म्यांमार संकट से उपजे सवाल
डॉ. प्रभात ओझा
म्यांमार के नागरिक मुसीबत में हैं। लोकतंत्र के लिए प्रदर्शन कर रहे लोग मौत के मुंह में समा रहे हैं। जो हालात से डरकर भागना चाहते हैं, उन्हें पड़ोसी देश अपने यहां आने नहीं देना चाहते। चुनी हुई सरकार के फरवरी में तख्ता-पलट के बाद 29 मार्च तक सेना की गोलियों से म्यांमार के 400 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। अकले 28 मार्च को जब म्यांमार की सेना अपना वार्षिक परेड कर रही थी, लोकतंत्र के लिए सड़कों पर उतरे लोगों में से 114 को मौत की नींद सुला दिया गया। इन घटनाओं पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतरश ने कहा कि इस हिंसा से उन्हें ‘गहरा सदमा’ लगा है। ब्रिटेन ने तो इसे ‘गिरावट का नया स्तर’ बताया है। आपात स्थितियों पर विचार के लिए संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत टॉम एंड्रूस ने एक अंतराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की मांग की है। चिंता जताने और विचार-विमर्श का सिलसिला चलता रहेगा। बड़ी चिंता यह है कि वहां के हालात से परेशान जो लोग किसी दूसरे देश में शरण लेना चाहते हैं, उनका क्या हो?
म्यांमार से भागने वाले लोग शरणार्थी बनना चाहते हैं। अपने देश में सांप्रदायिक दंगे, युद्ध, राजनीतिक उठापटक जैसे हालात से बचकर दूसरे देशों में रहने वाले लोग ही शरणार्थी हुआ करते हैं। इसमें एक मुख्य बिंदु यह होता है कि दूसरे देश में रहते हुए उन्हें नागरिकता नहीं मिलती और वे अपने देश भी नहीं लौटना चाहते। भारत के मणिपुर में भी म्यांमार के ऐसे कुछ नागरिक आ चुके हैं। और तो और, इनमें पुलिस वाले भी शामिल हैं। ये ऐसे पुलिसकर्मी हैं, जिन्होंने लोकतंत्र समर्थकों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। यानी मुसीबत में आम लोगों के साथ सरकारी कर्मचारी भी शामिल हैं। यह जरूर है कि ये सरकारी कर्मचारी भी आम लोगों की तरह सेना वाली सरकार के हुक्म नहीं मानना चाहते।
सवाल यह है कि भारत जैसा देश ऐसे लोगों का बोझ किस स्तर तक बर्दाश्त करे। मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथंगा कहते हैं कि उनकी सरकार ऐसे लोगों को अस्थायी तौर पर पनाह देगी। इनके बारे में आगे का फैसला केंद्र सरकार करेगी। भारत से उम्मीद की किरणें देख ऐसे लोग इधर का मुंह करने लगे हैं। करीब 250 मील लंबी तिआउ नदी दोनों देशों के बीच सीमा के कुछ हिस्से को साझा करती है। इस नदी को पार कर आने वाले ही अधिक हैं। मुश्किल यह है कि मिजोरम के साथ पड़ोसी मणिपुर सरकार ने भी म्यांमार से आने वालों के लिए कोई रिफ्यूजी कैंप नहीं खोलने का फैसला किया है। केंद्र सरकार ने नगालैंड और अरुणाचल प्रदेशों से भी ऐसे शरणार्थियों को रोकने को कहा है। भारत-म्यांमार सीमा पर तैनात बॉर्डर गार्डिंग फोर्स को अलर्ट रहने की भी एडवाइजरी जारी की गई है।
भारत की अपनी दिक्कतें हैं। किसी दूसरे देश में सताने के परिणामस्वरूप आए वहां के अल्पसंखयकों को नागरिकता देने का कानून बनाया गया है। उसकी एक समय सीमा तय की गयी। उस कानून का एक तबके ने विरोध भी किया। उन्हें लगा कि उन्ही के समुदाय को रोका जा रहा है। केंद्र सरकार की अपनी दिक्कते हैं। यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिप्टूजीज (यूएनएचसीआर) के 2014 के अंत के आंकड़े के मुताबिक भारत में 1 लाख 09 हजार तिब्बती, 65 हजार 700 श्रीलंकाई, 14 हजार 300 रोहिंग्या, 10 हजार 400 अफगानी, 746 सोमाली और 918 दूसरे शरणार्थी रह रहे हैं।
ये रजिस्टर्ड शरणार्थी हैं, अवैध रूप से यहां रहने वालों की संख्या बहुत अधिक है। देश में बढ़ते शरणार्थियों से आर्थिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक दबाब तो है ही, कानून व्यवस्था सबसे बड़ा सवाल है। अपराध और यहां तक कि देश विरोधी आतंकी गतिविधि से भी कई बार ऐसे लोगों के तार जुड़े पाए जाते हैं। वैसे भी भारत ने यूनाइटेड नेशंस रिफ्यूजी कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। पहले से ही बड़ी संख्या में शरणार्थियों की जिम्मेदारी उठा रहे भारत के लिए यह उचित भी नहीं है। सवाल सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा है कि जरूरमंदों की मदद कैसे हो। उचित समाधान तो म्यांमार में शीघ्र शांति-स्थापना ही है।
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