-वासुदेवशरण अग्रवाल-
दुर्गा या देवी विश्व की मूलभूत शक्ति की संज्ञा है। विश्व की मूलभूत चिति शक्ति ही यह देवी है। देवों की माता अदिति इसी का रूप है। यही एक इडा, भारती, सरस्वती इन तीन देवियों के रूप में विभक्त हो जाती है। वेदों में जिसे वाक् कहा जाता है, वह भी देवी या शक्ति का ही रूप है। वसु, रुद्र, आदित्य इन तीन देवों या त्रिक के रूप में उस शक्ति का संचरण होता है। ऋग्वेद के वागम्भृणी सूक्त में इस शक्ति की महिमा का बहुत ही उदात्त वर्णन पाया जाता है-मित्र और वरुण, इन्द्र और अग्नि, दोनों अश्विनीकुमार इनको मैं ही धारण करती हूं। विश्वदेव मेरे ही रूप हैं। वसु, रुद्र, आदित्य इस त्रिक का संचरण मेरे ही द्वारा होता है। ब्रह्मणस्पति, सोम, त्वष्टा, पूषा और भग इनका भरण करने वाली मैं हूं। राष्ट्र की नायिका मुझे ही समझो। मैं ही वसुओं का संचय करने वाली वसुपत्नी हूं। जितने यज्ञीय अनुष्ठान हैं, सबमें प्रथम मेरा स्थान है। सबका ज्ञान मेरा स्वरूप है। देवों ने मुझे अनेक स्थानों में प्रतिष्ठित किया है। अपने अनेक आवास स्थानों में मैं अपने पुष्कलरूप से भर रही हूं। जो देखता, सुनता और सांस लेता है, वह मेरी शक्ति से ही अन्न खाता है। यद्यपि लोग इसे नहीं जानते, पर वह सब मेरे ही अधीन है। यह सत्य है, जो मैं तुमसे कहती हूं। इसे सुनो। देव और मनुष्य दोनों को जो प्रिय है, उस शब्द का उच्चारण मुझसे ही होता है। मैं जिसका वरण करती हूं, उसे ही उग्र, ब्रह्मा, ऋषि और मेधावी बना देती हूं। रुद्र के धनुष में मेरी शक्ति प्रविष्ट है, जो ब्रह्मद्रोही का हरण करती है। मनुष्यों के लिए संघर्ष का विधान करने वाली मैं ही हूं। मैं ही द्यावा-पृथिवी के अंतराल में प्रविष्ट हूं। पिता द्युलोक का प्रसव करने वाली मैं ही हूं। मेरा अपना जन्मस्थान जलों के भीतर पारमेष्ठ्य समुद्र में है। वहां से जन्म लेकर मैं सब लोकों में व्याप्त हो जाती हूं। मेरी ऊंचाई द्युलोक का स्पर्श करती है। झंझावात की तरह सांस लेती हुई मैं सब भुवनों का आरम्भण या उपादान हूं। द्युलोक और पृथिवी से भी परे मेरी महिमा है। इस सूक्त में जिस वाक् तत्त्व का वर्णन है, वह देवी का ही रूप है। प्रायः समझा जाता है कि ऋग्वेद में पुरुष संज्ञक देवों का प्राधान्य है, किन्तु तथ्य यह है कि मित्र, वरुण, इन्द्र, अग्नि आदि जितने प्रधान देव हैं, उन सबको जन्म देने वाली मूलभूत शक्ति देवमाता अदिति है। उसका वर्णन सैकड़ों प्रकार से ऋग्वेद में आता है। वही अमृत की अधिष्ठात्री और यज्ञों की विधातृ विश्वरूपा कामदुधा शक्ति है, जिसे गौ भी कहते हैं। द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथिवी, माता, पिता और पुत्र, विश्वेदेव और पञ्चजन, देश और काल सब उस अदिति के ही रूप हैं। उसके वरदानों का कोई अन्त नहीं है। वह वाक् शक्ति मूलरूप में एकपदी या अपदी हैय अर्थात् वह शुद्ध स्थिति तत्त्व है। स्थिति ही उसकी पर या अव्यक्त अवस्था है, किन्तु उसी सेत्रिगुणात्मक विश्व जन्म लेता है, जो उसका अवर या मूर्त रूप है। वैदिक शक्तितत्त्व की यह परम्परा पुराणों में भी आई है। यह पुराण विद्या का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। देवी भागवत के अनुसार शक्तिः करोति ब्रह्माण्डम अर्थात् शक्ति ब्रह्माण्ड को रचती है। वेदों में जिसे ब्रह्म कहा है, वही परमात्मिका शक्ति है-
ते वै शक्तिं परां देवीं परमाख्यां परमात्मिकाम्।
ध्यायन्ति मनसा नित्यं नित्यां मत्वा सनातनीम्।।
(देवी भागवत 1.8.47)
विष्णु में सात्विकी शक्ति, ब्रह्मा में राजसी शक्ति और शिव में तामसी शक्ति का रूप है। निर्गुण शक्ति ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूप में सगुण रूप धारण करती है। शक्ति से युक्त होकर ही देवता अपना-अपना कार्य करते हैं। ब्रह्मा का विवेक सर्वगत शक्ति का ही रूप है (एवं सर्वगता शक्तिः सा ब्रह्मेति विविच्यते)। ब्रह्मा में सृष्टि शक्ति, विष्णु में पालन शक्ति, रुद्र में संहार शक्ति, सूर्य में प्रकाशिका शक्ति, अग्नि में दाह शक्ति, वायु में प्रेरणा शक्ति ये सब आद्या शक्ति के ही रूप हैं। जो शक्ति से हीन है, वह असमर्थ है। शिव भी शक्ति के बिना शव बन जाते हैं। यही सर्वशास्त्रों का निश्चय है। पुराणों में इस शक्ति के अनेक नाम हैं। इसे ही अम्बिका, दुर्गा, कात्यायनी, महिषासुरमर्दिनी कहा गया है।
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