भाषा की मर्यादा

-सिद्धार्थ शंकर-

राजनीतिक पार्टियों का एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और व्यंग्य बाण चलाना नई बात नहीं है। लोकतंत्र में असहमति बड़ा गुण माना जाता है, पर कई बार जब राजनेता दुर्भावनावश या घृणाभाव से अपने प्रतिपक्षी के प्रति अशोभन भाषा का इस्तेमाल करते हैं, तो स्वाभाविक ही उनके आचरण पर अंगुलियां उठने लगती हैं। चुनाव के वक्त राजनेताओं की भाषा अक्सर तल्ख हो उठती है, मगर पिछले कुछ सालों से इसमें जिस तरह की तल्खी देखी जा रही है, वह लोकतंत्र के लिए कतई अच्छी नहीं कही जा सकती। सार्वजनिक जीवन में नेता का आचरण काफी मायने रखता है। बहुत सारे लोग उससे प्रेरणा लेते व फिर उसके आचरण को समाज के निचले स्तर पर प्रसारित करते हैं। मगर अफसोस कि कई राजनेता अपने विपक्षी पर वार करने की धुन में अपने पद की गरिमा और मर्यादा का भी ध्यान नहीं रख पाते। इस बार लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यह प्रवृत्ति कुछ अधिक उभर कर आई दिखती है। हमारे यहां ज्यादातर क्षेत्रीय दलों का जनाधार जाति, धर्म, क्षेत्रीय अस्मिता पर टिका हुआ है। वे उन्हीं की राजनीति करते हैं। इसलिए केंद्र या राज्य में अपने प्रतिद्वंद्वी दल की सरकार पर अक्सर उनका तल्खी भरा बयान ही सुनने को मिलता है। उत्तर प्रदेश व बिहार के क्षेत्रीय दल इस मामले में ज्यादा मुखर नजर आते हैं। चाहे सपा-बसपा-राजद हों या दूसरे दल, उनके नेता कड़वी भाषा का इस्तेमाल करके ही अपने मतदाताओं को रिझाने का प्रयास करते हैं। इस तरह परिपाटी-सी बनती गई है कि प्रतिपक्षी पर प्रहार करना है, तो कड़वी और अशोभन भाषा का उपयोग करना ही चाहिए। ऐसी भाषा जब छुटभैए नेता ग्रहण करते हैं, तो उसे और विकृत करते हैं। विवेकहीन तरीके से तथ्यों को पेश करते, वोटरों को बरगलाने का प्रयास करते और कई बार गाली-गलौज तक की भाषा तक बोलने लगते हैं। यह लोकतंत्र की गरिमा को चोट पहुंचाने वाली ही प्रवृत्ति है, जो घातक होती जा रही है। हैरानी की बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं को भाषा के मामले में संयम और शालीनता बरतने की सीख नहीं देता। कई बार ऐसे नेता अपने वरिष्ठों से पुरस्कृत होते देखे जाते हैं, जो अपने विपक्षी के खिलाफ तल्ख व अशोभन भाषा का उपयोग करते हैं। विचित्र है कि आजकल टीवी और सोशल मीडिया ने ऐसी भाषा वाले बयानों को चटखारे लेकर और बढ़ा-चढ़ा कर परोसना शुरू कर दिया है। इस तरह आम लोगों का मानस कुछ इस तरह बनाने का प्रयास हो रहा है कि पान की दुकान पर खड़े होकर बतियाने वालों की भाषा और माननीय प्रतिनिधियों या फिर जिम्मेदार नेताओं की भाषा में कोई अंतर नहीं होता। आम जनजीवन की भाषा को राजनीति की भाषा बनाना अच्छी बात है, पर उसकी मर्यादा का ध्यान न रखना असंवैधानिक है। मगर शायद नेताओं ने मान लिया है कि मतदाताओं को अब वही भाषा पसंद आती है और उसी भाषा में दिए बयान उन्हें प्रभावित करते हैं, जिसमें कुछ अशोभन और तल्ख शब्दों का समावेश हो। नहीं तो कोई और कारण नहीं हो सकता कि सत्ता के शीर्ष नेतृत्व की भाषा में संयम नहीं दिखाई देता है। भाषा में भड़काऊपन, आक्रामकता व अशालीनता कहीं न कहीं राजनीति को कमजोर करते हैं।

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