गोवा में प्रमोद सावंत की चुनौतियां

योगेश कुमार गोयल

गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के निधन के चंद घंटों बाद रातोंरात पार्टी के युवा नेता और तत्कालीन विधानसभाध्यक्ष प्रमोद सावंत को मुख्यमंत्री बनाकर और उसके बाद विधानसभा में बहुमत साबित कर भाजपा ने नेतृत्व को लेकर मंडराता संकट तो फिलहाल बखूबी सुलझा लिया है। लेकिन इससे पार्टी की चुनौतियां खत्म नहीं हुई हैं। 40 सदस्यीय गोवा विधानसभा में पर्रिकर के निधन के बाद 36 विधायक बचे हैं। अक्टूबर 2018 में कांग्रेस के दो विधायकों ने इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था, जबकि पूर्व उपमुख्यमंत्री तथा भाजपा विधायक फ्रांसिस डिसूजा का निधन हो गया था। अब पर्रिकर के निधन के बाद सदस्यों की संख्या घटकर 36 रह गई है। ऐसे में पार्टी को बहुमत के लिए 19 के आंकड़े की जरूरत थी। लेकिन जिस प्रकार कांग्रेस, एनसीपी के 15 मतों के मुकाबले भाजपा को 20 मत मिले, उससे एक बार भले ही उसका संकट टल गया है किन्तु आने वाले दिनों में उसकी चुनौतियां बढ़ने वाली हैं। दरअसल भाजपा के पास अपने कुल 12 विधायक हैं, जिनमें से स्पीकर मतदान में हिस्सा नहीं ले सकते। पार्टी को सरकार बनाने के लिए गोवा फॉरवर्ड पार्टी (जीएफपी) के तीन विधायकों, महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) के तीन तथा तीन निर्दलीय विधायकों के समर्थन की सख्त जरूरत थी। इसीलिए भाजपा को दोनों सहयोगी पार्टियों के प्रमुखों को उपमुख्यमंत्री बनाने पर विवश होना पड़ा। सरकार बनाने की एवज में इस छोटे से राज्य को दो-दो उपमुख्यमंत्री तथा सहयोगी दलों के कुछ विधायकों को मंत्रीपद देने पड़े हैं। बता दें कि सिर्फ 36 सदस्यीय गोवा विधानसभा में मंत्रिपरिषद में अब कुल 12 मंत्री हो गए हैं। स्कूटी वाले सीएम के रूप में जाने जाते रहे मनोहर पर्रिकर के देहांत के बाद राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू होने की आशंकाएं बलवती होने लगी थी। भाजपा के भीतर ही नेतृत्व को लेकर गंभीर सवाल उठ रहे थे। कुछ सहयोगी दल ऐसे थे, जो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आने के बाद भी केवल पर्रिकर के नाम पर ही भाजपा को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने आगे आए थे। पर्रिकर के निधन के बाद एमजीपी के सुदिन धवलीकर मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल हुए थे, किन्तु बताया जाता है कि भाजपा मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी छोटे दल को सौंपने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं हुई और धवलीकर तथा जीएफपी के विजय सरदेसाई दोनों को मनाकर उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाकर अपनी सरकार बचाने में सफल रही। तीन खाली हुई विधानसभा सीटों पर 23 अप्रैल को उपचुनाव होने हैं। उसके नतीजे 23 मई को आएंगे। ये नतीजे भी गोवा की राजनीतिक स्थिरता का फैसला करने में अहम भूमिका निभाएंगे। फिलहाल भले ही प्रमोद सावंत को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा अपनी सरकार बचाने में सफल रही है। लेकिन सही मायनों में सावंत को चुनौतियों के नए दौर में मुख्यमंत्री पद के रूप में कांटों भरा ऐसा ताज मिला है, जिसे संजोकर रखना उनके लिए इतना सहज नहीं होगा। 2017 के चुनाव में कांग्रेस को 17 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा सिर्फ 13 सीटें ही जीत सकी थी। लेकिन अगर वह उसके बावजूद राज्य में अपनी सरकार बनाने में सफल हुई थी तो वह सब मनोहर पर्रिकर की शख्सियत की बदौलत ही था। उन्हीं के नाम पर क्षेत्रीय दल भाजपा को समर्थन देने को सहमत हुए थे। इसके लिए देश के रक्षामंत्री पद से मुक्त कर पर्रिकर को गोवा का मुख्यमंत्री बनाना पड़ा था। हालांकि सावंत भी पर्रिकर की ही भांति आम आदमी की छवि वाले शिक्षित और विनम्र शख्स माने जाते रहे हैं। पर्रिकर ही उन्हें राजनीति में लाए थे और उन्होंने ही सावंत को गोवा विधानसभा का अध्यक्ष बनाया था। कुल 12 लाख की आबादी वाले गोवा राज्य की राजनीति को ध्यान से देखें तो गोवा विधानसभा अस्थिरता का रिकॉर्ड स्थापित करती रही है। ऐसे में मुख्यमंत्री पद पर नजरें गड़ाये सहयोगी दलों को साथ लेकर संतुलन बनाए रखना सावंत के लिए इतना आसान नहीं होगा। दो बार विधायक बन चुके सावंत कभी आयुर्वेद चिकित्सक के रूप में कार्य किया करते थे। वह करीब 11 साल पहले ही सक्रिय राजनीति में आए थे। उन्हें पर्रिकर की ही बदौलत देश के सबसे कम उम्र के विधानसभाध्यक्ष बनने का गौरव हासिल हुआ था। लेकिन इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि सहयोगी दलों के जिन दो दिग्गजों को भाजपा की सरकार बनाने की एवज में उपमुख्यमंत्री पद देकर समर्थन लिया गया है, वे राजनीतिक अनुभव के मामले में सावंत से बहुत आगे हैं। ऐसे में छोटी-मोटी खटपट के चलते ही मौजूदा सरकार के अस्तित्व पर खतरा मंडराने की आशंकाएं हर कदम पर बरकरार रहेंगी। यह तथ्य भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि गोवा वह राज्य है, जो अपनी राजनीतिक अस्थिरता के लिए चर्चित रहा है। जहां जनता के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय होने के बावजूद पर्रिकर जैसी शख्सियत भी कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। ऐसे माहौल में पर्रिकर की इस राजनीतिक विरासत को संभालते हुए गोवा के विकास के लिए जनहित से जुड़े फैसले सर्वसम्मति से लेना सावंत के लिए कितना कठिन होने वाला है, इसका अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। फिलहाल स्थिति यही है कि सहयोगी दल जिन परिस्थितियों में सावंत के नेतृत्व में भाजपा सरकार को अपना समर्थन दे रहे हैं, वे अपनी हर प्रकार की मांगें मनवाने के लिए कदम-कदम पर दबाव की राजनीति का इस्तेमाल अवश्य करेंगे। ऐसे में स्पष्ट है कि सावंत की राह में कांटे ही कांटे बिछे हैं, जिस पर उन्हें हर कदम संभालकर रखना होगा। इन हालातों में उपमुख्यमंत्रियों तथा सहयोगी मंत्रियों पर नजर रखते हुए गोवा को विकास के पथ पर अग्रसर रखने के लिए अपनी शर्तों पर फैसले लेना उनके लिए संभव नहीं होगा। बहरहाल, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार के भीतर और बाहर उत्पन्न होने वाली तमाम चुनौतियों से सावंत किस प्रकार निपटेंगे और पर्रिकर की बीमारी के दौरान बेलगाम हुई नौकरशाही की लगाम कसने में किस हद तक सफल होंगे। राज्य की 38 फीसदी ईसाई अल्पसंख्यक आबादी को साथ लेकर चलना, खनन माफियाओं पर नियंत्रण करना और कैसिनो जैसे अवरोधों से पार पाना भी सावंत के लिए बड़ी चुनौती है।

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