-आचार्य शिवेंद्र नागर-
सुबह एक-डेढ़ घंटे पार्क में आसन-प्रायाणाम करने को ही लोग योग मानते हैं, किंतु योग इतना भर नहीं, अपितु अपने मन की कामनाओं को ज्ञान की लगाम से सही दिशा और दशा देना है..
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मनं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।
श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक का अर्थ है कि योग के अभ्यास से निरुद्ध (बांधा हुआ) चित्त ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है, जहां वह सभी विषयों से हटकर आत्मा द्वारा आत्मा को देखकर स्वयं में ही संतुष्ट हो जाता है। योग के अभ्यास का प्रमुख मकसद मन को वश में करना है। शास्त्र कहते हैं कि मन चंचल है, वह प्रमादी है, जिद्दी है आदि। मन एक ऐसी अग्नि है, जिसमें जितनी भी लकडि़यां डालो, वह कभी तृप्त नहीं होती। चित्त की वृत्तियों को निरुद्ध करने (बांधने) के लिए शास्त्र चार योगों का प्रचार करते हैं। ये चार योग हैं -हठ योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा ज्ञान योग। ये चार योग आपको ध्यान के द्वार तक ले जाते हैं। तदुपरांत ध्यान द्वारा व्यक्ति को समाधि का अनुभव होता है और वह चैतन्य व जागरूक हो जाता है। योग का अभ्यास नित्य-प्रतिदिन करना ही साधक का कर्तव्य है। लेकिन यह भी ध्यान रखना है कि योग केवल सुबह एक-डेढ़ घंटे पार्क में आसन और प्राणायाम करना ही नहीं है, अपितु अपने जीवन में मन की कामनाओं को ज्ञान की लगाम से सही दिशा और दशा देना भी है।
मन में अनगिनत कामनाएं हैं। ये पूरी हों या न हों, दोनों स्थितियों में नुकसान पहुुंचाती हैं। ये कामनाएं पूरी न हों, तो क्रोध उत्पन्न होता है तथा पूरी हो जाएं तो लोभ, भय, अहंकार इत्यादि प्रकट होने लगते हैं। इसलिए मन को कामनाओं से तृप्त नहीं नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक कामना के तृप्त होते ही वही कामना या फिर दूसरी कामना दोबारा प्रकट हो जाती है। तृप्त करने से जीवन भर अतृप्त कामनाएं हमारे साथ लगी रहती हैं, इसलिए मन को कामनाओं से मुक्त करना अंतिम उपाय है। यही साधना है। कुछ लोग मन को कामना-मुक्त करने के उपाय बताते हैं। वे लोग बताते हैं कि कामनाओं से मुक्त होना है तो उस इच्छा का अनुभव कर लो यानी उसे पूरी कर लो। इससे मन तृप्त हो जाएगा, परंतु वास्तविकता इससे कोसों दूर है।
अनुभव ले लेने से इच्छा खत्म होने लगे तो संसार के समृद्ध देश योगी बन गए होते। अनुभव थोड़ी देर तक तो मन में वैराग्य ला सकता है, परंतु वह वैराग्य सनातन नहीं होता। कुछ समय उपरांत मन की कामना दोबारा मुंह खोले प्रकट हो जाती है। अनुभव की एक बार आदत पड़ जाए तो इच्छा पीछा नहीं छोड़ती। व्यक्ति की इच्छा पूरी हो तो कोई सुख नहीं मिलता, फिर इच्छा सिर उठा लेती है, परंतु पूरी न हो तो दुःख अवश्य होता है।
इस विषय को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। आप पिछले कई सालों से दिन में लगभग तीन या चार कप चाय तो पी ही लेते होंगे। अपने जीवन में लगभग पचास हजार बार तो आपने चाय का अनुभव किया ही होगा, तो यदि अनुभव से इच्छा खत्म होती हो तो इस तर्क के अनुसार, अब तो हम चाय की इच्छा से मुक्त हो गए होते। लेकिन वास्तविकता यह है कि पचास हजार अनुभवों के उपरांत भी मन इच्छा मुक्त नहीं हुआ। इसका मात्र एक ही कारण है कि ज्ञान के बिना इच्छा मुक्त नहीं हुआ जा सकता है। अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि योगाभ्यास से ही चित्त को निरुद्ध किया सकता है तथा ज्ञानपूर्ण निरुद्ध चित्त ही आराम को प्राप्त होता है।
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