संसार में कौन धन्य है?

सदा भगवान के कार्य में जो अपनी देह को कष्ट देता है। मुख से अखंड राम-नाम का उच्चारण करता है। स्वधर्मपालन में बिल्कुल तत्पर है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्रीजी का ऐसा दास इस संसार में धन्य है। (वह) जैसा कहता है। वैसा ही करता है। नाना रूपों में एक ईश्वर (रूप) को ही देवता है और जिसे सगुण-भजन में जरा भी संदेह नहीं वहीं मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्रीजी का सेवक इस संसार में धन्य है।
आयु का हरण
जिसने मद, मत्सर और स्वार्थ का त्याग कर दिया है। जिसके सांसारिक उपाधि नहीं है और जिसकी वाणी सदैव नम्र और मधुर होती है। ऐसा सर्वोत्तम श्रीरामचंद्रजी का सेवक इस संसार में धन्य है। जो अखिल संसार में सदा-सर्वदा सरल, प्रिय, सत्यवादी और विवेकी होता है तथा निश्चयपूर्वक कभी भी मिथ्या-भाषण नहीं करता, वह सर्वोत्तम श्रीरामचंद्रजी का सेवक इस संसार में धन्य है।
जो दीनों पर दया करने वाला, मन का कोमल, स्ग्धि-हृदय, कृपाशील और रामजी के सेवकगणों की रक्षा करने वाला है। ऐसे दास के मन में क्रोध और चिडि़चिड़ाहट कहां से आयेगी! सर्वोत्तम रामचंद्रजी का ऐसा दास संसार में धन्य है। रे मन! तू अपने अंदर दुःख को तथा शोक और चिंता को कहीं स्थान ने दे। देह-गेहादि की आसक्ति विवेक करके छोड़ दे और उसी विदेही अवस्था में मुक्ति-सुख का उपभोग कर।
रे मन! राधव के अतिरिक्त तू (दूसरी) कोई बात न कर। जनता में वृथा बोलने से सुख नहीं होता। काल घड़ी-घड़ी आयु को हरण कर रहा है। देहावसान के समय तुझे छुड़ाने वाला (बिना श्रीरामचंद्रजी के) और कौन है? अपने (बुरे) आचरण में सोच-विचार करके परिवर्तन कर। अति आदर के साथ शुध्द आचरण कर। लोगों के सामने जैसा कह, वैसा कर। (और) मन! कल्पना और संसार के दुःख को छोड़ दे।
विवेकपूर्ण आचरण
रे मन! क्रोध की उत्पति मत होने दे। सत्संग में बुध्दि का निवास हो। दुष्ट-संग छोड़ दे। (इस प्रकार) मोक्ष का अधिकारी बन।
जो सोच-विचारकर बोलता है और विवेकपूर्ण आचारण करता है। उसकी संगति से अत्यंत त्रस्त लोगों को भी शांति मिलती है। अतः हित की खोज किये बिना कुछ मत बोल और लोगों में संयमित और शुध्द आचरण कर।
रे मन! सभी आसक्ति छोड़ और अत्यादरपूर्वक सज्जनों की संगति कर। उनकी संगति से संसार का महान दुःख दूर हो जाता है और बिना किसी अन्य साधना के संसार में सन्मार्ग की प्राप्ति होती है।
रे मन! सत्संग सर्व (संसार के) संगों से छुड़ाने वाला है। उससे तुरंत मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह संग साधक को भवसागर से शीघ्र पार करता है। सत्संग द्वैत-भावना का समूल नाश करता है।
जो बिना आचरण किये हुए नाना प्रकार की (ब्रह्मज्ञान की) बातें करता है। तुरंत जिसका पानी मन में उसे मन ही मन धिक्कारता है। जिसके मन में कल्पनाओं की मनमानी दौड़ चलती है। ऐसे मनुष्य को ईश्वर की प्राप्ति कैसे होगी।

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