-डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
भारत की नागरिकता को लेकर विवाद 1947 से ही शुरू हो गया था। उससे पहले वर्तमान भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश (उस समय पूर्वी पाकिस्तान) के सब लोग भारतीय नागरिक ही थे, लेकिन जुलाई 1947 में इंग्लैंड की संसद ने भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पारित किया जिसमें भारत के कुछ हिस्से को काट कर उसे पाकिस्तान का नाम दे दिया गया। दुर्भाग्य से नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने ब्रिटिश संसद द्वारा पारित इस विधेयक को स्वीकार कर लिया। इस विधेयक के पारित होने से केवल पाकिस्तान नाम का एक नया देश ही नहीं बना बल्कि करोड़ों लोगों की भारतीय नागरिकता भी छिन गई। अब वे पाकिस्तानी नागरिक हो गए थे, लेकिन उन सभी लोगों ने, जिनकी भारतीय नागरिकता ब्रिटिश संसद और कांग्रेस के सहयोग से छीन ली गई थी, इसे मानने से इनकार कर दिया, लेकिन उनके पास विकल्प कोई नहीं था। एक विवशता थी। अलबत्ता वे पाकिस्तान छोड़कर खंडित भारत में जरूर आ सकते थे, इससे उनकी भारतीय नागरिकता बरकरार रह सकती थी, लेकिन उसमें अनेक खतरे थे। सारी चल-अचल संपत्ति छोड़नी पड़ती। दूसरे वे मुसलमान जिन्होंने अपनी नई पाकिस्तानी नागरिकता को सहर्ष स्वीकार किया था, शायद उन्हें जिंदा आने भी न देते। उनकी महिलाओं को तो जबरदस्ती रोका ही जा रहा था, लेकिन उन्होंने ये सारे खतरे उठाए और शेष बचे हिंदुस्तान ‘जिसे संविधान में भारत दैट्स इज इंडिया कहा गया है’ की ओर चल पड़े । उनमें से कुछ तो अपनी भारतीय नागरिकता को बचाते हुए हिंदुस्तान पहुंच गए और दूसरे उसकी आशा में रास्ते में ही मार दिए गए। यह अलग बात है कि भारतीय नागरिकता बरकरार रखने के लिए हिंदुस्तान आ रहे इन हिंदु-सिखों को नेहरू बार -बार यह सलाह दे रहे थे कि वे भारत न आएं और पाकिस्तान में ही रहें और अपनी नई पाकिस्तानी नागरिकता को सहर्ष स्वीकार कर लें, लेकिन लाखों की संख्या में पूर्व की ओर आ रहे हिंदु-सिखों ने नेहरू की सलाह नहीं मानी बल्कि अपनी भारतीय नागरिकता को बचाए रखने के लिए अपने प्राण देना बेहतर समझा। खैबर पख्तूनखवा के भारतीय नागरिकों, जिनको शेष बचा हिंदुस्तान दूर पड़ता था, लाखों की संख्या में पाकिस्तान छोड़ कर पड़ोसी अफगानिस्तान में चले गए ओर वहां की नागरिकता ले ली। यह प्रक्रिया दोनों और से हो रही थी। शेष बचे भारत में से भी अनेक भारतीय मुसलमान अपनी भारतीय नागरिकता स्वेच्छा से त्यागकर, पाकिस्तानी नागरिकता प्राप्त करने के लिए पश्चिम की ओर चले थे। उनमें से भी कुछ पाकिस्तान पहुंच गए और कुछ रास्ते में ही मारे गए। दोनों ओर से ऐसे मरने वालों की संख्या दस लाख तक के आसपास मानी जाती है, लेकिन नए बने पाकिस्तान में ऐसे लोग भी थे जो अपनी भारतीय नागरिकता बरकरार रखने के लिए हिंदुस्तान आना चाहते थे, लेकिन नए बने पाकिस्तान की सरकार उन्हें आने से बलपूर्वक रोक रही थी। ये दलित हिंदु थे। पाकिस्तान में अधिकांश मुसलमान हिंदुओं की तथाकथित उच्च जातियों से मतांतरित हुए थे। इनमें से ज्यादा तो जाट और राजपूत थे। बलोच और पठान बुद्ध मत से मतांतरित हुए थे। चाहे इन्होंने इस्लाम मत को स्वीकार कर लिया था, लेकिन जातिगत अभिमान को इन्होंने अभी भी संभाल कर रखा हुआ था। इसलिए बड़ा प्रश्न था कि नए बने पाकिस्तान में सफाई का काम, मैला उठाने का काम कौन करेगा? पाकिस्तान के नगरों में तो यह समस्या और भी भयंकर थी। यह काम दलित हिंदू समाज से ही करवाया जा सकता था। इसलिए पाकिस्तान (उस समय बांग्लादेश भी इस का भाग था) सरकार इन दलित हिंदुओं को अपने यहां से आने नहीं दे रही थी। वे एक प्रकार से वहां बंधक बना लिए गए थे, लेकिन दलित हिंदू वहां बंधक नहीं हैं बल्कि उन्हें वहां पूरा सम्मान दिया जा रहा है, ऐसा भ्रम पैदा करने के लिए जिन्ना ने ऐसे ही एक दलित हिंदू जोगेंद्र नाथ मंडल को पाकिस्तान का विधि मंत्री भी बना दिया था, लेकिन जिन्ना बाकी सभी को तो धोखा दे सकते थे, लेकिन बाबा साहिब भीमराव रामजी आंबेडकर की तीक्ष्ण और प्रखर बुद्धि को धोखा नहीं दे सकते थे। नेहरू की कांग्रेस पाकिस्तान में फंसे हुए हिंदुओं से बार-बार कहा करती थी कि वे वहीं रहें। अब वे पाकिस्तान के नागरिक हैं। जिन्ना वहां की संविधान सभा में उनको ललचा रहे थे कि पाकिस्तान में भी सभी को बराबर के अधिकार होंगे। आंबेडकर समझ गए थे कि पाकिस्तान ने दलित हिंदुओं को अपने यहां बंधक बना लिया है और उन्हें भारत आने नहीं दे रहा। इसलिए उन्होंने उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिख कर आग्रह किया कि वे पाकिस्तान सरकार पर दबाव डालें कि वह दलित हिंदुओं को वहां से निकलने की सुविधा प्रदान करे। उन्होंने स्वयं भी पाकिस्तान के दलित हिंदु-सिखों से कहा कि वे किसी तरह भी पाकिस्तान से निकल कर भारत आ जाए। जिनको बलपूर्वक मतांतरित कर लिया गया है वे भी बिना किसी संकोच के आ जाएं, उनका शुद्धीकरण कर लिया जाएगा, लेकिन इस दलित हिंदू समाज की भारतीय नागरिकता के रास्ते में नेहरू और उनकी कांग्रेस दीवार बन कर खड़ी थी। उधर पाकिस्तान में इस दलित हिंदू समाज की दशा दिन-प्रतिदिन दयनीय होती जा रही थी। मामला यहां तक बढ़ा कि वहां के विधि मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल को भी भाग कर भारत आना पड़ा। जब तक आंबेडकर जिंदा रहे वे इस दलित हिंदू समाज को भारत लाने के प्रयास करते रहे। नेहरू ने यह स्थिति बना दी कि आंबेडकर को मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा और कांग्रेस ने पूरे साधन झोंक कर उन्हें लोकसभा तक में नहीं आने दिया। तभी आंबेडकर ने कहा था कि संविधान के मंदिर पर राक्षसों का कब्जा हो गया है। मेरा बस चले तो मैं इसे जलाकर राख कर दूं, लेकिन बाबा साहिब जल्दी ही चल बसे। अब पाकिस्तान के इस दलित हिंदू समाज की सुध लेने वाला कोई नहीं बचा था। उस समय पाकिस्तान में हिंदू-सिखों का आबादी लगभग बीस प्रतिशत थी। अब पाकिस्तान में यह आबादी दो-तीन प्रतिशत बची है। इस दलित हिंदू-सिख समाज के हजारों लोग पाकिस्तान व बांग्लादेश से हिंदुस्तान में आ गए। उनकी एक ही साध थी कि किसी तरह अपनी पुरानी भारतीय नागरिकता को पुनः प्राप्त करें, लेकिन नेहरू की बनाई हुई दीवार को कोई तोड़ नहीं सका। आज सत्तर साल बाद नरेंद्र मोदी ने इस दलित हिंदू समाज और भारतीय नागरिकता के बीच नेहरू और उनकी पार्टी द्वारा खड़ी की गई दीवार को तोड़ दिया है। यह कांग्रेस द्वारा किए गए भारत विभाजन से उपजे पाप के एक दाग को धोने का ऐतिहासिक फैसला है, लेकिन इसे क्या कहा जाए कि आज कांग्रेस और मुस्लिम लीग मिल कर एक बार फिर पाप की उस दीवार को बचाने का प्रयास कर रही हैं।
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