नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री चुना है। वे आज भी मानने को तैयार नहीं है कि उनकी भारत विरोधी और अल्पसंख्यकवादी राजनीतिक दलीलों को नया भारत खारिज कर चुका है। वरन क्या कारण है कि रामचंद्र गुहा, मुन्नवर राणा, हर्ष मंदर, रोमिला थापर, अरुणा राय, भाषा सिंह, विनोद दुआ, रवीश कुमार, विनोद शर्मा, अभिसार शर्मा, आशुतोष, अभय दुबे, प्रो. आनन्द कुमार, योगेंद्र यादव, अपूर्वानन्द जैसे लोग एक नकली नैरेटिव देश में सेट करने की कोशिशें कर रहे हैं। क्यों भारत के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की बातों को सुना नही जा रहा है क्यों देश की सर्वोच्च अदालत के रुख को समझने के लिए यह वर्ग तैयार नही है। हकीकत की इबारत असल में कुछ और  ही है। नए भारत का विचार  इस बड़े सत्ता पोषित तबके के अस्तित्व पर चोट कर रहा है। जिस भारतीय शासन और राजनीति का केंद्रीय तत्त्व ही अल्पसंख्यकवाद रहा हो आज वह तत्त्व तिरोहित हो चुका है। इसके साथ ही हिंदुत्व की बात और इसके संपुष्टि के कार्य जब देश के शीर्ष शासन में अब नियमित हो गए है तब इस डराने और दबाने की सियासत का पिंडदान तय है। इसी डर ने देश भर के वाममार्ग को आज खुद अंदर से भयादोहित कर रखा है अपनी दुकानों को बचाने की कवायद में यह बुद्धिजीवी भारत के मुसलमानों को एक उपकरणों की तरह प्रयोग कर रहे है। याद कीजिए यूपीए के कार्यकाल में एक बिल लाया गया था। साम्प्रदयिक लक्षित हिंसा निरोधक कानून इसे हर्ष मन्दर जैसे जनवादी बुद्धिजीवियों ने सोनिया गांधी की सरपरस्ती में बनाया था। इस बिल का मसौदा हिंदुओ को घोषित रूप से सांप्रदायिक रूप से हिंसक साबित करता था। इसके प्रावधान अंग्रेजी राज से भी कठोर होकर हिंदुओं और मुसलमान को स्थायी रूप से प्रतिक्रियावादी बनाने वाले थे। तब भारत की बहुलता इसलिए खतरे में नहीं दिखी क्योंकि इसे बनाने वाले हर्ष मन्दर जैसे चेहरे थे। आज यही हर्ष मन्दर नागरिकता बिल पर खुद को मुसलमान क्यों घोषित करना चाहते थे इसे आसानी से समझा जा सकता है। पूरे देश में सिर्फ मुस्लिम बहुल इलाकों और शैक्षणिक संस्थानों में नफरत की राजनीति क्यों की जा रही है सिर्फ  इसलिए ताकि भारत की 20 करोड़ से ज्यादा की आबादी को सरकार के विरुद्ध हिंसक विरोध के लिए उकसाया जाए क्योंकि तीन तलाक, राम मंदिर और 370 पर इस मुल्क में जो भाईचारा और अमन चैन नए भारत ने दिखाया है उसने सत्ता पोषित विभाजनकारी ब्रिगेड को बेचैन कर रखा था। यह भी एक तथ्य है कि सरकार के स्तर पर भी इस मामले में संचार और संवाद पर कुछ कमी रह गई है। गृह मंत्री के रूप में 370 और राम मंदिर निर्णय पर अमित शाह ने जिस सख्ती और सतत निगरानी से देश मे अमन चैन बनाए रखा उसकी निरंतरता इस मामले में चूक गई है। यह सुगठित और सुनियोजित हिंसक विरोध असल में इन्ही सब मामलों में भारतीय लोक जीवन में दिखे अमन चैन  की  वामपंथ प्रतिक्रिया का नमूना ही है। इस पूरे मामले में गांधी और संविधान की दुहाई दी जा रही है। विरोध प्रदर्शन को तार्किक साबित करने के लिए, लेकिन गांधी विचार में राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की अनुमति किसने दी है यह भी विचार करने योग्य है। आज राजनीतिक रूप से भले केंद्र सरकार के विरुद्ध एक मोर्चा हमें नजर आ रहा है, लेकिन इस मोर्चाबंदी का एक अदृश्य पहलू शायद अभी भी लोग देख नहीं पा रहे है वह नया भारत है। इस नए भारत को कांग्रेस नेता के एंटोनी 2014 में हुई पार्टी की पराजय पर पकड़ कर चुके हैं। एके एंटोनी कमेटी ने कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के लिए अल्पसंख्यकवाद को सबसे बड़ा फैक्टर बताया था। जेएनयू जाकर राहुल गांधी ने इसी गलती को दोहराया था और अब उनकी बहन इंडिया गेट पर धरना देकर जामिया को समर्थन नही कर रही है बल्कि नए भारत से आंखें फेर रही है। इस तथ्य को अनदेखा कर की एक समावेशी कांग्रेस भारत के संसदीय लोकतंत्र की  अनिवार्यता है। कांग्रेस और वामपंथी मिलकर भारत के मुसलमानों को लोकजीवन से दरकिनार करने के पाप में जुटे है। यह उनका नकली बहुलतावाद है। बेहतर होगा भारत के मुस्लिम इसे जल्द से जल्द समझ लें।

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