चल दिए चांद के पार

प्रमोद भार्गव

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने चंद्रमा पर चंद्रयान- 2 अंतरिक्ष की ओर भेज दिया है। यह यान इसरो के अध्यक्ष के. सिवम के नेतृत्व में श्रीहरि कोटा के अंतरिक्ष केंद्र से सोमवार को दोपहर 2 बजकर 43 मिनट पर छोड़ा गया। चंद्रयान- 2 तीन लाख 75 हजार किलोमीटर की यात्रा करके सितंबर 2019 में चंद्रमा के दक्षिणी धुव्र की धरती पर उतरेगा। इस यान का 600 किलोग्राम वजन भी बढ़ाया गया है। दरअसल, प्रयोगों के दौरान ज्ञात हुआ कि उपग्रह से जब चंद्रमा पर उतरने वाला हिस्सा बाहर आएगा तो यह हिलने लगेगा। लिहाजा, इसका भार बढ़ाने की जरूरत पड़ी। अब इसका 13 स्वदेशी वैज्ञानिक उपकरणों एवं उपग्रह समेत कुल वजन 38 क्विंटल के करीब है। स्वदेशी जीएसएलबी मार्क तीन रॉकेट इसे अंतरिक्ष में पहुंचाएगा। इसके तीन भाग हैं। लैंडर, ऑर्बिटर और रोवर। रोवर में ‘प्रज्ञान’ बेहद महत्वपूर्ण है। यही प्रज्ञान चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने के बाद अपने काम में जुट जाएगा। यहां की सतह में पानी और खनिजों की खोज करेगा। चंद्रमा पर हिलियम की खोज करके उससे पृथ्वी पर फ्यूजन पद्धति से ऊर्जा की समस्या का हल करने की परिकल्पना वैज्ञानिकों के दिमाग में है। फिलहाल चंद्रमा पर गहरा अंधेरा व सन्नाटा पसरा है। अतएव वहां कृत्रिम तरीकों से बिजली पैदा की जाएगी। वहां जीवनदायी तत्व हवा, पानी और अग्नि नहीं हैं। ये तत्व नहीं हैं, इसलिए जीवन भी नहीं है। वहां साढ़े 14 दिन के बराबर एक दिन होता है। पृथ्वी पर ऐसा कहीं नहीं है। बावजूद वहां मानव को बसाने की तैयारी में दुनिया के वैज्ञानिक जुटे हैं। इस अभियान के बाद भारत सूर्य और शुक्र ग्रहों पर यान भेजने की तैयारी में है।      चंद्रमा पर जीवन-यापन की स्थितियों को जानने से पहले, इसकी भौगोलिक स्थिति को समझना जरूरी है। चंद्रमा पृथ्वी का सबसे करीबी ग्रह है। इसलिए इसे जानने की उत्सुकता खगोल वैज्ञानिकों को हमेशा रही है। दरअसल, जब पृथ्वी अस्तित्व में आई, उसी के समानांतर चंद्रमा का प्रदुर्भाव हुआ। ये ग्रह जब बीज रूप में थे, तब इनके विकासक्रम की शुरुआत लघु ग्रहों के रूप में हुई थी। आरंभिक अवस्था में ये दोनों ग्रह-बीज पृथ्वी की कक्षा में ही लंबे समय तक घूमते रहे। इस कालावधि में ये ग्रह अंतरिक्ष में भटकने वाले उल्का-पिंडों, क्षुद्र-ग्रहों और अन्य घातक वस्तुओं का प्रहार झेलते रहे। गोया, इनका निरंतर विस्तार होता रहा। फिर कालांतर में पृथ्वी और चंद्रमा पूर्ण ग्रहों के रूप में अस्तित्व में आए। खगोल वैज्ञानिक भी अब मानने लगे हैं कि ग्रहों की निर्माण विधियां यही हैं। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी (इसरो) पहली बार अपने यान को चंद्रमा के दक्षिणी धुव्र पर उतारने की कोशिश में है। भारत द्वारा 2008 में भेजे गए चंद्रयान-1 ने ही पहली बार चंद्रमा पर पानी होने की खोज की थी। चंद्रयान-2 उसी अभियान का विस्तार है। यह अभियान मानव को चांद पर उतारने जैसा ही चमत्कारिक होगा। इस अभियान की लागत करीब 978 करोड़ रुपये आएगी। चांद पर उतरने वाला चंद्रयान-2 चंद्रमा के अछूते हिस्से दक्षिणी धुव्र के रहस्यों को खंगालेगा। चंद्रयान-2 इसरो का पहला ऐसा यान है, जो किसी दूसरे ग्रह की जमीन पर अपना यान उतारेगा। दक्षिणी धुव्र पर यान को भेजने का उद्देश्य इसलिए अहम् है, क्योंकि वह स्थल दुनिया के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के लिए अब तक रहस्यमय बना हुआ है। वहां की चट्टानें 10 लाख साल से भी ज्यादा पुरानी बताई गई हैं। इतनी प्राचीन चट्टानों के अध्ययनों से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति को समझने में मदद मिल सकती है। इससे इतर इस पर लक्ष्य साधने का अन्य उद्देश्य चंद्रमा के इस क्षेत्र का अब तक अछूता रहना भी है। दक्षिणी धुव्र पर अब तक कोई भी यान नहीं उतारा गया है। अब तक के अभियानों में ज्यादातर यान चंद्रमा की भूमध्य रेखा के आसपास ही उतरते रहे हैं। चांद पर उतरने की दिलचस्पी इसलिए भी है, क्योंकि वहां एक तो पानी उपलब्ध होने की संभावना जुड़ गई है, दूसरे वहां ऊर्जा उत्सर्जन की संभावनाओं को भी तलाशा जा रहा है। ऊर्जा और पानी दो ही प्रकृति के ऐसे अनूठे तत्व हैं, जो मनुष्य को जीवित एवं गतिशील बनाए रख सकते हैं।अंतरिक्ष में मौजूद ग्रहों पर यानों को भेजने की प्रक्रिया बेहद जटिल और शंकाओं से भरी होती है। यदि अवरोह का कोण जरा भी डिग जाए या फिर गति का संतुलन लड़खड़ा जाए तो कोई भी चंद्र-अभियान या तो चंद्रमा पर जाकर ध्वस्त हो जाता है, या फिर अंतरिक्ष में कहीं भटक जाता है। इसे न तो खोजा जा सकता है और न ही नियंत्रित करके दोबारा लक्ष्य पर लाया जा सकता है। इसीलिए 15 जुलाई को खराबी की आशंका होने के बाद उसका ऐन वक्त पर प्रक्षेपण स्थगित कर दिया गया था। 1960 के दशक में जब अमेरिका ने उपग्रह भेजे थे, तब उसके शुरू के छह प्रक्षेपण के प्रयास असफल रहे थे। अविभाजित सोवियत संघ ने 1959 से 1976 के बीच 29 अभियानों को अंजाम दिया। इनमें से नौ असफल रहे थे। 1959 में रूस ने पहला उपग्रह भेजकर इस प्रतिस्पर्धा को गति दी थी। तब से लेकर अब तक 67 चंद्र-अभियान हो चुके हैं, लेकिन चंद्रमा के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं जुटाई जा सकी है। इस होड़ का ही नतीजा रहा कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने चंद्रमा पर मानव भेजने का संकल्प ले लिया। 20 जुलाई 1969 को अमेरिका ने यह ऐतिहासिक उपलब्धि वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रांग और बज एल्ड्रिन को चंद्रमा पर उतारकर प्राप्त भी कर ली। इसी से कदमताल मिलाते हुए रूस ने 3 अप्रैल 1984 को वैज्ञानिक स्नेकालोव, मालिशेव बाईकानूर और राकेश शर्मा को अंतरिक्ष यान सोयूज टी-11 में बिठाकर चंद्रमा पर भेजने में सफलता हासिल की। इस कड़ी में चीन 2003 में मानवयुक्त यान चंद्रमा पर उतारने में सफल हो चुका है।रूस और अमेरिका कालांतर में चंद्र-अभियानों से इसलिए पीछे हट गए, क्योंकि एक तो ये अत्यधिक खर्चीले थे। दूसरे, मानवयुक्त यान भेजने के बावजूद चंद्रमा के खगोलीय रहस्यों के नए खुलासे नहीं हो पाए। वहां मानव बस्तियां बसाए जाने की संभावनाएं भी नहीं तलाशी जा सकीं। इसलिए दोनों ही देशों की होड़ बिना किसी परिणाम पर पहुंचे ठंडी पड़ती चली गई। 90 के दशक में चंद्रमा को लेकर फिर से दुनिया के सक्षम देशों की दिलचस्पी बढ़ने लगी। ऐसा तब हुआ जब चंद्रमा पर बर्फीले पानी और भविष्य के ईंधन के रूप में हिलियम-3 की बड़ी मात्रा में उपलब्ध होने की जानकारी मिलने लगी। वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि ऊर्जा उत्पादन की फ्यूजन तकनीक के व्यावहारिक होते ही ईंधन के स्रोत के रूप में चांद की उपयोगिता बढ़ जाएगी। ऐसे में जापान और भारत का साथ आना इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि चंद्रमा के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रौद्योगिकी दक्षता परस्पर पूरक सिद्ध हो रही है। मंगल हो या फिर चंद्रमा, कम लागत के अतंरिक्ष यान भेजने में भारत ने विशेष दक्षता प्राप्त कर ली है। दूसरी तरफ जापान ने हाल ही में चंद्रमा पर 50 किमी लंबी एक ऐसी प्राकृतिक सुरंग खोज निकाली है, जिससे भयंकर लावा फूट रहा है। चंद्रमा की सतह पर रेडिएशन से युक्त यह लावा ही अग्नि रूपी वह तत्व है, जो चंद्रमा पर मनुष्य के टिके रहने की बुनियादी शर्तों में से एक है। किसी भी ग्रह पर मनुष्य के रहने की दृष्टि से जरूरी है कि उस ग्रह से सूरज की दूरी इतनी हो कि वहां की सतह का तापमान पानी को तरल रूप में बनाए रखने के लायक हो। दरअसल चंद्रयान-1 ने पानी के जो डाटा भेजे थे, उनके विश्लेषण से पानी में ओएच (हाइड्रोक्सिल) पाए जाने की उम्मीद बढ़ी है। ओएच, एच-2 ओ से अधिक सक्रिय है। नतीजतन तुरंत किसी अन्य यौगिक से जुड़ जाता है। किसी भी ग्रह पर रहने के लिए यह भी जरूरी है कि वहां का तापमान न तो बेहद गर्म हो और न ही ठंडा। ऐसे ग्रह का आकार पृथ्वी के द्रव्यमान के अनुसार ही होना चाहिए, वरना गुरूत्वाकर्षण एक समस्या के रूप में आड़े आ सकता है। फिलहाल हिलियम के गुब्बारे से लेंडर के गुरुत्वाकर्शण का संतुलन साधने की कोशिश होगी। अभी तक केवल आशा और उम्मीदों पर काम हो रहा है। भविष्य की अंतरिक्ष यात्राओं का सफर बहुत लंबा होने के साथ संभावनाओं और आशंकाओं से भी जुड़ा है। गोया, जो अनंत ब्रह्माण्ड को खंगाल रहे हैं, वे ही ऐसे स्थलों पर पहुंच सकते हैं, जहां शंकालु और निराशावादी पहुंचने का विचार भी नहीं कर सकते हैं। इस नाते चंद्रयान-2 और मानवयुक्त गगनयान अभियानों का स्वागत करने की जरूरत है। 

This post has already been read 18664 times!

Sharing this

Related posts