विडंबना है कि बीते पांच दिनों से देश के तमाम मुद्दे नेपथ्य में डाल दिए गए हैं। सिर्फ नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी के खिलाफ हिंसक और आक्रोशी प्रदर्शन ही सुर्खियों में हैं। चूंकि वही देश का प्रमुख घटनाक्रम है, लिहाजा उसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। देश की कई समस्याएं दबी पड़ी हैं, कुछ विश्वविद्यालयों को परीक्षाएं रद्द करनी पड़ी हैं, सड़कों पर सिर्फ उद्वेलित जनसैलाब है, इंटरनेट, मोबाइल सेवाएं बंद हैं, मानो आदमी गूंगा-बहरा और दिव्यांग हो गया है! इस आग में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह मांग करके घी डालने का काम किया है कि सीएए पर जनमत संग्रह संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में करा लिया जाए। यदि इसमें भाजपा विफल रहती है, तो उसे केंद्रीय सत्ता से इस्तीफा देना होगा। ममता बनर्जी ने इस समस्या के अंतरराष्ट्रीय आयाम खोल दिए हैं। यह कहकर उन्होंने एक ही झटके में केंद्रीय कैबिनेट, संसद और राष्ट्रपति की संवैधानिक हैसियत को धूल-धूसरित कर दिया है। वह खुद केंद्रीय मंत्री और सांसद रही हैं। क्या फिर भी इन संवैधानिक संस्थाओं को नकारेंगी? बेशक भारत संयुक्त राष्ट्र का एक सदस्य-देश है, लेकिन हम एक संप्रभु, स्वतंत्र और संवैधानिक देश भी हैं। हम अपने आंतरिक मामलों को सुलझाने में सक्षम हैं। संसद का संयोजन जनता द्वारा चुने गए सांसदों से ही होता है, लिहाजा संसद कोई भवन मात्र नहीं है, बल्कि एक जीवंत, लोकतांत्रिक संस्था है। सीएए का रूप धारण करने से पहले बिल के रूप में घंटों सांसदों ने तीखी और परस्पर-विरोधी बहस की है और अंततः स्पष्ट बहुमत के साथ इस बिल को पारित किया गया है। इस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद वह कानून बना है। जो नागरिक, वकील, राजनीतिक शख्स कानून बनने से नाराज हैं, इसे असंवैधानिक मान रहे हैं, तय परंपरा के मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय के सामने है। तो फिर सड़कों पर पथराव, बोतलों, आगजनी आदि का ‘वीभत्स तांडव’ क्यों किया जा रहा है? दो पक्षों की दो भाषाएं स्पष्ट बोली जा रही हैं। वामपंथी और उनके सहोदर दल सिर्फ मुसलमानों के पैरोकार हैं। देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बार-बार स्पष्ट करके बता चुके हैं कि सीएए से किसी भी धर्म का भारतीय नागरिक प्रभावित नहीं होगा। मीडिया में सरकार ने विज्ञापन छापने के बाद आज सवाल-जवाब शैली में खबरें भी छपवाई हैं। आखिर उस पगलाई भीड़ को भरोसा कैसे दिलाएं? यदि एक घोर लोकतंत्र में जनता के चुने हुए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर भरोसा नहीं है, तो फिर आपका विवेक सवालिया है। यह सवाल ‘ममता दी’ से भी है। आखिर भारत के आंतरिक मामले में ‘तीसरी ताकत’ को घुसने की इजाजत क्यों दी जाए? कश्मीर में जनमत संग्रह का विरोध किया जाता है और एक कानून पर हम जनमत संग्रह को तैयार हो जाएं। यह कैसे संभव है? यह हमारे संप्रभु राष्ट्र का अपमान है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी राष्ट्रीय क्षमताओं पर सवाल भी किए जाएंगे कि भारत अपने आंतरिक मामले तो सुलझा नहीं सकता। बहरहाल ममता देश विरोधी बयान दें अथवा पाकिस्तान की भाषा बोलें, लेकिन उनके बयान को खारिज किया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र भी भारत के संदर्भ में हमारी संसद और संप्रभुता से ऊपर नहीं है। अच्छा किया विदेश मंत्रालय ने ममता बनर्जी की मांग का तुरंत जवाब देते हुए उसे खारिज कर दिया। बीते कल गुरुवार,19 दिसंबर को भाजपा शासित छह राज्यों समेत 11 प्रदेशों में विरोध-प्रदर्शन किए गए। 5000 से ज्यादा प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया, लेकिन सबसे भयानक दृश्य उत्तर प्रदेश के थे, जहां की राजधानी लखनऊ में ही 23 मोटरसाइकिल, 10 कारें, 3 बसें, 4 ओबी वैन और 2 पुलिस चौकियां फूंक दी गईं। ऐसा तब हुआ, जब बीती 8 नवंबर से पूरे उत्तर प्रदेश में धारा 144 लागू है। देश की राजधानी दिल्ली में कुछ बड़े नेता हिरासत में लिए गए, लेकिन 19 मेट्रो स्टेशन कई घंटों तक बंद करने पड़े। स्टाफ के समयानुसार न पहुंच पाने के कारण इंडिगो की 19 उड़ानें रद्द करनी पड़ीं और 16 उड़ानें लेट हुईं। कई जगह इंटरनेट, मोबाइल बंद किए गए। ऐसा एहसास होता रहा मानो हम अब भी पाषाणकाल में जी रहे हैं। अभी तक समझ में नहीं आ रहा है कि इस समस्या का हल क्या होना चाहिए?
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