आरक्षण के आर्थिक आधार की जटिलताएं, उलझता मामला

-सुधांशु रंजन-

आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किए जाने के बाद पिछड़े वर्गों के लिए इसकी सीमा बढ़ाने की मांग उठ रही है। बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने कहा है कि 2021 की जनगणना जाति-आधारित हो और हर जाति को उसकी संख्या के अनुरूप आरक्षण मिले। यानी हर प्रत्याशी की प्रतिद्वंद्विता अपनी जाति के अंदर होगी और सामान्य श्रेणी कोई नहीं रहेगी। आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार बनाने को लेकर कई गलहफहमियां हैं। 103वें संविधान संशोधन अधिनियम को डीएमके ने मद्रास हाईकोर्ट में चुनौती दी है। इसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। न्यायालय ने इस पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है।

मकसद पर बहस
कुछ याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में भी दायर की गई हैं, जिनका मुख्य तर्क यह है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है बल्कि शताब्दियों से चले आ रहे जातिगत दंश को खत्म करने का तरीका है। यदि उच्च जाति का गरीब व्यक्ति गरीबी से बाहर आ जाता है तो उसके विरुद्ध भेदभाव खत्म हो जाता है जबकि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के साथ ऐसा नहीं होता। यानी आर्थिक संपन्नता उनके खिलाफ भेदभाव को खत्म नहीं कर पाती। यदि ऐसा है तो फिर आरक्षण देने का लाभ क्या है? जहां तक उच्च जातियों के गरीबों का सवाल है, तो गरीबी की परिधि से बाहर निकलते ही उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। दलितों और आदिवासियों को मूल संविधान में ही आरक्षण दिया गया, किंतु पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधान में प्रथम संशोधन के जरिए किया गया। इसकी जरूरत इसलिए हुई क्योंकि 1951 में मद्रास बनाम चंपकम दोरामराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास सरकार के उस आदेश को निरस्त कर दिया था, जिसमें मेडिकल कॉलेजों में धर्म और जाति के आधार पर सीटों का बंटवारा किया गया था। अदालत ने इसे संविधान के अनुच्छेद 29(2) का उल्लंघन माना, जिसमें कहा गया है कि किसी नागरिक को राज्य द्वारा संचालित या वित्तीय सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में धर्म, रंग, जाति, भाषा या इनमें से किसी एक के नाम पर प्रवेश पाने से रोका नहीं जा सकता। मद्रास के तत्कालीन मुख्यमंत्री पीएस. कुमारस्वामी राजा ने कहा कि दक्षिण भारत के हित में इस सरकारी आदेश को बरकरार रखा जाना चाहिए। 12 मई 1951 को संसद में संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के अनुच्छेद 46 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि राज्य कमजोर वर्गों के लोगों के शैक्षणिक एवं आर्थिक हितों को बढ़ाना देने के लिए विशेष प्रयास करेगा। इसमें आर्थिक हितों की बात कही गई है। शुरू में सरकार ने केवल अनुच्छेद 15(3) में संशोधन का प्रस्ताव रखा परंतु कुमारस्वामी राजा ने केंद्र सरकार से अनुरोध किया कि पिछड़ों के बचाव के लिए इतना पर्याप्त नहीं होगा। उन्होंने एक नया अनुच्छेद 15(4) जोड़ने का सुझाव दिया कि पिछड़े वर्गों की शैक्षणिक, आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति के लिए राज्य विशेष उपाय करेगा। सरकार सिलेक्ट कमिटी के साथ इस पर विचार करने पर सहमत हो गई। कमिटी ने सरकार के सुझाव को स्वीकार किया, लेकिन आर्थिक शब्द हटाने की सलाह दी। इस तरह अनुच्छेद 15(4) में सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग का प्रावधान किया गया। केसी वसंत कुमार बनाम कर्नाटक मामले (1985) में संविधान पीठ ने विचार किया कि पिछड़ा वर्ग क्या है? पीठ के पांच न्यायाधीशों ने अलग-अलग निर्णय लिखा, लेकिन इस पर मतैक्य था अन्य कारकों के साथ गरीबी सामाजिक पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है। 1992 में इंद्र साहनी बनाम संघ (मंडल आयोग मामला) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ओबीसी के संपन्न लोगों (क्रीमी लेयर) को इससे बाहर रखना होगा। इसलिए यह तर्क तथ्यों से परे है कि आरक्षण का मकसद गरीबी से निजात दिलाना नहीं है। असली चुनौती 50 फीसदी सीमा को लेकर आएगी। एमआर बालाजी बनाम मैसूर केस (1962) में संविधान पीठ ने व्यवस्था दी कि आरक्षण एक विशेष प्रावधान है जिसे 50 प्रतिशत से कम होना है। यह कितना कम होगा, यह हालात पर निर्भर करेगा। तर्क साफ था कि समानता कानून है और आरक्षण अपवाद। इसलिए अपवाद को आधे से नीचे होना है। इसीलिए मंडल आयोग ने स्पष्ट किया कि चूंकि पहले से एससी-एसटी के लिए 22.5 प्रतिशत आरक्षण है, इसलिए वह 27 प्रतिशत की अनुशंसा कर रहा है, जो 50 प्रतिशत की सीमा में अधिकतम है क्योंकि इससे कुल आरक्षण 49.5 प्रतिशत हो जाएगा। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत की सीमा को दोहराया पर एक रास्ता भी खोल दिया कि इस विविधता भरे देश में किसी विशेष परिस्थिति में इस सीमा से अधिक आरक्षण भी हो सकता है। लेकिन संवैधानिक कसौटी पर इस अतिरिक्त 10 प्रतिशत का खरा उतरना मुश्किल है, भले ही यह जाति से अलग आर्थिक आधार पर है।

समान स्कूल प्रणाली
1978 में बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की। बाद में इसमें 3 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग एवं 3 प्रतिशत महिलाओं के लिए आरक्षण जोड़ा गया। यह बिना किसी संविधान संशोधन के किया गया था। चूंकि इसे अदालत में चुनौती नहीं दी गई, लिहाजा यह व्यवस्था लंबे समय तक चलती रही। जब सवर्णों ने आरक्षण को योग्यता का दुश्मन बताया है तो अब आर्थिक आधार पर रिजर्वेशन को वे कैसे उचित ठहरा सकते हैं। इसके अलावा 8 लाख रुपये की सालाना आमदनी की सीमा इसके मकसद को विफल कर देगी, क्योंकि जो सचमुच जरूरतमंद हैं उन्हें इसका लाभ नहीं मिलेगा। इस जटिलता को देखते हुए समान स्कूल प्रणाली ही समस्या का एकमात्र समाधान लगती है।

This post has already been read 71671 times!

Sharing this

Related posts