उद्धव के समक्ष वैचारिक चुनौतियों का पहाड़

-सुरेश हिंदुस्थानी-

महाराष्ट्र में लम्बी कवायद के बाद आखिरकार शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सरकार का गठन हो चुका है। इस सरकार को राजनीति के ऐसे दो ध्रुवों का जबरदस्ती मिलन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि जहां शिवसेना खुलकर हिन्दुत्व के मुद्दे पर मुखर होकर राजनीति करती रही है, वहीं कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी विशुद्ध धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़कर राजनीति करने को ही अपनी प्राथमिकता मानती रही है। ऐसे में यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि यह सरकार एक-दूसरे से भिन्न सिद्धांतों को अपनाने वाले दलों की सरकार है। कांग्रेस सहित शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की इस नई सरकार के बारे में अभी से यह कहा जाने लगा है कि यह खंडित जनादेश की अवसरवादी सरकार है। खंडित जनादेश की संज्ञा देने के निहितार्थ यही हैं कि कांग्रेस और राकांपा को महाराष्ट्र की जनता ने विपक्ष में बैठने का ही जनादेश दिया है, लेकिन सत्ता की महत्वाकांक्षा में इन दोनों दलों ने शिवसेना के साथ मिलकर जनता के निर्णय को उलटकर रख दिया। महाराष्ट्र की सरकार को देखकर ऐसा ही लग रहा है कि यहां पूरी तरह से कर्नाटक की तर्ज पर ही उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री की कमान संभाली है। कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर को कांग्रेस ने समर्थन देकर कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना दिया था। कर्नाटक की इस सरकार का भविष्य हम सभी देखा है। ऐसे में महाराष्ट्र में भी इस प्रकार के सवाल उठना स्वाभाविक ही है, क्योंकि जिस प्रकार से कर्नाटक में दो विपरीत विचार रखने वाले राजनीतिक दलों ने सरकार बनाई थी, उसी प्रकार की सरकार महाराष्ट्र में भी बनी है। नवगठित सरकार में शामिल तीनों दल लगभग समान राजनीतिक हैसियत वाले हैं, इसलिए यह आसानी ने कहा जा सकता है कि यह तीनों ही दल सत्ता का केन्द्र रहेंगे। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यही कहा जाएगा कि मुख्यमंत्री के पास उतने अधिकार नहीं होंगे, जितने एक मुख्यमंत्री के होते हैं। हम यह भी जानते हैं कि कर्नाटक में कुमारस्वामी अपने मुख्यमंत्री काल में ही कांग्रेस से परेशान होने लगे थे। यहां तक कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह भी स्वीकार किया था कि वे सरकार के संचालन में खून के घूंट पी रहे हैं। इसका आशय यही निकाला जा रहा था कि कांग्रेस कुमारस्वामी की राह को अवरोधित करने का ही काम कर रही थी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के समक्ष भी ऐसी ही स्थितियां निर्मित होंगी। यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि कांग्रेस और शिवसेना की पटरी इतनी आसानी से नहीं बैठ सकती। सवाल यह भी है कि क्या उद्धव ठाकरे दूसरे कुमारस्वामी बन सकते हैं? अगर भविष्य में यह सही साबित होता है तो यही कहा जाएगा कि उद्धव ठाकरे ने अपनी जिद पूरा करने के लिए खुद को बहुत बड़े जंजाल में फंसा लिया है। महाराष्ट्र में लम्बे समय तक चले अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम के पश्चात यह स्पष्ट तौर से दिखाई दे रहा है कि इन तीनों राजनीतिक दलों में से किसी एक के पास पूर्ण बहुमत की आधी सीट भी नहीं हैं, यानी राज्य की विधानसभा में किसी भी एक दल को पच्चीस प्रतिशत जनता का भी समर्थन नहीं मिला है। इनमें से एक दल शिवसेना को जो भी समर्थन मिला, वह मात्र भाजपा के साथ सरकार बनाने के लिए ही मिला था, दोनों ने मिलकर वोट मांगे थे। हम जानते हैं कि कांग्रेस और शिवसेना वैचारिक रूप से कभी भी एक साथ नहीं रह सकते, लेकिन ऐसी भी धारणा बन चुकी है कि जहां सत्ता की चाह होती है, वहां सारे सिद्धांत धूमिल हो जाते हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में भी कुछ ऐसा ही होता दिखाई दिया है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में जो नई सरकार सत्तारूढ़ हुई है उसके आगे की राह बहुत कठिन है। ऐसा लगता है कि शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे ने सत्ता के लालच में खुद ही अपनी पार्टी को ऐसे रास्ते पर ले जाने का प्रयास किया है, जो जोखिम भरा है। महाराष्ट्र की वर्तमान राजनीति को देखकर यही कहा जा सकता है कि उद्धव ठाकरे के सामने चुनौतियों का एक ऐसा पहाड़ है, जिसका सामना करना उनके लिए मुश्किल भरा होगा। भविष्य में कांग्रेस और राकांपा दोनों ही दल शिवसेना से कैसे पटरी बिठा पाएंगे, यह एक बड़ा सवाल है। हालांकि तीनों दलों के बीच न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी बना है, लेकिन शिवसेना के गठन का जो उद्देश्य रहा है उन उद्देश्यों से शिवसेना समझौता करेगी, ऐसा लगता नहीं है। ऐसे में संभावित रूप से यह भी लगता है कि शिवसेना ज्यादा समय तक इन दोनों दलों के साथ शासन नहीं कर पाएगी। महाराष्ट्र में जो राजनीतिक घटनाक्रम चला, उसके केन्द्र में राकांपा प्रमुख शरद पवार की कूटनीति को ही प्रमुख माना जा रहा है। कहा जाता है कि शरद पवार बहुत दूर की सोचकर ही राजनीति करते हैं। राज्य में भी कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है। उन्होंने अपनी पुत्री सुप्रिया सुले की राह आसान करने के लिए पहले तो अपने भतीजे अजित पवार को रास्ते से हटाने का काम किया, दूसरे अजित पवार के माध्यम से भाजपा को समर्थन देकर उसकी साख को भी समाप्त करने की राजनीति खेली। शिवसेना ने एक लोकतांत्रिक गुनाह यह भी किया है कि जिन लोगों को जनता ने विरोध में बैठने के लिए निर्णय दिया था, वह आज सरकार में शामिल हो गए हैं। महाराष्ट्र की राजनीति का विश्लेषण किया जाए तो यही प्रतिपादित होता है कि राज्य में जनता की पसंद में प्रथम स्थान पर रहने वाली पार्टी को अंतिम स्थान लाकर खड़ा कर दिया है। इसे जनादेश का अपमान कहा जाए तो तर्कसंगत ही होगा। भविष्य में महाराष्ट्र की राजनीति कौन-सी करवट लेगी, यह फिलहाल स्पष्ट नहीं है लेकिन हवाओं में जो सवाल तैर रहे हैं, वह यही प्रदर्शित करते हैं कि राज्य में जो राजनीतिक अस्थिरता निर्मित हुई थी, उसका प्रभाव लम्बे समय तक बना रहेगा। क्योंकि सरकार बनने के बाद भी तीनों दलों में गहरा अंतर्विरोध समाया हुआ है।

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