सुरेश हिन्दुस्थानी
स्वतंत्रता मिलने के पश्चात विगत 70 सालों में देश ने कई चुनाव देखे हैं। कई सरकारें बनीं और कई चली गईं। कई तो बिलकुल ही चली गईं। कुछ नए राजनीतिक दलों का उदय हुआ, तो इनमें से कुछ अस्त भी हो गए। इसके अलावा कई नाम बदलकर आज भी मैदान में हैं। प्रारंभ से लेकर आज तक सबसे ज्यादा शासन किसी राजनीतिक दल का रहा है तो वह कांग्रेस ही है। इसलिए आज देश समस्याओं के जिस घेरे में खड़ा है, वह समाज की भूल का परिणाम तो है ही, लोकतंत्र के नाम पर शासन करने वाले दल की देन भी है। सरकारों में रहने वाले दलों ने केवल अपने दल की सरकार बनाए रखने वाली राजनीति ही की है। हमारी सरकारें अगर पूरी ईमानदारी से जनता के हित के काम करतीं तो संभवत: देश में इतनी समस्या नहीं होती, जितनी आज है। देखा जाए तो देश की वर्तमान समस्याएं, 70 साल की राजनीतिक व्यवस्था की ही देन हैं। देश के राजनेताओं ने जाने-अनजाने अपने हित के लिए राजनीति की, अपने परिवार का हित देखा। बिहार की राजनीति में एकाएक प्रभुत्व के साथ उभरने वाले लालू प्रसाद यादव की राजनीति का अंदाज भी देश ने देखा है। राष्ट्रीय जनता दल को एक प्रकार से लालू प्रसाद यादव के घर की पार्टी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि आज भी उनका पूरा परिवार किसी न किसी रुप में पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर काबिज है। यूपी में भी एक दल विशेष का यही हाल है। हालांकि देश के वर्तमान राजनीतिक वातावरण का अध्ययन किया जाए तो प्राय: यही दिखाई देता है कि देश करवट ले रहा है। कई दलों की विचारधारा में आमूलचूल परिवर्तन आया है। पिछले समय में गुजरात में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने अपने आपको हिन्दुत्व की ओर ले जाने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिल सकी। पहले के समय में जिस प्रकार से तुष्टिकरण की राजनीति की जाती रही थी, आज वह नेपथ्य में है। इस मामले में खुलकर बोलने की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है। दूसरी बात यह कि आज देश में जाति और धर्म की राजनीति से जनता ने दूरी बना ली है। अब राजनीतिक दल भी इस संकुचन से निकलने का प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं। यह कहना ज्यादा बड़ी बात नहीं होगी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषणों में राष्ट्रीयता की धार को और गहराई से पैना किया है। जनता के दिलों की गहराई में उतरने वाले मोदी के शब्द आशा और विश्वास की कसौटी पर खरे उतरते दिखने लगे हैं। मोदी की भाषा को भले ही विपक्षी राजनेता उपयुक्त नहीं मानते होंगे, लेकिन यह सत्य है कि आज उनको भी मोदी के मार्ग पर चलने के लिए विवश होना पड़ रहा है। यानी सरल शब्दों में व्यक्त किया जाए तो यही कहना समीचीन होगा कि देश की राजनीति राष्ट्रीयता की ओर कदम बढ़ाने को आतुर दिखाई दे रही है। पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद सोशल मीडिया पर मोदी सरकार के बारे में अच्छी धारणा दिखाई दी। जनता को मोदी पर पूरा विश्वास था कि वह ऐसा कोई काम करेंगे कि पाकिस्तान की कमर ही टूट जाए। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भारतीय वायुसेना की ओर से किए गए हवाई हमलों के बाद देश में जो राजनीतिक स्थिति बनी, वह देश की जनता के मनमाफिक थी। लेकिन राजनीतिक विसंगति देखिये, राजनेताओं ने हवाई हमलों पर भी सवाल उठाने प्रारंभ कर दिए। देश की जनता ने यह भी देखा कि विपक्षी राजनेता केवल विरोध की राजनीति करने को ही राजनीति मानते हैं। सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों पर राजनीति की जानी चाहिए? कदाचित नहीं। जब पूरे विश्व का समर्थन भारत को प्राप्त हो रहा हो तब भारत में केवल राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बयान देना किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं माना जा सकता। आतंकी शिविरों पर भारत की ओर से किए गए हवाई हमले के बाद निश्चित ही देश का वातावरण बदला है। राष्ट्रीयता की लहर का प्रवाह देश की धमनियों में दौड़ रहा है। आम जनता को अब कोई और भाषा सुनाई नहीं दे रही। वह राजनीतिक दलों और राजनेताओं से केवल राष्ट्रीय सुरक्षा पर ठोस बात सुनना चाहती है। मात्र इसी कारण विपक्षी राजनीतिक दलों के हाथ-पैर फूल रहे हैं। पहले जरूर सवाल उठाए थे, लेकिन वैसे स्वर भी ठंडे पड़ते जा रहे हैं। कांग्रेस के दिग्विजय सिंह जैसे राजनेताओं के मुंह चुप हो गए हैं। भारत में पाकिस्तान परस्त आतंक के मामले में राजनीतिक स्वर धीमे हुए हैं। वैश्विक स्तर पर भारत सरकार को जबरदस्त समर्थन मिलने के कारण चीन के रवैये में परिवर्तन देखने को मिल रहा है। चीन ने अभी हाल ही में कहा है कि वह आतंकी मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करवाने के प्रस्ताव पर अपने वीटो पर नरम होने को तैयार है। उसने पहले इस प्रस्ताव को पूरी तरह से खारिज कर दिया था। उसके बाद वैश्विक दबाव के चलते चीन की किरकिरी हुई और चीन ने एकाएक पलटी मारी है। यानी सभी मोर्चों पर भारत सरकार का राजनीतिक और कूटनीतिक दबाव काम कर रहा है। आज की राजनीति की वास्तविकता यही है कि भारत सरकार को मिल रही वैश्विक सफलता के कारण ही विपक्षी राजनीतिक दल भयभीत से दिखाई दे रहे हैं। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोकसभा के चुनाव मैदान में वह किस आधार पर जनता से वोट मांगने जाएंगे। स्वाभाविक है कि वह अबकी बार राष्ट्रीय हितों के मामलों के प्रति ज्यादा जवाबदेही का प्रदर्शन करते हुए ही आम जनता के बीच जाएंगे। लेकिन आज का जागरुक मतदाता भी हर किसी को कसौटी पर परख रहा है। स्वतंत्रता के बाद देश की समस्याओं के लिए कौन जिम्मेदार है, इसे भी भली भांति जानता है। इसलिए आज के समय में जनता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। आज देश की राजनीति का मुख्य मुद्दा राष्ट्रीयता के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता। यह एक ऐसा मामला है, जिस पर कोई राजनीति कर भी नहीं सकता। फिर भी ऐसा होता दिखाई देता है तो उसे जनता की उपेक्षा का सामना करना होगा। ऐसा लगता है कि देश एक अच्छे मोड़ पर जाने की ओर उत्सुक हो रहा है। अभी तक केवल राजनीति के ओछे बयानों की राजनीति देश ने देखी है। लेकिन इस चुनाव में भारत प्रथम होगा। भारत की मजबूती की राजनीति की जाएगी। ऐसा अगर प्रथम चुनाव से ही हो जाता तो आज भारत विश्व का महाशक्तिशाली राष्ट्र होता। खैर… अभी ज्यादा देर नहीं हुई, जब जागो तभी सबेरा की तर्ज पर अबकी बार मतदान करना है और देश में एक मजबूत सरकार बनाना है।
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