-डा. वरिंदर भाटिया-
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 27 नवंबर को देश की संवेदनशील आर्थिक स्थिति पर राज्यसभा में कहा है कि देश की आर्थिक विकास दर में गिरावट तो है, लेकिन यह मंदी नहीं है। उन्होंने कहा, ‘अगर आप अर्थव्यवस्था को सही ढंग से देख रहे हैं तो आप देखेंगे कि विकास दर में कमी आई है, लेकिन अभी तक मंदी का माहौल नहीं है और मंदी कभी नहीं आएगी।’ दूसरी ओर आर्थिक विशेषज्ञों की मानें तो देश के आर्थिक हालात कुछ और ही तस्वीर बयां कर रहे हैं। सिंगापुर के डीबीएस बैंक ने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की ग्रोथ इस साल की दूसरी छमाही में भी सुस्त रह सकती है। डीबीएस बैंक ने अपने डेली इकोनॉमिक रिपोर्ट में लिखा है, ‘साल-दर-साल के आधार पर इंडिया की रियल जीडीपी दूसरी तिमाही के 5 फीसदी के मुकाबले तीसरी तिमाही में 4.3 फीसदी रह सकती है।’ किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए कंजम्पशन सेक्टर अहम है। हालांकि प्राइवेट सेक्टर की कमजोर गतिविधियों के कारण कंजम्पशन सेक्टर में भी कमजोरी आई है। नई परियोजनाओं का ऐलान बहुत कम हो रहा है। पिछले कई सालों के मुकाबले यह सबसे कम है। कंज्यूमर ड्यूरेबल्स, नॉन-कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और कैपिटल गुड्स की डिमांड कम होने के कारण प्रोडक्शन भी कमजोर है। रिजर्व बैंक के एक सर्वे के मुताबिक, इनकम और रोजगार कम होने के कारण कंज्यूमर सेंटीमेंट कमजोर हुआ है। इनडायरेक्ट और डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन से भी सुस्त डिमांड का पता चल रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था एक ऐसे दौर से गुजर रही है जिसमें किसी अच्छी खबर को ढूंढ पाना मुश्किल हो गया है। सरकार ने पिछले कुछ सप्ताहों में कार्पोरेट टैक्स को कम करने, हाउसिंग, रियल एस्टेटए मोटर वाहन और निर्यातों को बढ़ावा देने के लिए बेशक कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन आर्थिक संकट दूर होता नहीं दिख रहा है। सवाल है कि सरकार को क्या करना चाहिए? अर्थव्यवस्था में जान डालने के कई प्रस्तावों पर विचार किया जा रहा है? इन प्रस्तावों में ये बातें शामिल हैं। बुनियादी ढांचे पर अतिरिक्त निवेश, आयकर दरों में परिवर्तन, नीतिगत सुधार और निजीकरण। इन उपायों से मदद तो मिलेगी मगर इनके नतीजे अल्पकाल में नहीं दिखेंगे। आर्थिक वृद्धि के अहम आंकड़ों को सुधारने पर जोर देने से पहले बेहतर यह होगा कि अर्थव्यवस्था को लेकर मूड फिलहाल जिस तरह पस्त है उसमें जोश पैदा किया जाए। अर्थव्यवस्था के वास्तविक आंकड़े अगर महत्त्वपूर्ण हैं तो अर्थव्यवस्था को लेकर ‘सेंटिमेंट’ भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। यहां कुछ ऐसे उपायों को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्हें लागू करके सरकार इस ‘सेंटिमेंट’ में गिरावट को उलटने की प्रक्रिया शुरू कर सकती है। वक्त आ गया है कि सरकार एक आकलन पत्र जारी करे और बताए कि उसके मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्तविक स्थिति और संभावनाएं क्या हैं। इस तरह का दस्तावेज जल्दी तैयार किया जा सकता है, और इसकी विश्वसनीयता तब बढ़ जाएगी जब यह काम किसी स्वतंत्र अर्थशास्त्री को सौंपा जाए, जो सरकारी अर्थशास्त्रियों, वित्त मंत्रालय के विशेषज्ञों और अधिकारियों की मदद से यह रिपोर्ट करे। 2012 में विजय केलकर ने अर्थव्यवस्था की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। आज वैसा ही कुछ करने की जरूरत है सरकार के लिए दूसरा सबसे जरूरी कदम यह होगा कि वह आर्थिक मंदी दर्शाने वाले आंकड़ो से मुंह न फेरे। कुछ महीने पहले एक सरकारी सर्वे ने साफ कहा था कि रोजगार वृद्धि दर में भारी गिरावट आई है। इस पर सरकार की फौरी प्रतिक्रिया यह थी कि वह रिपोर्ट सर्वेयरों की खोज का एक मसौदा भर थी। इसके कुछ महीने बाद ही सरकार ने उस रिपोर्ट को अंतिम मान कर स्वीकार कर लिया। यह एक स्वागत योग्य कदम था, जबकि पहले इस रिपोर्ट को खारिज करना समस्या बढ़ाने वाला था। सनद रहे की विकास दर में कमी आर्थिक सुस्ती को दर्शाती है और हमे आर्थिक सुस्ती को मंदी में तबदील होने का इंतजार नही करना होगा। आर्थिक सुस्ती से केवल निवेश बढ़ाकर और नीतिगत सुधार करके ही नहीं निपटा जा सकता। इसको लेकर सरकार पर बड़ती इल्जाम फरोशी भी इसका जादुई या फिर कोई परिपक्व हल नहीं है जरूरत है की आर्थिक सुस्ती के स्वरूप और उससे पैदा होने वाली भविष्य की और तत्कालीन चुनौतियों के बारे में आर्थिक विशेषज्ञों की सहायता से एक देश व्यापी पॉजिटिव बहस हो और हमारे नीति निर्माताओं के सामने क्रियान्वयन व इससे निपटने की एक रेखांकित रणनीति हो।
This post has already been read 8651 times!