व्यंग्य: रूपये का दर्द

-हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन-

पहली बार रुपये को किसी ने रोते हुए देखा था। देखते ही देखते खबर, जंगल में आग की तरह फैल गयी। अधिकांश लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ। तसल्ली के लिए लोग उस स्थान पर एकत्रित होने लगे, जहां रूपया रो रहा था। सारे लोग कारण जानना चाहते थे। सारी दुनिया को अपनी करतूतों से रूलाने वाले रूपये को आज अचानक रोना क्यूं आया? बहुत मनुहार के बाद बताना शुरू किया उसने -लोग, मुझे गिर गया, गिर गया कहकर बदनाम करते हैं, जबकि मै गिरता नही हूं, बस केवल इसी आरोप के कारण रो रहा हूं। रूपये की बात पूरी नही हो पायी, किसी ने बीच मे ही कहना शुरू किया -हूं, हम लोग कोई और बात समझे थे, तुम तो बार बार सचमुच में गिरते उठते रहते हो, तुम्हे यदि गिर गया कह दिया किसी ने, तो गलत क्या है? इसमें रोने जैसी क्या बात है? वही तो मैं बता रहा हूं, मैं गिरता हूं जरूर, पर आज कुछ लोगों ने बात बात में यह कहा कि मैं नेता की तरह गिर गया, इसी बात की पीड़ा है मुझे। ठीक ही तो कहा। तुम वाकई नेता की तरह गिरते हो, इसमें गलत क्या है? रूपया दहाड़ मार कर रोने लगा। बहुत समझाने के पश्चात ही वह शांत हुआ और भावुक होकर कहने लगा-चाहे तुम चोर की तरह गिरा समझ लो, चाहे बेईमान की तरह, चाहे किसी चरित्रहीन की तरह, चाहे झूठे मक्कार की तरह, पर प्लीज इतना गिरा मत समझो मुझे। चोर गिरकर कभी न कभी पश्चाताप की अग्नि में जलता है, बेईमान को कहीं न कहीं उसका ह्र्दय धिक्कारता है, चरित्रहीन सत्संग के असर से सुधर जाता है, झूठा और मक्कार व्यक्ति सजा पाकर ही सही, सम्भल ही जाता है। पर नेता की जात को, ईश्वर ने, पता नही, किस मिट्टी का बनाया है, वह कभी पश्चाताप की अग्नि में नही जलता, उसका ह्र्दय धिक्कारता नही उसे कभी, वह किसी सत्संग के असर से नही सुधरा, सजा पाकर उसकी मक्कारी कम नही होती। मैं गिरता जरूर हूं, पर उठ भी जाता हूं, और ये नेता सिर्फ और सिर्फ गिरते हैं, उठते नही, ऐसे लोगों से मेरी तुलना करोगे तो रूलाई तो आएगी ही। अगली बात यह कि मै स्वयं गिरता नही गिराया जाता हूं, इसके बाद भी गिराने वाले का भी भला करता हूं, पर ये लोग अपने लिए, खुद से गिरते हैं, और अपने गिरने से केवल ये ही सुखानुभूति करते हैं। दूसरे केवल दुख पाते हैं इनके गिरने से। ये सत्ता की कुर्सी पर गिरते हैं तो देश को खोखला करते हैं, धर्म की कुर्सी पर गिरते हैं तो आस्था की हत्या करते हैं, समाज की कुर्सी पर गिरते हैं तो घर घर, भाई-भाई को अलग करते हैं। मैं किसी को गिराता नही, हमेशा उठाता हूं, खड़ा करता हूं, परंतु ये किसी को उठाते नही, उठाने का नाटक करते हैं। ये किसी को खड़ा होने नहीं देना चाहते। ये उठाते हैं जरूर, परंतु, खड़ा होने के लिए नही, बल्कि उठाकर, गिराने के लिए। एक बात और, मैं गिरता हूं, तो, बड़ी मुश्किल से चलता हूं, पर ये जितना ज्यादा गिरते हैं उतना अधिक चलते हैं। तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि, किसी ने, नेता की तुलना की, तुम्हारी। वह भी बड़ा, तुम भी बड़ा। नहीं भाई मैं बड़ा नही हूं, मै छोटे से छोटे व्यक्ति के घर पर भी पसीने की महक से पैदा होता हूं, पर ये एसी की गर्मी से बड़े घरों में पैदा हुए लोग हैं। परंतु इन्हे और भी बड़ा तुम्ही ने बनाया है रूपया जी। बड़ा मैंने कहां बनाया, बड़ा तुम लोगों ने अपनी वोट की ताकत से बनाया। पर यह वोट, तुम्हारी ताकत से खरीदा जाता है। यह सही है, मेरी ताकत से खरीदते हैं वोट को, और कुर्सी पा जाते हैं, अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं, पर मुझे बिना गिराये यह भी सम्भव नही। मैंने हमेशा इन्हे उठाया, पर इनने मुझे सिर्फ और सिर्फ अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए हमेशा गिराया! एक अंतिम बात और मै जिसके साथ चलता हूं, उसका भला करता हूं, उन्हे अच्छे से चलने की राह बनाता हूं, परंतु, ये जिनके साथ होते हैं, उन्हे केवल नुकसान होता है, और अपने साथ चलने वाले लोगों की राह में इतने कांटे बिछा जातें हैं कि, वह चल नही सकता, बल्कि, लहू लुहान होकर, घिसटने के लिए मजबूर हो जाता है। मैं जिनके पीछे पड़ता या रहता हूं, उसे धनवान, यशवान बना देता हूं, परंतु ये जिनके पीछे पड़ते हैं, उन्हे स्वर्गवान बना देते हैं। अब आप सुधीजन ही फैसला करिए, क्या मेरी तुलना, ऐसे लोगों से की जानी चाहिए? रूपये ने काफी अनर्गल बातें कह दी। दूसरे दिन विभिन्न पार्टियों के बड़े नेताओं की मीटिंग हुई। सारे लोगों ने रूपये के इन बातों की खूब निंदा की, उसी दिन रूपये के बहिष्कार का निर्णय ले लिया गया। थोड़े दिन बाद वह रूपये चलन से बाहर हो गया, और, उसकी जगह, काले रूपये ने ले ली।

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