-डॉ. अजय खेमरिया-
इस बार ग्लोबल हंगर इंडेक्स के कुल 117 देशों में हमारा नम्बर 102वां रहा है। पाकिस्तान हमसे उपर है। यह दो ऐसे तथ्य हैं जिन पर हमें भावनाओं से ऊपर उठकर समझने का प्रयास करना चाहिए। पिछले दो तीन महीने से देश का मीडिया पाकिस्तान को लेकर दिन-रात खबरें दिखा रहा है। 99 फीसदी प्राइम टाइम में पाकिस्तान की बदहाली, भुखमरी के उत्सवी गीत गाये जा रहे हैं। मानों उनकी भुखमरी से हमारी भोजन की थाली पकवानों से भर गई हो। यह भारत के मीडिया की राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का नमूना है जिसे भारत की भूख नजर नहीं आती है। भारत ब्रिक्स के देशों में भी मानव विकास सूचकांक में पहले से ही बहुत पीछे है। अब जीएचआई की रिपोर्ट जिस मुकाम पर हमें खड़ा कर रही है, वह हमारे लिए सार्क के देशों से भी पिछड़ेपन की शर्मनाक इबारत लिखती है। बुनियादी सवाल यह है कि जब हम खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो चुके हैं, हमारे अनाज के भंडार भरे पड़े हैं, तब भारत में भुखमरी की परिस्थितियां वैश्विक मूल्यांकन पर इतनी शर्मनाक कैसे हैं? अनाज गोदामों के भंडारण के आंकड़े और खाद्य सुरक्षा की सरकारी वचनबद्धता के बीच यह स्पष्ट हो चुका है कि हमारी सरकार अपनी वचनबद्धता में बुरी तरह से नाकाम हो चुकी है। सरकार कार्यपालिका, विधायिका औऱ न्यायपालिका से मिलकर बनती है। जाहिर है यह समग्र समाज की ही विफलता है, जो इस आधुनिक भारतीय समाज में भूख की कालिख को 70 साल बाद भी अपने चेहरे से मिटा नहीं पाया है। हजारों करोड़ रुपये हर साल खाद्य सुरक्षा से जुड़ी सामाजिक योजनाओं पर खर्च हो रहे हैं। लेकिन, हकीकत यह है कि समाज के वास्तविक जरूरतमंदों तक योजनाओं की पहुंच आज भी नहीं है। भूख से लड़ने की सरकार के खोखलेपन को समझने के लिये हमें मप्र के ग्वालियर संभाग को नजीर के तौर पर लेना होगा। मप्र के सात जिले शिवपुरी, दतिया, गुना, अशोकनगर, श्योपुर, ग्वालियर और मुरैना में सहरिया जनजाति के लोग बड़ी संख्या में निवास करते हैं। यह देश के सबसे पिछड़े जनजाति समुदाय में आते हैं। कुपोषण के सर्वाधिक मामले इन्ही जिलों में हैं। श्योपुर, शिवपुरी जिलों में तो कुपोषण के हालात पिछले तीन दशक से भयावह बने हुए हैं। हर सरकार में इस समस्या को लेकर कार्ययोजनाएं बनीं। शिक्षा, स्वास्थ्य और बाल विकास विभाग की बीस से ज्यादा योजनाओं पर अब तक बेहिसाब रुपया खर्च हो चुका है। लेकिन, नतीजा सिफर है। जमीन पर इन योजनाओं की सच्चाई यह है कि सरकारी विभागों में आपस में कोई समन्वय नहीं है। महिला बाल विकास विभाग को पोषण आहार उपलब्ध कराने की जवाबदेही है। लेकिन यहां पूरी व्यवस्था ठेकेदारों के हवाले है। जिसमें स्थानीय नेता और विभागीय अफसर मिले हुए हैं। मप्र हाईकोर्ट पिछले 5 साल से लगातार मप्र में पोषण आहार सप्लाई की व्यवस्था को तत्काल बदलने के आदेश दे रहा है। लेकिन बीजेपी और अब कांग्रेस दोनों सरकारें इस मामले में कोई ठोस पहल नहीं कर पा रही हैं। यह मामला सैकड़ों करोड़ की सप्लाई का है। इसलिये इसमें भूख से पहले डिनर, ब्रेकफास्ट और हाईजेनिक फूड वाले एलीट क्लास की प्राथमिकता को आसानी से समझा जा सकता है। सहरिया बिरादरी के हजारों बच्चे मप्र के उत्तरी अंचल में कुपोषण से जूझ रहे हैं। मप्र की मौजूदा महिला बाल विकास मंत्री इमरती देवी खुद स्वीकार कर चुकी हैं कि उनके विभाग की यह व्यवस्था पूरी तरह से फेल है। माना जाता है कि आईएएस अफसर भारत में सबसे कुशाग्र होते हैं। इसका नमूना इनके द्वारा निर्धारित पोषण आहार के बजट प्रावधान से समझने का प्रयास कीजिये। मप्र में एक कुपोषित बच्चे (3 से 6 बर्ष) को चार रुपये भोजन और ढाई रुपये नाश्ते के लिए मिलते हैं। सवा सात रुपये प्रति मंगलवार गर्भवती महिला के लिए बजट निर्धारित है। जिस देश में एक लीटर पानी की कीमत 20 रुपये और सात रुपये में एक समोसा मिलता है, वहां इस बजट में कुपोषण से लड़ने का प्रावधान करने वाले अफसरों की सामान्य समझ और संवेदना को समझना कठिन नहीं है। यह भी याद रखिये की इस बजट में पका हुआ पौष्टिक भोजन बनाकर दिया जाता है आंगनबाड़ी में। त्रासदी यहीं तक सीमित नहीं है। इस बजट पर प्रदेशभर में खाना बनाने वाले समूह संचालकों, विभाग की सुपरवाइजर, परियोजना अधिकारी, और जिला कार्यक्रम अधिकारियों का हर महीने मोटा कमीशन फिक्स है। एक ब्लाक परियोजना अधिकारी और जिला कार्यक्रम अधिकारी की कुर्सी के लिए इन जिलों में बकायदा बोली लगती है। इसलिए अब सवाल भूख से लड़ने के लिए उपलब्ध संसाधनों और उनके नियोजन का है या बेईमानी भरी सोच का, समझना मुश्किल नहीं है।
भूख से जुड़ी सरकार की दूसरी योजना सार्वजनिक वितरण प्रणाली की है। यह वर्षों से एक ही ढर्रे पर चल रही है। आप किसी भी कंट्रोल (सरकारी सस्ते राशन) की दुकान पर चले जाइये, वहां हर हितग्राही सेल्समैन की शिकायत करता मिलेगा। सरकारें बड़े-बड़े दावे करती हैं खाद्य सुरक्षा के, लेकिन जमीन पर यह पूरी प्रणाली पीडीएस माफिया के हवाले है। ग्रामीण क्षेत्रों में दो-दो महीने का आवंटन गायब कर दिया जाता है। मप्र में हर मंगलवार को कलेक्टर की जनसुनवाई में दस-बीस शिकायतें कंट्रोल दुकानों की ही आती हैं। प्रदेश में खाद्य और आपूर्ति विभाग पीडीएस का नोडल विभाग है। लेकिन सहकारी समितियों, वनोपज समितियों से लेकर थोक उपभोक्ता भंडार तक ये दुकानें चलाते हैं। इन समितियों के अध्यक्ष सचिव स्थानीय नेता होते हैं। उनमें से अधिकतर का उद्देश्य ही राशन और केरोसिन की कालाबाजारी है। इन दुकानों के आवंटन के लिए मंत्री स्तर से लॉबिंग होती है। फिर फूड इंस्पेक्टर, सहायक खाद्य अधिकारी, सहायक संचालक खाद्य, तहसीलदार, एसडीएम तक हर किसी की मासिक भेंट इन दुकानों से बंधी रहती है। पीडीएस का हजारों टन गेहूं- चावल खुले बाजार में बेचा जाता है। पैक्ड आटा फैक्ट्रियों से लेकर ब्रेड के कारखानों तक यही गेहूं-चावल सुनियोजित तरीके से पहुंच रहा है जो सहरिया और दूसरे गरीब तबके के हिस्से का होता है।
जाहिर है, भारत की भूख समाज के भरे पेट वालों की पैदा की हुई है। सरकार में बैठे हर जिम्मेदार व्यक्ति को इस संगठित लूट की जानकारी है। जिले में जो भी नया कलेक्टर आता है उसकी सेवा में फूड, ट्राइबल और महिला बाल विकास के अफसर ही आगे रहते हैं। कमोबेश मंत्री से लेकर सीएम तक की वीआईपी व्यवस्था भी इन्हीं भूख से लड़ने वाले लोगों के हवाले रहती है। इसलिए हंगर इंडेक्स में हम अगली बार दो पायदान औऱ नीचे खिसक जाएं तो कतई अचंभा नहीं होना चाहिए। फिलहाल आप मीडिया में पाकिस्तान की दुर्दशा की फंतासी देखिये और सहरिया, भील, भिलाला, पटेलिया जनजाति के बच्चों को कुपोषण से अभिशप्त बने रहने दीजिए।
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