-हीरा दत्त शर्मा-
हिमाचल प्रदेश के स्कूलों में अगले शैक्षणिक सत्र से विद्यार्थी योग, संगीत के साथ-साथ शह-मात का खेल शतरंज खेलते नजर आएंगे। शिक्षा विभाग पहली बार पहली से आठवीं कक्षा तक योग, संगीत और शतरंज विषय के रूप में शुरू करने जा रहा है। वैसे भी स्कूलों में योग शिक्षा को विषय के तौर पर शुरू करने के लिए भाजपा के चुनावी दृष्टि पत्र में किए गए वादे को सरकार पूरा करने जा रही है। ऐसा सुनने में आया है कि इन तीनों विषयों का पाठ्यक्रम एससीआरटी के विशेषज्ञों द्वारा पूरी तरह से तैयार किया जा चुका है। वैसे अगले शैक्षणिक सत्र से पहली से पांचवीं कक्षा तक एनसीईआरटी की किताबों से पढ़ाई शुरू होगी। पाठ्यक्रम में शामिल किए जा रहे इन योग, संगीत और शतरंज विषयों की हर सप्ताह दो-दो कक्षाएं लगेंगी। वैसे भी केंद्र सरकार एनसीएफ 2005 एवं यशपाल कमेटी की सिफारिशों पर आधारित सुझावों को अमल में ला रही है। इसके अंतर्गत अगले शिक्षण सत्र से 10 से 15 प्रतिशत वर्तमान के पाठ्यक्रम को कम कर दिया जाएगा। पाठ्यक्रम को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए शिक्षा विभाग प्रयत्नशील लग रहा है। बच्चों पर पढ़ाई का बोझ न पड़े इसके लिए यह व्यवस्था की जा रही है। प्रारंभिक कक्षाओं में इन विषयों के बारे में सिर्फ समझाया जाएगा। कक्षा वार के लिए पाठ्यक्रम तैयार कर बड़ी कक्षाओं में पहुंचने तक विद्यार्थियों को इन विषयों में निपुण बनाया जाएगा। इन तीनों नए विषयों की परीक्षाएं भी होंगी। पाठ्यक्रम में योग, संगीत और शतरंज के इतिहास, वर्तमान सहित इन क्षेत्रों में ख्याति हासिल करने वालों व्यक्तियों की भी जानकारी दी जाएगी। इन विषयों को पढ़ाने के लिए शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाएगा। वैसे हमारे प्रदेश में हजारों बेरोजगार प्रशिक्षित युवा इन विषयों में डिग्री-डिप्लोमा प्राप्त किए हुए हैं और प्रदेश सरकार चाहे तो इन विषयों को पढ़ाने और सिखाने के लिए ऐसे ही बेरोजगार प्रशिक्षित युवाओं को नियुक्त करके उन्हें रोजगार के अवसर उपलब्ध करवा सकती है। वैसे छठी से आठवीं कक्षा तक वर्तमान में योग और हिमाचल की संस्कृति विषय पढ़ाया जा रहा है। योग शिक्षा को पहली से लेकर आठवीं तक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का प्रदेश सरकार का निर्णय निस्संदेह सराहनीय एवं दूरगामी सकारात्मक प्रभाव वाला कदम है। प्रदेश के स्कूलों के बच्चे अब योग शिक्षा के साथ-साथ नैतिक मूल्यों व संस्कृति का पाठ भी पढ़ेंगे। आज के आधुनिक भौतिकतावादी युग की चकाचौंध में नैतिक मूल्यों का निरंतर हनन हो रहा है, जबकि शिक्षा का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण एवं नैतिक मूल्यों का विकास करना होता है। आज स्कूलों में प्रचलित पाठ्यक्रम केवल ज्ञानात्मक विकास ही प्रदान करता प्रतीत हो रहा है, जबकि किसी व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए ज्ञानात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक एवं आत्मिक विकास आवश्यक होता है। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में नैतिक शिक्षा आवश्यक है। यदि हम इतिहास के पन्नों पर दृष्टि डालें, तो भारत में अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत की शिक्षा व्यवस्था भारतीय संस्कृति के आदर्श, मूल्य और विचारों पर आधारित थी, किंतु अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा व्यवस्था के सांस्कृतिक मूल्यों को कोई महत्त्व न देकर केवल अपने दृष्टिकोण से शिक्षा व्यवस्था को निर्धारित एवं संचालित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि हम शारीरिक रूप से तो भारतीय रहे, लेकिन मानसिक रूप से हम अंग्रेजी सभ्यता के गुलाम बन गए। स्वतंत्रता के बाद हमारे देश के बुद्धिजीवियों एवं शिक्षाविदों ने इस ओर ध्यान दिया और भारतीयों में भारतीयता का संचार करने के लिए शिक्षा में परिवर्तन करने के प्रयास किए। आज की वर्तमान परिस्थितियों में नैतिक मूल्यों की शिक्षा का विशेष महत्त्व है और हमारी केंद्र एवं राज्य सरकार इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। कोई भी समाज निर्धारित नैतिक मूल्यों के बिना अपनी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में सफल नहीं हो सकता। इन्हीं नैतिक मूल्यों को आधार मानकर समाज के लिए नियमों, कानूनों एवं आचार संहिता आदि का निर्माण किया जाता है। इन नियमों का पालन करना उस समाज के सदस्यों के मूल्यों पर निर्भर करता है। आज वार्षिक परीक्षाओं में भले ही हमारा विद्यार्थी 98 प्रतिशत अंक प्राप्त कर रहा है, परंतु यदि संस्कारों एवं नैतिक मूल्यों की बात करें, तो उसमें यह कमी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से परिलक्षित होती है। योग शिक्षा एवं नैतिक शिक्षा का संबंध व्यवहार कुशलता या कर्म कौशल से है। ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। नैतिक एवं योग शिक्षा विद्यार्थियों को उन निर्धारित मूल्यों से अपने अनुकूल युक्ति के विचारशील चयन तथा समृद्ध ढंग से विद्यमान चुनौतीपूर्ण समस्या के समाधान के लिए अडिग रहकर सतत संघर्ष करते रहने को सक्षम बनाती है। योग एवं नैतिक शिक्षा एक साधन है और इस साधन का प्रमुख उद्देश्य इसका व्यवहार संबंधी क्रियाओं तथा कला आध्यात्म का ज्ञान कराना है। नैतिकता के नियमों का पालन करने के लिए राज्य सरकार का दबाव नहीं होता, बल्कि इनका पालन आत्म चेतना द्वारा किया जाता है। आत्म विश्लेषण, आत्मज्ञान एवं आत्मचिंतन में योग शिक्षा एक सशक्त माध्यम बन सकती है। नैतिकता एवं संस्कृति का पाठ बालकों को अवश्य पढ़ाया जाना चाहिए। धर्म सदैव ही नैतिकता से जुड़ा रहता है और नैतिकता के मूल्यों को प्रभावित करता है। वह विचार एवं मूल्य जो मानव जाति का कल्याण करें, नैतिकता है। आज हमारे पास सुख-सुविधाओं के सभी साधन उपलब्ध हैं, परंतु हमारे पास आध्यात्मिक सुख नहीं है या यह कह लीजिए कि आत्म संतुष्टि या आत्मशांति नहीं है, जो कि बाहरी जगत में नहीं, अपितु हमारे अंदर विद्यमान है। इस अंतर्मन में छिपे हुए आध्यात्मिक सुख को केवल योग, प्राणायाम एवं क्रियाओं से सहज एवं स्थायी रूप से प्राप्त कर सकते हैं। अतः योग शिक्षा को प्रारंभिक कक्षाओं से शुरू करना सकारात्मक एवं दूरगामी प्रभाव डालने वाला कदम सिद्ध होगा।
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