-रमेश बक्षी-
प्रथम तंत्र
एक रात दर्शन दिये सर्वविद्याज्ञानी पं. प्रवर विष्णुज शर्मा ने। मैंने प्रणाम किया, चाय-कॉफी, पान-सिगरेट के लिए पूछा। बोले, मैं बड़े कष्टय में हूं कथाकार! मैंने अपनी नम्र सेवा के दान का निवेदन किया तो उन्होंने प्रसन्नर हो कहा, ईंट-रोड़े मैं देता हूं, कुनबा तू जोड़ दे! मैंने जिज्ञासा की, कैसा कुनबा? वे बोले, मैंने महादानी प्रतापी राजा अमरशक्ति के पांच अविनीत, उच्छृंखल और मूर्ख राजकुमारों को शिक्षा देने के लिए पंचतंत्र की रचना की थी। उनकी मूर्खता के लॉन की घास काटकर सारे मैदान को मैंने तरबीब दी थी। अब वे पांचों राजकुमार राजा अमरशक्ति का राज्यन मर्ज हो जाने पर चुनाव लड़ेय एम.एल.ए. बने और मंत्री-पद पर राजा की गरिमा से ही आसीन हो गए हैं, परंतु…। मैं शर्माजी का आशय ताड़कर बोला, तो क्या. उन भूतपूर्व राजकुमारों को शिक्षा देने के लिए आप मुझे कह रहे हैं? वे गदगद होकर बोले, हां कथाकार… और खासकर तुझे इसलिए कह रहा हूं कि तू मुदर्रिस भी है। मेरी टेकनीक की ईंटें ले और खबरों के रोड़े… मैंने प्रणाम कर भार सिर-माथे लिया और जरा हकलाते हुए पूछा, लेकिन पा… पारिश्रमिक क्यां मिलेगा पंडितजी? पं. शर्मा ने हंस कर मेरे कान में कहा, तेरा प्रमोशन करवा दूंगा। इतना कहकर वे अंतर्ध्यौन हो गए। मैंने पेन में स्याशही भरी और प्रिपेरेशन शुरू की।
सेवक की समस्यां, बॉस का मेमो और रिटायर्ड एल.डी.सी.
जंबू द्वीप के मध्य देश में एक कोई जिला था। उस जिले में एक तहसील थी। तहसील में एक गांव था। गांव समाज-कल्यांण का विकास-खंड था। उस खंड के विकास के लिए एक ग्राम-सेवक की नियुक्ति की गई। इस सेवक के बॉस थे विकास-खंड-अधिकारी। अधिकारीजी एक-से-एक गजब की योजना बनाते थे। गांवों के विकास की गजब की योजना वह कहलाती है जो विदेशों में चर्चा का विषय बने, देश में नेता लोग जिस पर चार मिनट से चार घंटे तक भाषण दे सकें, जिले के बेकारों को जिससे नौकरी मिले, गांववालों को स्वार्ग के सपने आने लगें, अधिकारीजी का प्रमोशन हो, ग्राम-सेवक को पुरस्काकर मिलने का चांस मिले, सबको लगे कि अपने गांव की ट्रेन चल रही है लेकिन चले दूसरी पटरी वाली और कोई ट्रेन ही। ग्राम-सेवक में काफी जोश था, वह बात-बात पर भारत माता की जय जैसे नारे लगाने के मूड में आ जाता। कभी सड़कें साफ करवाता, कभी बीज बंटवाता, कभी परती जमीन तुड़वाता, कभी बच्चों को पढ़ाता, कभी बूढ़ों को अक्षर-ज्ञान करवाता। सुबह, दोपहर, शाम, लगती रात, मध्यत रात, जाती रात-हमेशा जनवरी से दिसंबर तक व्य।स्त और बेहद व्यकस्तक। सारे साल सप्तााह मनाने का दौर चलता रहता। गांववाले अखंड कीर्तन सात दिन का करते थे, भागवत सात दिन बंचती थी और ऐसे शुभ दिनों को वे आदर से सप्ताहह जी कहते थे, जैसे सिख धर्म-ग्रंथ को ग्रंथ साहब कहते हैं। अधिकारीजी आज इस सप्तापह को मनाने का आर्डर भेजते तो कल उस सप्तौह को मनाने का। इत्या्दि से पहले सप्ताधहों के नाम ये हैं: वृक्षारोपण सप्तारह, वन्यग पशु-रक्षा-सप्तासह, सफाई सप्तौह, अक्षर-ज्ञान सप्तााह, अंगूठा लगाना छोड़ सप्ता ह, कपड़े-धो सप्ताोह, बुनियादी तालीम सप्ता ह, सब काम हाथ से सप्तािह, आराम-हराम सप्तााह, सत्यल बोलो सप्ताजह… इत्योदि। यह इत्या दि मेरी है, अधिकारीजी की नहीं। उन्हेंक इनकी तभी जरूरत पड़ सकती है, जब इत्यांदि सप्ताोह मनाने की कोई बात सूझ जाए। हर सप्तााह का सप्ताीह भर शोर रहता। प्रभात फेरी, झंडावंदन, वंदेमातरम, भाषण, नारे, जन-गण-मन सभी कुछ होते। गांववाले सप्तापहों के इतने आदी हो गए कि वे भोजन सप्तांह और नींद सप्ताोह जैसी योजना भी बनाने लगे। अधिकारीजी का एक बार भाषण डेढ़ घंटे से जरा लंबा हो गया तो लोग परेशान हो गए कि कहीं इनका भाषण सप्तााह न चल रहा हो। विकास-पथ पर एक पूरे वर्ष का छकड़ा सप्तारहों की गरवट बनाकर जब गुजर गया तो ग्राम-सेवक ने अधिकारीजी को सालाना रिपोर्ट भेजी। उसने जितने भी सप्तारह मनाए उनकी तफसील दी, लोगों के उल्लानस का जिक्र किया और अखबार में छपने की दृष्टि से सारी जरूरी चीजें उसमें दर्ज कीं। जैसा कि हर सेवक करता है, वह भी बेचारा प्रमोशन की प्रतीक्षा करने लगा। एक सप्तोह गया, दूसरा सप्तााह गया और तीसरे सप्ताणह जब लिफाफा आया तो उसे इतनी खुशी हुई कि उतनी खुशी से वह सप्ता ह भर खुश रह सकता था। लेकिन लिफाफा खोलते ही उसे पसीना आ गया। वह मेमो था। मेमो उसे कहते हैं जिसे मीरा ने चुनरी में दाग कहा है, यह बॉस की लिखित नाराजगी का प्रतीक माना जाता है, यह वह पत्र है जिसका सेवक अगर उत्तर दे दे तो वह कष्टल में पड़ जाता है और उत्तर न देने पर उसे वार्निंग मिलती है। सेवक के नाम उस मेमो में लिखा था विकास खंड अधिकारी की आज्ञा के अनुसार आठ ऐसे सप्ताकह बाकी रह गए जिन्हेंश आपने गांव में नहीं मनाया है। स्पीष्टीककरण देते हुए बताइए कि अधिकारी की आज्ञा के उल्लंाघन के लिए आप पर आवश्य क कार्यवाही क्योंह नहीं की जाए…?
बेचारे की आंखों में आंसू आ गए। सेवा का यह प्रतिफल मिलेगा, इसकी उसे कल्पाना नहीं थी। वह पंचांग, कैलेंडर सब लेकर बैठा कि उससे गलती कहां हुई है। चार ऑफिस-टाइम (बगैर सेकंड सटरडे और संडे) की बैठक में उसने मेमो का उत्तर तैयार किया। उत्तर भेजने से पहले उसने गांव में आकर बस गए एक रिटायर्ड एल.डी.सी. से सलाह लेना ठीक समझा। इन एल.डी.सी. की विशेषता यह थी कि वे नियुक्ति से पेंशन तक एल.डी.सी. ही रहे हैं, इससे यह अंदाज हर नौकरीपेशा सेवक लगा सकता है कि उन्हेंन हमेशा मेमो मिलते रहे होंगे और हर मेमो का उन्हों।ने उत्तर भी दिया होगा। मेमो का उत्तर देनेवाले एल.डी.सियों को उन पौधों की श्रेणी में रख सकते हैं जिनकी जड़ों के नीचे पत्थरर आ जाएं। ग्राम-सेवक ने मेमो का उत्तर सुनाया-पूरे वर्ष में, कई बार हिसाब लगाने पर भी, केवल बावन सप्तोह ही होते हैं और विकास-खंड-अधिकारी ने वर्ष भर में मुझे आठ सप्तोह मनाने की आज्ञा दी है। बावन सप्तााहों के बाद जो आठ सप्तोह शेष रह गए उनके लिए मैं उत्तरदायी नहीं हूं, वे लोग उत्तरदायी हैं जिन्होंनने केवल बावन सप्तोहों का वर्ष बनाया…।
एल.डी.सी. ने सुनकर कहा, उत्तर है तो ठीक लेकिन यह तो ऐसी है जैसी वह कहावत कि आ बैल मार सींग। पहल करने से बड़ी तकलीफ में पड़ जाने का डर है। हो सकता है, मेमो के इस उत्तर से तुम्हांरी दशा उस चित्रकार के परिवार-सी हो जाए, जिसने सरकार को पत्र लिखा था।
ग्राम-सेवक ने पूछा, कौन चित्रकार और कैसा पत्र?
प्रश्नं सुनकर रिटायर्ड एल.डी.सी. ने यह कहानी सुनाई:
खुद अपील करने का फल
उत्तर प्रदेश में एक चित्रकार एक नगर में रहता था। उसकी कूची में जादू था। चित्रकला के ऐसे-ऐसे प्रयोग उसने किए कि उसका नाम सारे जंबूद्वीप में विख्यांत हो गया। बड़े-बड़े नगरों में उसके चित्रों की प्रदर्शन हुई। देश में ही नहीं, विदेश में भी उसने बड़ा सम्मागन पाया। कलानगरी पेरिस के चित्रकारों ने भी उसकी प्रशंसा की। कई कवियों ने उसके चित्रों को देखकर उठने वाली भावनाओं पर कविताएं लिखीं। दुर्भाग्यै यह कि बेचारे को कैंसर हो गया। कैंसर एक तरह का गिरफ्तारी का वारंट ही है-अस्पकताल में साल-छह महीने अंडर-ग्राउंड रहा जा सकता है लेकिन आजन्मक नहीं। सो वह चित्रकार एक दिन गिरफ्तार हो ही गया। सिपाही उसे ऊपर की जेल में ले गए। उस चित्रकार का अपना परिवार भी था-बीवी, चार-पांच बच्चेा, विधवा बहन, बूढ़े चाचा, पागल मां, पढ़नेवाला भाई। चित्रकार ने नाम कमाया तो खूब था लेकिन मनमौजी आदमी था, सो हाथ पर लाता था, हथेली पर खाता था। चंचल लक्ष्मी। आती थी लेकिन चित्रकार को क्लो रोफार्म सुंघाकर भाग जाती थी। परिवारवालों ने सोचा कि जिस चित्रकार की प्रशंसा में बड़े-बड़े पुल बांधे जाते थे, उसका दर्द सभी के मन में होगा। चित्रकार ने छोटी-सी टपरिया बनवा ली थी लेकिन वह बरसात में टपकती रही और एक दिन एक दीवार जब धंस गई तो उस परिवार ने सरकार को एक पत्र लिखा कि उस महान चित्रकार का परिवार बड़े संकट में है, यदि सरकार टूटी हुई दीवार को बंधवाने और टपकती छत को ठीक करवाने का रुपया दे दे तो कृपा होगी। सरकार ने पत्र पाते ही समिति बना दी। समितिवाले उस टूटे घर में आए। उस चित्रकार के दर्द में सब डूबे हुए थे। उस घर की धूल उठाकर उन लोगों ने सिर पर लगाई। बोले, वह चित्रकार महान था। उसका यह घर भी महान है। यह घर तो कला-प्रेमियों का तीर्थ है। परिवारवालों को बड़ी आशा बंधी। सरकार का उत्तर एक शाम डाकिया दे गया उस महान चित्रकार की स्मृधति को चिरस्था्यी और अक्षुण्ण बनाए रखने का समिति ने निश्चकय किया है। उस चित्रकार का घर कला-प्रेमियों का तीर्थ-स्थान है। जो लोग भी जंबूद्वीप की यात्रा पर आएं उन सबको वह घर अवश्ये दिखाया जाना चाहिए, अतः उस महान चित्रकार के घर में जो लोग भी रहते हैं उन्हेंस एक सप्ताकह के अंदर चित्रकार के निवास-स्था,न को खाली करने की आज्ञा दी जाती है। वह टूटा घर हमेशा अब इसी अवस्थाा में सुरक्षित रहेगा।… बेचारे परिवारवालों की अपील करने का ऐसा फल मिला कि सबने सिर पीट दिया।
यह कहानी सुनकर ग्राम-सेवक बोला, तो फिर मुझे अब क्याक करना चाहिए?
अनुभवी रिटायर्ड एल.डी.सी. ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, डरने की बजाय साहस से काम लेना पड़ेगा।
ग्राम-सेवक को कोई आशा नजर नहीं आई। वह बोला, मैं तो सच्चीा सेवा करता रहूंगा। किसी-न-किसी दिन तो कोई मुझे पहचानेगा ही।
रिटायर्ड एल.डी.सी. हंसकर बोला, ऐसा कभी नहीं होगा। इस जंबूद्वीप में तो परखने का तरीका पत्थलर फेंककर सिपाही पकड़ने का है।
ग्राम-सेवक ने पूछा, यह कैसे?
रिटायर्ड एल.डी.सी. ने तब एक और कथा सुनानी शुरू कर दी।
(उपन्यामस अंश)
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