थर्ड जेंडर में मजहबी बंटवारे का खतरा

-नाइश हसन-

देश में हाशिये पर जीवन बिताता एक समुदाय नब्बे के दशक में अपनी पहचान और अधिकारों को लेकर एक तरह की चेतना अपने अंदर महसूस करने लगा। विभिन्न मानवाधिकार संगठनों की अगुआई में इस एलजीबीटी समुदाय ने भारत के संविधान का हवाला देकर अपने नागरिक अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की तो कई चुनौतियां उसके सामने आईं। समाज उनके सवालों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। तरह-तरह की परेशानियों का सामना उन्हें करना पड़ा। उनका मजाक बनाया गया, उन पर जेहनी और जिस्मानी बेरहमी की गई, उनमें से बहुतों को आत्महत्या करने तक के लिए मजबूर किया गया। खामोश रहने का एक अनकहा संदेश सभ्यता और संस्कृति के हवाले से भी दिया गया।

तिनका-तिनका जोड़कर

इसे आंदोलन की मजबूती कहिए या इस समुदाय की दृढ़ता कि बहुत बुरी प्रतिक्रिया पाने के बाद भी वे पीछे नहीं हटे। उसका बड़ा कारण यह रहा कि आंदोलन की मांग इंसान की गरिमा हासिल करने की थी और इस समुदाय को पता था कि इस मांग से पीछे हटने का मतलब होगा मौत से बदतर जिंदगी में घिसटते रहना। आंदोलन की गति में तेजी तब आई जब अंतरराष्ट्रीय दबाव में भारत सरकार ने राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण नीति लागू की। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में एलजीबीटी समुदाय के साथ काम करने वाले लगभग 450 संगठन तैयार हो गए। ये संगठन एड्स संक्रमण से बचाव के कार्यक्रम चलाते हुए इस समुदाय के मूल मुद्दे भी उठाने लगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि थर्ड जेंडर के नागरिक अधिकार किसी भी सरकार के अजेंडे में कभी नहीं रहे। यहां तक कि समलैंगिकता को अपराध बताने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में संशोधन का सवाल भी किसी सरकार के लिए मुद्दा नहीं बना। सरकारों ने खुद को केवल एड्स संक्रमण से बचाव के लिए नीति व बजट बनाने तक ही सीमित रखा। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण नीति-3 के मुताबिक भारत में थर्ड जेंडर की जनसंख्या देश की कुल मतदाता संख्या का 5 प्रतिशत है, यानी लगभग दो करोड़। जबकि नाज फाउंडेशन के निदेशक आरिफ जाफर कहते हैं कि यह संख्या 10 से 20 प्रतिशत है। बहरहाल, यदि हम सरकार द्वारा बताई गई संख्या को ही सही संख्या मानें तो भी लगभग दो करोड़ वोटर इस श्रेणी के हुए, जिन्हें अभी तक अपने नागरिक अधिकारों से वंचित रहना पड़ रहा है। एक सर्वे के मुताबिक थर्ड जेंडर की कुल जनसंख्या के 40 प्रतिशत लोगों को मानसिक हिंसा, शारीरिक छेड़छाड़, बलात्कार, घर से बेदखली, गैर बराबरी, नौकरियों में भेदभाव, शिक्षण संस्थानों में पक्षपात वगैरह का शिकार होना पड़ता है। यही नहीं, उन्हें माता-पिता द्वारा त्याग दिया जाना, नौकरियों में आरक्षण न मिलना, संपत्ति से बेदखल कर दिया जाना, पुलिस द्वारा जबरन अश्लीलता की धाराओं में बुक कर दिया जाना जैसी ज्यादतियों का भी सामना करना पड़ता है। इन भिन्न-भिन्न प्रकार की हिंसाओं से मुक्ति और बराबरी के लिए ही आंदोलन का उदय हुआ। परंतु ये मुद्दे भारत सरकार के कार्यक्रम में शामिल नहीं हैं। यहां तक कि धारा 377 के मसले पर सुप्रीम कोर्ट से जो जीत हासिल हुई, उस पर सभ्य समाज चाहे जितना भी गर्व करे, पर उसमें मुख्य भूमिका आंदोलन के नेताओं व नेत्रियों की ही रही है, सरकार की नहीं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारत में परिवारों के भीतर बच्चे की जैविक भिन्नता का पता चल जाने के बाद 90 प्रतिशत परिवार उनको स्वीकार नहीं करते और बचपन में ही उन्हें घर से निकाल देते हैं। अपनों द्वारा ठुकराए हुए ऐसे बच्चों को हिजड़ा समुदाय ही अपनी गुरु-शिष्य परंपरा का पालन करते हुए स्वीकारता है, उन्हें संरक्षण देता है। यह समुदाय इतना एकजुट है कि इसका इंद्रधनुषी रंग का झंडा सभी पहचानों को अपने में समेटे हुए है। मजहबी बंटवारा इन लोगों के बीच कभी मुद्दा ही नहीं रहा। लेकिन पिछले कुछ समय से धर्म आधारित बंटवारे की बू इस समुदाय में भी आने लगी है। सदियों से अपनी खास पहचान से जाना जाने वाले इस समूह में भी हिंदू और मुस्लिम की भावनाएं जड़ जमाने लगी हैं। सवाल उठता है कि यह बीमारी इस समुदाय में आई कैसे? साफ है कि पूरे समाज में जब कोई संक्रामक बीमारी फैलेगी तो उससे समाज का कोई भी हिस्सा पूरी तरह अछूता नहीं रह सकता। हाल ही में प्रयाग कुंभ के दौरान एक तरफ अपने मूल मुद्दे से पूरी तरह भटकी नेता लक्ष्मी अपने लाव-लश्कर के साथ सनातन धर्म की वकालत में मुब्तला थीं तो दूसरी तरफ उनकी एक साथी को हज कर लेने पर अपराधबोध हो रहा था। धर्म मानना एक अलग बात है, पर धर्म की पैरोकारी करना एलजीबीटी आंदोलन के मुद्दों में कभी नहीं रहा। धर्म में यदि उनके सवालों का जवाब मिल गया होता तो उन्हें इंसान के तौर पर पहचाने जाने के लिए इतना कठिन संघर्ष नहीं करना पड़ता।

यहां भी हिंदू-मुस्लिम

मुस्लिम धार्मिक संगठन हों या हिंदू, उनके पास इस समुदाय की समस्याओं का समाधान नहीं है। धर्मों के भीतर गैर-बराबरी की जड़ें मौजूद हैं। वे पितृसत्ता को पोषित करते हैं। ऐसे में खतरा इस बात का है कि धर्म आधारित ताकतें इस समुदाय को अपने हक में इस्तेमाल करने के लिए इनमें जात-पांत और मजहब की दीवारें खड़ी कर देंगी, जिससे इसकी एकजुटता समाप्त हो जाएगी। स्वाभाविक रूप से यह प्रक्रिया इस समाज की उन आवाजों को कमजोर करेगी जो इस समाज से जुड़े मूल मुद्दों को उठाती रही हैं, उन पर संघर्ष करती रही हैं। ‘हिंदू हिजड़ा बनाम मुस्लिम हिजड़ा’ का संघर्ष एलजीबीटी आंदोलन की आत्मा को नेस्तनाबूद कर देगा। आंदोलन को इससे बचने की जरूरत है। इस पर आंदोलन के नेताओं को जरूर गौर करना होगा, इससे पहले कि देर हो जाए और चीजें हाथ से निकल जाएं। यूं भी धर्म के नाम पर समाज में बंटवारे कम नहीं हैं।

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